- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- महंगी पड़ेगी महंगाई
सरोज कुमार: महंगाई एक हद तक बुरी नहीं होती, बशर्ते उसी अनुपात में कमाई हो। कमाई के अभाव में महंगाई आम आदमी और अर्थव्यवस्था के लिए काल बन जाती है। महंगाई के कारण बाजार में मांग घट जाती है। मांग घटने पर यदि उत्पादन भी घटाया गया तो बेरोजगारी बढ़ती है और इससे अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ जाती है।
महंगाई कोई औचित्य का विषय नहीं जिसे खारिज कर देने से बात खत्म हो जाए। यह अनुभव का विषय है, आमजन की जेब और जिंदगी से जुड़ा हुआ। अनुभव बता रहा है कि महंगाई चरम पर है। महंगाई नियंत्रक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) भी इससे हामी रखता है। इस तथ्य से भी कि निकट भविष्य में महंगाई से मुक्ति नहीं मिलने वाली। यह अमुक्ति आम आदमी और अर्थव्यवस्था पर महंगी पड़ने वाली है। मंद मांग के बीच महंगाई का लगातार ऊपर रहना अर्थव्यवस्था के कठिन काल का संकेत है।
आरबीआइ ने हाल में अपनी द्विमासिक समीक्षा बैठक में ब्याज दर में पचास आधार अंकों की वृद्धि की है। मई 2022 से अब तक ब्याज दर में तीन बार में एक सौ चालीस आधार अंकों की वृद्धि की जा चुकी है। आरबीआइ की प्रमुख ब्याज दर (रेपो रेट) अब 5.40 फीसद है। केंद्रीय बैंक ने अगली समीक्षा बैठक में इसमें पचास आधार अंकों की और वृद्धि करने के संकेत दिए हैं।
साल के अंत तक रेपो दर छह फीसद से ऊपर चली जाए तो आश्चर्य नहीं। रेपो दर ब्याज की वह दर है, जिस पर वाणिज्यिक बैंक आरबीआइ से कर्ज लेते हैं। बैंक जब महंगा कर्ज उठाएंगे तो उपभोक्ताओं को भी कर्ज महंगा पड़ेगा। स्वाभाविक रूप से वाणिज्यिक बैंक आरबीआइ से कम कर्ज लेंगे। उपभोक्ता भी बैंकों से महंगा कर्ज लेने से बचेंगे। इससे बाजार में तरलता घटेगी तो मांग भी घट जाएगी। परिणामस्वरूप महंगाई नीचे आएगी।
आरबीआइ का यह नीति-शास्त्र महंगाई घटाने में कितना कारगर होगा, यह वक्त बताएगा। हालांकि देखा जाए तो पिछले कुछ समय के दौरान यह उपाय कारगर साबित होता नहीं दिखा है। फिलहाल, इस पूरी कवायद से स्पष्ट है कि देश की अर्थव्यवस्था पर महंगाई का भारी दबाव है। महंगाई की ऊंची दर अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं होती, खासतौर से तब जब आम जनता की जेब खाली हो। अभाव की जिंदगी वैसे भी कठिन होती है। महंगाई की मार आमजन की कमर तोड़ सकती है। ऐसे में अर्थव्यवस्था कैसे बचेगी!
सरकार ने आरबीआइ की सहमति से उसे पांच साल तक (पहली अप्रैल, 2021 से 31 मार्च, 2026 तक) महंगाई दर दो से छह फीसद के बीच बनाए रखने का लक्ष्य दिया था। लेकिन जनवरी 2022 से ही महंगाई आरबीआइ की लक्षित अधिकतम सीमा छह फीसद से ऊपर तैर रही है। वित्त विधेयक-2015 के जरिए आरबीआइ अधिनियम में जो संशोधन किए गए थे, उसमें यह प्रावधान है कि यदि आरबीआइ महंगाई दर को लगातार तीन तिमाही तक निर्धारित अधिकतम सीमा के अंदर रख पाने में विफल रहता है तो उसे वित्त मंत्रालय को लिखित में विफलता के कारण और उसके निवारण के उपाय बताने होंगे।
लगातार दो तिमाहियों (जनवरी 2022 से जून 2022 तक) में महंगाई दर क्रमश: 6.36 फीसद और 7.28 फीसद रही है। आगामी दो तिमाहियों में भी इसके छह फीसद से ऊपर (जुलाई-सितंबर 2022 में 7.1 फीसद और अक्तूबर-दिसंबर 2022 में 6.4 फीसद) रहने का आरबीआइ ने अनुमान लगाया है। यानी केंद्रीय बैंक को अब सितंबर में वित्त मंत्रालय को लिखित में बताना ही होगा कि महंगाई नियंत्रण में क्यों नहीं आई। आरबीआइ अपने पत्र में भावी कदम का मसौदा भी प्रस्तुत करेगा। देखना यह होगा कि सरकार की उस पर क्या प्रतिक्रिया होती है। बहरहाल, यह अपने आप में एक बड़ी घटना होगी।
सवाल उठता है कि अर्थव्यवस्था में महंगाई और उसे रोकने के आरबीआइ के कदम के क्या निहितार्थ और गूढ़ार्थ हैं? महंगाई एक हद तक बुरी नहीं होती, बशर्ते उसी अनुपात में कमाई होती रहे। कमाई के अभाव में महंगाई आम आदमी और अर्थव्यवस्था के लिए काल बन जाती है। महंगाई के कारण बाजार में मांग घट जाती है। मांग घटने पर यदि उत्पादन भी घटाया गया तो बेरोजगारी बढ़ती है, अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ जाती है।
आरबीआइ का ब्याज दर बढ़ाने का कदम भी मांग घटाने पर ही केंद्रित होता है। उसे लगता है कि जब बाजार में मांग घटेगी तो महंगाई नीचे आएगी। लेकिन महंगाई को नियंत्रित करने का यह एक कृत्रिम उपाय है। इससे महंगाई के लक्षण तो कम हो सकते हैं, पर बीमारी नहीं जाती। कई मामलों में ऐसा करना अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक भी साबित होता है। लेकिन रुपए को गिरने से बचाने और विदेशी पूंजी भंडार को संभालने के लिए ब्याज दर में वृद्धि आरबीआइ की मजबूरी है।
इन दिनों रुपया भी बेदम है और विदेशी पूंजी भंडार घता हुआ करीब पांच सौ चौहत्तर अरब डालर पर आ गया है। इसके पीछे अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ब्याज दर वृद्धि प्रमुख कारण है। यानी आरबीआइ की ब्याज दर वृद्धि तब तक जारी रहने वाली है, जब तक फेडरल रिजर्व ब्याज दर बढ़ाने की अपनी मुहिम पर विराम नहीं लगा देता। रुपए का मोल डॉलर के मुकाबले ही तय होता है।
ब्याज दर बढ़ने से कर्ज महंगा होगा तो कारोबार प्रभावित होंगे। रियल एस्टेट और एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु एवं मझौले उद्यम) क्षेत्र खासतौर से चपेट में आएंगे। नोटबंदी के कारण दोनों क्षेत्र पहले से ही संकट में रहे हैं। फिर महामारी ने भी इन्हें तोड़ डाला। दोनों क्षेत्र अपने को फिर से खड़ा करने की कोशिश ही कर रहे थे कि नई मुसीबत आ खड़ी हुई है। आरबीआइ के आंकड़े बताते हैं कि सूक्ष्म और लघु उद्यमों का कर्ज जून 2022 में 23.7 फीसद बढ़ कर 14.29 लाख करोड़ रुपए हो गया, जो साल भर पहले जून 2021 में 11.55 लाख करोड़ रुपए था।
इस बीच भारतीय स्टेट बैंक के आर्थिक अनुसंधान विभाग ने अपनी ताजा इकोरैप रपट में कहा है कि रेपो रेट में एक सौ चालीस आधार अंकों की वृद्धि से खुदरा और एमएसएमई क्षेत्र की कर्ज लागत लगभग 42,500 करोड़ रुपए बढ़ जाएगी। दरअसल, इस क्षेत्र के 39.2 फीसद कर्ज बाह्य मानदंडों (ईबीआर) से जुड़े हैं, जिनकी लागत रेपो रेट के बढ़ने-घटने पर निर्भर करती है। कर्ज लागत बढ़ने से प्रतिस्पर्धी बाजार में सस्ते उत्पाद देने की एमएसएमई की चुनौती बढ़ जाएगी और बेरोजगारी दर बढ़ने का खतरा बढ़ जाएगा। नतीजा यह होगा कि अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।
महामारी का असर कम होने के बाद वित्त वर्ष 2022 में रियल एस्टेट क्षेत्र में मांग लौटती दिखी थी। लेकिन ब्याज दर में वृद्धि घर के रास्ते का नया रोड़ा बन गई। घर खरीदने के इच्छुक लोगों को कर्ज पर अप्रैल के मुकाबले अब अधिक ब्याज चुकाना होगा। ऊंची ब्याज दर से उपभोक्ताओं पर दोहरी मार पड़ेगी। एक तरफ मकान महंगे हो जाएंगे, दूसरी तरफ मकान खरीदने के लिए कर्ज भी महंगा मिलेगा। यानी इस क्षेत्र में एक बार फिर मांग घटने की संभावना बन रही है। इसका असर बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था में सुस्ती के रूप में सामने आएगा।
आरबीआइ ने जून में ही वित्त वर्ष 2022-23 के लिए महंगाई दर का अनुमान 5.7 से बढ़ा कर 6.7 फीसद कर दिया था। अगस्त की समीक्षा बैठक में इसी दर को बरकरार रखा गया। लेकिन वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य, कई देशों में मंदी की आहट, बाधित आपूर्ति श्रृंखला, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल सहित उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में तेजी, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की दर और उसके दायरे में वृद्धि तथा पूर्वी भारत के धान उत्पादक इलाकों में कम बारिश के कारण चावल उत्पादन में आठ फीसद गिरावट का अनुमान कुछ ऐसे कारण हैं, जिनके आगे 6.7 फीसद महंगाई दर मेल नहीं खाती। महंगाई दर सात फीसद से ऊपर चली जाए तो आश्चर्य नहीं।
ऊंची विकास दर के लिए महंगाई दर को वास्तव में नीचे लाना होगा। इसके लिए उत्पादन और आपूर्ति बढ़ानी होगी। आमजन की कमाई बढ़ानी होगी। लेकिन बढ़ते राजकोषीय घाटे के बीच सरकार के भी हाथ बंधे हुए हैं। अल्पकाल में ये राजकोषीय उपाय संभव भी नहीं हैं। रेपो रेट बढ़ाने जैसे कृत्रिम उपाय से आंकड़े नीचे आ सकते हैं, महंगाई नहीं।