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सोर्स - Jagran
संजय गुप्त। पिछले दिनों चुनाव आयोग (Election commission) ने राजनीतिक दलों को एक पत्र लिखकर कहा कि उन्हें लोक-लुभावन वादों की घोषणा करते समय यह भी बताना चाहिए कि वे उन्हें पूरा करने के लिए राजस्व कहां से जुटाएंगे। जैसा अंदेशा था, इस पत्र पर कांग्रेस समेत कई दलों ने आपत्ति जताई। उनके रवैये को देखते हुए इसमें संदेह है कि वे चुनाव आयोग की चिट्ठी पर कोई सकारात्मक जवाब देंगे। आयोग के पास यह अधिकार नहीं कि वह राजनीतिक दलों की ओर से की जाने वाली मनमानी घोषणाओं पर कोई अंकुश लगा सके। उसने जो व्यवस्था बनाई भी है, वह खानापूरी बनकर रह गई है।
चूंकि अभी यह कहना कठिन है कि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों की आर्थिक नियमों की अनदेखी करने वाली लोक-लुभावन घोषणाओं पर अंकुश लगा सकेगा या नहीं, लेकिन यह अच्छा है कि उसने कहा कि वह हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकता। निःसंदेह वह इसलिए ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि रेवड़ी संस्कृति (rewadi culture) बेलगाम होती जा रही है।
दल यह मान बैठे हैं कि जनता को लुभाने वाले वादे करके चुनाव जीते जा सकते हैं। नतीजा यह है कि मुफ्त बिजली-पानी संग मोबाइल फोन, लैपटाप, स्कूटी आदि देने की घोषणाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। जैसे चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह मतदाताओं को बताए कि वे अपने मत का उपयोग सोच-समझ कर करें, वैसे ही यह देखने की भी कि राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए अनुचित तौर-तरीके न अपनाएं।
मतदाताओं को रिझाने के लिए राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में लंबे-चौड़े वादे करते हैं। जब वे चुनाव जीत जाते हैं तो फिर इन वादों को पूरा करने के फेर में वित्तीय स्थिति की अनदेखी करते हैं। इस क्रम में राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखने संबंधी नियमों की भी उपेक्षा करते हैं। वे अपने वादों को पूरा करने की कोशिश में वित्तीय संतुलन को और गड़बड़ा देते हैं। जो सरकारें राजस्व जुटाने के उपाय करने के बजाय कर्ज लेकर काम चलाने लगती हैं, वे आर्थिक रूप से पिछड़ जाती हैं। एक समस्या यह भी होती है कि जब जनता को कोई चीज या सुविधा मुफ्त मिलने लगती है तो वह उसकी अभ्यस्त हो जाती है। यदि कभी मुफ्त की योजना में कोई कटौती होती है तो जनता उसे स्वीकार नहीं करती है।
इसी प्रवृत्ति को प्रधानमंत्री मोदी ने रेवड़ी संस्कृति करार देकर एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दिया है। जब कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, डीएमके जैसे दल यह तर्क दे रहे कि मुफ्त सेवाएं देना जनकल्याण का काम है और यह उनके राजनीतिक अधिकार में आता है, तब यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर कल्याणकारी योजनाओं और रेवड़ियां बांटने में कोई अंतर किया जाएगा या नहीं?
यह ठीक है कि केंद्र सरकार सहित राज्य सरकारें निर्धन लोगों को कई तरह की रियायत या सरकारी सहायता अथवा वस्तुएं देती हैं, लेकिन समस्या तब होती है, जब ऐसा करते हुए मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है और वित्तीय स्थिति की अनदेखी की जाती है। यदि कोई सरकार आर्थिक रूप से सक्षम है तो वह पात्र लोगों को रियायत दे सकती है, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि आर्थिक समस्याओं से घिरी और कर्ज में डूबी सरकारें भी ऐसा करें। दुर्भाग्य से वर्तमान में ऐसा ही हो रहा है।
यह सरकारों का दायित्व है कि वे अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाएं, क्योंकि जब वह बढ़ेगी, तभी लोगों को नौकरियां मिलेंगी। जब केंद्र अथवा राज्यों के पास धन होगा तभी तो वे शिक्षा, स्वास्थ्य एवं बुनियादी ढांचे पर बेहतर खर्च कर पाएंगे। इससे ही लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा। अपने देश में जिन राज्यों में तेजी से विकास हुआ, वहां शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर करने, बुनियादी ढांचे के विकास और कानून एवं व्यवस्था में सुधार करने को प्राथमिकता दी गई। राज्य ऐसा तभी कर सके, जब उनके पास धन आया और उन्होंने मुफ्तखोरी की संस्कृति (freebies) को नियंत्रित किया।
रेवड़ी संस्कृति जनता को सरकारी सहायता पर इतना अधिक आश्रित कर देती है कि वह अपने बलबूते खुद का विकास करने की मानसिकता से लैस नहीं रह जाती। वह यह नहीं सोचती कि मुफ्तखोरी की संस्कृति देश को आर्थिक रूप से खोखला करती है।
न जाने कितने ही देश इस संस्कृति के कारण तबाह हुए हैं। ऐसा लगता है सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की तरह केंद्र सरकार भी मुफ्तखोरी की संस्कृति को रोकने के लिए प्रतिबद्ध है। हालांकि कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह कहा था कि वह राजनीतिक दलों के नीतिगत फैसलों का नियमन नहीं करना चाहता, लेकिन अब उसने मुफ्तखोरी की संस्कृति को लेकर दलों को चिट्ठी लिख दी। इस पर उसकी आलोचना का कोई औचित्य नहीं, क्योंकि कोई भी संस्था अपने विचार बदल सकती है और रेवड़ी संस्कृति सचमुच चिंता का विषय है।
रेवड़ी संस्कृति जनता के लिए भी चिंता का विषय बननी चाहिए। मतदाताओं को राज्य और राष्ट्र हित में अपने मत का उपयोग करना चाहिए। अपने देश में मतदाताओं का एक वर्ग प्रायः या तो भावनात्मक कारणों से या फिर किसी प्रलोभन के चलते अपना मत देता है। एक तरफ हम यह कहते हैं कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं और दूसरी ओर यह देखते हैं कि तमाम मतदाता अपने मताधिकार के समय परिपक्वता नहीं दिखाते।
विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दल और प्रत्याशी अपने वादों पर खरे उतर पाएंगे या नहीं, इसकी गहन पड़ताल होती है और उस पर सार्थक बहस भी होती है। सार्वजनिक स्तर पर होने वाली इन बहसों का संचालन निष्पक्ष और पेशेवर विश्लेषक करते हैं, जो इसका भी निर्धारण करते हैं कि किसने किस विषय पर लोगों को प्रभावित किया? इस बहस में प्रमुख नेता भाग लेते हैं, लेकिन अपने देश में ऐसा कुछ नहीं होता।
अपने यहां तो संसद और उसके बाहर होने वाली बहस भी आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित रहती है। राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाने के लिए अपने देश में भी महत्वपूर्ण विषयों पर सार्थक बहस के वैसे तौर-तरीके अपनाए जाने जरूरी हैं, जैसे विकसित देशों में प्रचलित हैं। इससे ही भारतीय लोकतंत्र समर्थ होगा और जनता जागरूक होने के साथ आवश्यक जानकारी से भी लैस होगी। इसका लाभ राजनीति और समाज, दोनों को मिलेगा।
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