सम्पादकीय

अंधाधुंध शहरीकरण घातक मायाजाल

Rani Sahu
16 Oct 2022 10:09 AM GMT
अंधाधुंध शहरीकरण घातक मायाजाल
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शहर,कस्बों से लेकर महानगर तक की प्रशासनिक सीमारेखा से ठीक बाहर लगभग पूरे भारत में बड़े भवन निर्माताओं की सुव्यस्थित कॉलोनियों के अलावा बहुत तेजी से बिना किसी मापदंड के मनमाने ढंग से तेजी से समानान्तर शहरीकरण भी हो रहा है और यह अपेक्षाकृत कम खर्चे में मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए एक सपने के पूरे होने जैसा भले हो,जिसके मायाजाल में राजनेताओं से लेकर भू माफिया तक शामिल हैं पर आने वाले दशकों में इसमें बसने वाले लोगों के साथ-साथ आधुनिक भारत को विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा करने में यह अंधाधुंध विकास एक घातक मक्कड़जाल साबित होने वाला है.
पर्यावरण एवं प्रकृति विनाश को नियंत्रित करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, इसके लिये बढ़ते शहरीकरण को रोकना एवं गांव आधारित जीवनशैली पर बल देना होना चाहिए था पर हुआ इसका उल्टा. गांव पिछड़ेपन और भ्रष्टाचार के केंद्र बनते चलते गए क्योंकि विकास के नाम पर या तो अंधांधुंध राजसहायता बांटी गई या बिना अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं का अध्ययन किए योजनाएं चलाईं गईं या सस्ते में अनाज बांटे गए. बतौर मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने सबसे पहले इसका विरोध यह कहकर किया था कि इससे कृषि प्रधान राज्यों में मेहनत-मजूरी करने वाले लोगों के बीच मुफ्तखोरी की बढ़ेगी, जो आगे चलकर कृषि के लिए घातक साबित होगी. पर उन्हें तत्कालीन केंद्र सरकार ने चुप करा दिया था. भले ही शहरीकरण को आर्थिक और सामाजिक वृद्धि का सूचक माना जाता है, लेकिन अनियंत्रित शहरीकरण बड़ी समस्या बन रहा है. भारत में तो शहरीकरण ने अनेक समस्याएं खड़ी कर दी हैं, आम जनजीवन न केवल स्वास्थ्य बल्कि जीवनमूल्यों की दृष्टि से जटिल होता जा रहा है. आर्थिक विकास भी इसी कारण असंतुलित हो रहा है. ऐसे में जब कोरोना जैसे अभूतपूर्व संकट के दौरान बेतरतीब जीवनशैली से भरे शहर अचानक डराने लगे, तब हमारे गांवों ने ही शहरी लोगों को प्रेरणा और राहत दी. इसलिए यह आवश्यक है कि ऐसी योजनाएं बनाई जाएं, जिससे गांवों में मानक के अनुरूप शहरों जैसी सुविधाएं उपलब्ध हो सकें ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों को होने वाले पलायन की रफ्तार कुछ थम सके.
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अनियोजित शहरीकरण की प्रवृत्ति बीते दो दशकों के दौरान पूरे देश में बढ़ी है. लोगों ने छोटे कस्बों से दिल्ली एवं ऐसे ही महानगरों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कॉलोनियां बना लीं हैं. इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया. देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद भारत के विकास के लिए हमने जिस बिना नक्शे के विकास शुरू किया, उसमें अपवादों को छोडकर बड़े-बड़े शहर पूंजी केन्द्रित होते चले गये और रोजगार के स्रोत भी. शहरों में सतत एवं तीव्र विकास और धन का केन्द्रीकरण होने की वजह से इनका बेतरतीब विकास स्वाभाविक रूप से इस प्रकार हुआ कि यह राजनीतिक दलों के अस्तित्व और प्रभाव से जुड़ता चला गया, लेकिन पर्यावरण एवं प्रकृति से कटता गया, जिस कारण गांव आधारित अर्थ-व्यवस्थाएं लडखड़ाने लगी हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार वर्तमान में दुनिया की आधी आबादी शहरों में रह रही है और 2050 तक भारत में भी यही होने वाला है. ऑक्सफोर्ड इकॉनोमिक की रिपोर्ट के अनुसार 2019 से लेकर वर्ष 2035 के बीच सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले सभी शीर्ष दस शहर भारत के ही होंगे. विश्व बैंक इसे भारत का अघोषित एवं अस्त-व्यस्त शहरीकरण मानता है. शहरीकरण से संबंधित समस्याओं में बंगलुरु की प्रदूषित झीलें,गुरुग्राम का ट्रैफिक जाम,मुंबई की बारिश,दिल्ली के वायु प्रदूषण से लेकर छोटे शहरों और आसपास के बेतरतीब कस्बों तक की अनेक समस्याएं हैं जो आज संकेत हैं और कल सिरदर्द साबित होने वाली हैं.
इसके मूल में बेरोज़गारी है. नौकरी से लेकर बेहतर चिकित्सा और अधिक पैसे कमाने के लिए गांवों की कट्टर जातीय,सामाजिक बंधनों को तोड़कर युवा चमकते शहरों की तरफ भागते हैं. कृषि मंत्रालय के अनुसार खेती पर निर्भर लोगों में से 40 फीसदी लोग ऐसे हैं, जिनको अगर विकल्प मिले तो वे तुरंत खेती छोड़ देंगे, क्योंकि खेती करने में धन की लागत बढ़ती जा रही है और बिक्री और उत्पादन दोनों जुए की तरह हैं.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में भारत के आर्थिक विकास के लिये शहरीकरण को लक्ष्य बनाया गया था पर भारत के अधिकांश शहर अतिशहरीकरण के कारण अपने निवासियों को अच्छा जीवनशैली देने में असफल हो गए हैं. आवास और गंदी बस्तियों की समस्या शहरी जनसंख्या में हो रही वृद्धि ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है, जिसमें आवास की समस्या प्रमुख है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों में आने वाले लोग अधिकतर गरीब होते हैं, उनके पास किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा का अभाव होता है, जिस कारण वे आसपास के इलाकों में बसने का प्रयास कर समस्या को और भी गंभीर बना देते हैं.
शहरी फैलाव,आवास और मलीन बस्तियों का विस्तार,भीड़ और व्यक्तिवाद की भावना, पानी की आपूर्ति और जल निकासी का बेहतर न होना, शहरी बाढ़,परिवहन और यातायात की समस्या,बिजली की कमी,प्रदूषण,शहरी ग्रीष्म द्वीप प्रभाव,अपराध और बाल अपराध,भीख,शराब और ड्रग्स की समस्या और भ्रष्टाचार और मजबूरी का सौदा करते नेता इसे सुलझाने के बजाय और उलझा रहे हैं.
यदि ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में शहरों के इर्द-गिर्द ऐसी मलीन बस्तियों में कभी आग लग जाए तो आग बुझाने वाली गाड़ियां तक नहीं पहुंच पाएंगी, क्योंकि बिना किसी मापदंड के विकसित हो रही इन कॉलोनियों में न तो इसके लिए जगह छोड़ी जा रही है और न ही कोई नक्शा पास कराया जा रहा है, जिसमें विद्युत व्यवस्था,जल निकास,पार्क,दुकानों के लिए कोई जगह छोड़ी नहीं जा रही है, जो कल होकर एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकते हैं.

by Lagatar News

Rani Sahu

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