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ह आजादी के बाद पहली बार है कि भारत शक्ति की भाषा बोलता दिख रहा है
कैप्टन आर. विक्रम सिंह।
ह आजादी के बाद पहली बार है कि भारत शक्ति की भाषा बोलता दिख रहा है। फिर चाहे वह अमेरिका के साथ टू प्लस टू वार्ता हो या फिर बीते दिनों नई दिल्ली में आयोजित रायसीना डायलाग, अब वैश्विक विमर्श में भारत की आवाज मुखर हो रही है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर इस सशक्त भारत के नए प्रतिनिधि बनकर उभरे हैं। टू प्लस टू में उन्होंने जिस बेबाकी से मानवाधिकार के मुद्दे पर अमेरिका को आईना दिखाया, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। भारत को घेरने के लिए मानवाधिकार का मुद्दा छेड़ने वाले अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन को जयशंकर के बयान से रक्षात्मक होना पड़ा था।
ऐसी भाषा हमें 1971 के युद्ध में मिली निर्णायक विजय के बाद भी बोलनी नहीं आई थी। विदेशियों से प्रशंसा की भूखी, हीनभावना से ग्रस्त हमारी विदेश नीति को घुटनों पर चलने की ऐसी आदत पड़ चुकी थी कि वह पाकिस्तान के दो खंड हो जाने के बाद भी अपने पैरों पर खड़ी न हो सकी। जो इलाका सैनिकों ने बलिदान देकर हासिल किया, उसे शिमला वार्ता में गंवा दिया गया। जिन्होंने 90 हजार से अधिक कैदियों को बिना शर्त छोड़ दिया, वे पाकिस्तान की जेलों में 1965 से सड़ रहे अपने 54 युद्धबंदियों को भी न छुड़वा सके। उन्होंने यह नहीं सोचा कि भारतीय सेना के अधिकार में आ गए सिंध के हंिदूू बहुल जिलों को तब तक वापस नहीं किया जाएगा जब तक कि कश्मीर के मुद्दे का कोई समाधान न निकल जाए। सेना के शौर्य पर इंदिरा गांधी की आत्मसमर्पण वाली विदेश नीति ने पानी फेर दिया।
उससे पहले नेहरू-कृष्णा मेनन की विदेश नीति का भी एक दौर था। उसमें विश्व शांति और गुटनिरपेक्षता जैसी प्रतिबद्धताएं व्यक्त की गई थीं। अमेरिका-कनाडा से गेहूं मांगकर खाने वाला देश दुनिया की शांति का मसीहा बन रहा था। कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण चलता रहा, लेकिन नेहरू की प्राथमिकता कभी कश्मीर विजय नहीं रही। हम गांधीवादी-शांतिवादियों की सर्वत्र प्रशंसा हो, इसीलिए नेहरू ने आगे बढ़ रही भारतीय सेनाओं को रोककर संयुक्त राष्ट्र से युद्धविराम प्रस्ताव तैयार कराकर युद्धविराम का एलान किया। नेहरू की विदेश नीति का राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध होना बड़ा स्पष्ट है। जबकि हमारा हित तो कश्मीर समस्या के निर्णायक समाधान में निहित था। यह समाधान पाकिस्तान को तोड़कर भविष्य में हमारी चुनौती ही न बनने देता।
स्पष्ट नहीं है कि क्या नेहरू ब्रिटिश सरकार से किसी गुप्त समझौते से बंधे थे जो वह सायास ही पाकिस्तान की रक्षा करते रहे? यह प्रश्न अक्सर कौंधता है। कई पुस्तकें इस पहलू पर मंथन करती हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर विवाद को ले जाना, युद्ध के दौरान पूर्वी पाकिस्तान को लक्ष्य बनाना तो दूर स्पर्श भी न करना, नेहरू-लियाकत पैक्ट द्वारा अल्पसंख्यकों को रोक लेना व पाकिस्तान के पक्ष में जल वितरण समझौता आदि ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने पाकिस्तान को सहयोग देकर उसे सशक्त किया। इससे नेहरू की विदेश नीति उन्हें कुछ तत्वों की दृष्टि में प्रशंसा दिलाती रही, लेकिन राष्ट्रीय हितों को उससे आघात पहुंचता रहा। नेहरूवाद राष्ट्रहित का विलोम बन गया।
अब यह सब बदल गया है। राष्ट्रहित सवरेपरि है। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार का राष्ट्रहित से कोई समझौता करना असंभव है। विषय-विशेषज्ञ विदेश मंत्री जयशंकर राष्ट्रीय शक्ति एवं अस्मिता के प्रतीक बन गए हैं। टू प्लस टू में अमेरिका को अमेरिकी धरती पर करारा जवाब देने के बाद रायसीना डायलाग के मंच पर उन्होंने उन यूरोपीय प्रतिनिधियों को निरुत्तर कर दिया, जो रूस-यूक्रेन टकराव के मामले में भारत की नीति पर सवाल उठा रहे थे। उन्होंने दो-टूक लहजे में कहा कि भारत ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया है कि युद्ध समाप्त हो और वार्ता से ही कोई समाधान निकले।
अफगानिस्तान को लेकर पश्चिम के मौन पर उन्होंने सवाल उठाया कि साल भर पहले जब अफगानिस्तान में नागरिक समाज का दमन हो रहा था, तब आपने क्या किया? उन्होंने पश्चिमी प्रतिनिधियों की ओर सवाल दागते हुए कहा कि अफगान मसले पर आपने जो किया, वह किस प्रकार की नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था के अनुरूप था? जयशंकर ने कहा कि एशिया में हम लोग अपनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और यह संकट नियमों से संचालित व्यवस्थाओं पर बुरा असर डाल रहा है। यूरोपीय प्रतिनिधियों को आड़े हाथों लेते हुए जयशंकर ने याद दिलाया कि जब चीन भारतीय सीमा पर दुस्साहस दिखा रहा था तो यूरोप से भारत को यही मिली कि ऐसी स्थिति में चीन से व्यापार बढ़ाया जाए, लेकिन रूस-यूक्रेन मामले में हम आपको ऐसी कोई सलाह नहीं दे रहे हैं।
जब स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री ने सवाल किया कि यूक्रेन आक्रमण पर वैश्विक प्रतिक्रिया के बाद चीन का क्या रुख होगा? इस पर जयशंकर का यही जवाब था कि यह सवाल तो चीनी विदेश मंत्री से होना चाहिए। फिर अपने जवाब को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा, 'यह यूरोप के जग जाने की ही नहीं, बल्कि जगकर एशिया की ओर भी देखने की भी चेतावनी है। यहां विश्व के बहुत से समस्याग्रस्त क्षेत्र हैं। सीमाएं निश्चित नहीं हैं, आतंकवाद, वह भी राज्य द्वारा प्रायोजित, पूरी तरह से चलन में है। ऐसे में विश्व के लिए अत्यावश्यक है कि वह इधर भी फोकस करे। यहां कुछ नया होने वाला नहीं है, बल्कि वही घटनाक्रम रोज पहले की तरह हो रहा है।'
ऐसे बेबाक जवाब और वह भी भारतीय विदेश मंत्री से कभी सुने ही नहीं गए थे। इस देश ने तो संपूर्ण विश्व को अपना मित्र बताने वाले, अ¨हसा के पुजारी व क्षमाप्रार्थी किस्म के विदेश मंत्री देखे थे। दुनिया का स्टेज हमसे कहीं ओझल न हो जाए, इसीलिए नेहरू जीवन भर प्रधानमंत्री के साथ-साथ विदेश मंत्री भी बने रहे। विश्व पटल पर व संयुक्त राष्ट्र में अतिसक्रिय रहे वामपंथी रुझान वाले कृष्णा मेनन रक्षा मंत्री बने रहे। देश में 2014 से पहले अधिकांशत: स्वयंसेवी नेताओं का एक युग था, जिनमें राष्ट्रहित की समझ ही विकसित न हो सकी। अब अपराधबोध से खड़े रहने के दिन विदा हुए। वह सब स्थायी रूप से बदल चुका है और रोज बदल रहा है। विदेश नीति राष्ट्रीय शक्ति व हित की वाहक होती है।
Rani Sahu
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