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- एक स्वायत्त राष्ट्र की...
गिरीश्वर मिश्र।
कथित बुद्धिजीवी वर्ग में से कोई न कोई आए दिन यह तर्क प्रस्तुत करता रहता है कि भारत की विविधता की अनदेखी हो रही है। वह बड़े निश्चय के साथ अपना सुचिंतित संदेह कुछ इस प्रकार करता है मानो 'भारत' कोई एकल रचना न थी, न है और न उसे होना चाहिए। अक्सर उभरती ऐसे सोच की प्रेरणाएं भारत की अंतर्निहित स्वाभाविक एकता को संदिग्ध बनाकर उसे प्रश्नांकित करती रहती हैं। उसी का बखान करते हुए एकता की समस्या खड़ी की जाती है। इसी धारणा की स्थापना के लिए भाषा, धर्म, जाति, रंग, पहनावा, खान-पान, क्षेत्र और प्रथा आदि को दिखाया जाता है। वास्तविकता यही है कि दृश्य जगत में मिलने वाली विविधता की कोई सीमा नहीं है और न हो सकती है। वहीं प्रत्येक विविधता से कुछ और विविधताएं भी जन्म लेती हैं। विविधताओं का विस्तार हर किसी का प्रत्यक्ष अनुभव है। एक ही माता-पिता की कई संतानें होती हैं जो गुणों और स्वभाव में एक दूसरे से भिन्न होती हैं। यहां तक कि जुड़वां बच्चों में भी अंतर पाए जाते हैं, किंतु उस भिन्नता के कारण माता-पिता से उनका संबंध कमतर या असंगत तो नहीं हो जाता।