सम्पादकीय

भारत को एक अलग प्रकार का राष्ट्रपति चाहिए

Rani Sahu
26 July 2022 6:55 PM GMT
भारत को एक अलग प्रकार का राष्ट्रपति चाहिए
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राष्ट्रपति पद भारतीय लोकतंत्र की कार्य पद्धति और अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है

राष्ट्रपति पद भारतीय लोकतंत्र की कार्य पद्धति और अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है। परंतु लंबे समय से इस पद का पार्टी के वफादारों को पुरस्कृत करने, अनुचरों को नियुक्त करने, या अल्पसंख्यकों अथवा वंचित समुदाय से एक सांकेतिक उम्मीदवार को चुनने के लिए दुरुपयोग होता रहा है। भारत में संसदीय लोकतंत्र के तौर पर एक राष्ट्रपति होना आवश्यक है, क्योंकि जब कोई सरकार अस्तित्व में न हो तो एक राष्ट्र प्रमुख होना जरूरी है जिसमें सभी शक्तियां निहित हों। कोई अधिकारी तो चाहिए जो आम चुनाव के बाद या एक सरकार गिरने पर प्रधानमंत्री का चयन कर सके, खासकर जब किसी भी दल के पास संसद में स्पष्ट बहुमत न हो। राष्ट्रपति सरकार पर एक नियंत्रक के रूप में कार्य करने के लिए भी आवश्यक है, अन्यथा संसद के दोनों सदनों में बहुमत रखने वाली सरकार पूरी तरह निरंकुश रह जाएगी। भारत की संघीय नींव के लिए भी राष्ट्रपति आवश्यक है, ताकि राज्य सरकारों पर कुछ नियंत्रण रहे। और राष्ट्रपति इसलिए भी आवश्यक है कि वह समस्त जनता की आवाज के रूप में कदम उठा सके, प्रधानमंत्री तो दरअसल केवल उन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्होंने उसकी पार्टी अथवा गठबंधन को वोट दिया है।

एक 'निर्वाचित' सम्राट बनाने का प्रयास
यह सब महत्त्वपूर्ण कार्य तभी सही तरीके से किए जा सकते हैं यदि राष्ट्रपति अपने पद पर स्थिर हो, व्यापक रूप से सम्मानित, और सही अर्थों में गैर राजनीतिक हो। ब्रिटेन जैसे संवैधानिक साम्राज्यों में सम्राट या साम्राज्ञी इन भूमिकाओं को पूर्ण करते हैं। परंतु भारत जैसे लोकतंत्रों में जहां राजशाही नहीं है, ऐसा राष्ट्र प्रमुख बनाना लगभग असंभव है। हमारे संविधान का एक मूलभूत दोष यह है कि यह 'निर्वाचित सम्राट' बनाने का प्रयास करता है। 18वीं शताब्दी के अंत में जब ब्रिटेन की कुछ अन्य कालोनियां ऐसा ही करने पर विचार कर रही थीं, इंग्लैंड के अग्रणी संवैधानिक विद्वान वॉल्टर बैजेहट ने लिखा, ''पार्टी चुनाव के जरिए एक ऐसे अधिकारी को चुनना जो निष्पक्ष होकर मंत्रियों को चुने यह निरर्थक बात है। वह अनिवार्य रूप से एक पार्टी का व्यक्ति होगा।'' हमारे संविधान का दूसरा संवैधानिक दोष है कि यह राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री का अधीनस्थ बनाता है। संविधान का निर्माण करते समय कई प्रयासों के बावजूद राष्ट्रपति की शक्तियां कभी स्पष्ट नहीं की गईं। स्वयं बीआर अंबेडकर ने संविधान सभा को राष्ट्रपति की शक्तियां रेखांकित करने वाला 'निर्देश प्रपत्र' उपलब्ध करवाने का वचन दिया था, परंतु ऐसा कभी नहीं हुआ। इसके स्थान पर प्रधानमंत्री को यह शक्ति दे दी गई कि वह ''राष्ट्रपति के कार्य निर्वहन में मदद और सलाह दे।'' इसने दो पदों के बीच मूक रस्साकशी की शुरुआत कर दी। फिर 1976 में, इंदिरा गांधी के 42वें संविधान संशोधन ने राष्ट्रपति पद को संपूर्ण रूप से निस्तेज बना दिया। इसने आवश्यक बना दिया कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की ''सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।'' शायद इस सबसे बचने के लिए ही वल्लभभाई पटेल ने संविधान निर्माण के दौरान प्रस्ताव दिया था कि राष्ट्रपति जनता द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर निर्वाचित हो और कार्यकारी शक्तियों को नियंत्रित करे। उनके आदर्श 'संघीय संविधान' को संविधान सभा ने इसी अनुरूप स्वीकृत भी किया था। परंतु जवाहर लाल नेहरू ने जोर डाला कि राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाए और महज नाम का सरदार रहे, और सभा ने अपना निर्णय बदल दिया।
क्या वल्लभभाई पटेल की अवधारणा पर पुनर्विचार हो?
इन संवैधानिक दोषों और गलतियों के कारण भारत एक अजीब परिस्थिति के रूबरू है : देश का सर्वोच्च पदाधिकारी, राष्ट्रपति, एक अधीनस्थ, प्रधानमंत्री, द्वारा चुना और नियंत्रित किया जाता है। अब तक निर्वाचित 14 राष्ट्रपतियों में से, न्यूनतम 10 सत्ताधारी दल के प्रति उनकी निष्ठा के कारण चुने गए। इसका एक चरम उदाहरण राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद हैं, जिन्होंने 1975 में इंदिरा गांधी की आपातकाल घोषणा पर चंद मिनट में ही हस्ताक्षर कर दिए थे। हाल ही के सभी राष्ट्रपति पार्टी के प्रति उनकी वफादारी और प्रधानमंत्री के प्रति लगाव के लिए विख्यात रहे हैं। प्रतिभा पाटिल 'गांधी परिवार की कठपुतली' कहलाती थीं। प्रणब मुखर्जी ''एक वफादार व्यक्ति थे जिन्होंने दिन को रात तक कह दिया था।'' और जब अल्पज्ञात दलित नेता रामनाथ कोविंद चुने गए, उनके समुदाय के एक कार्यकर्ता ने चुटकी ली कि ''उनकी उम्मीदवारी के विषय में मात्र दो लोगों को पता था, प्रधानमंत्री मोदी और भगवान।'' यही दौर मोदी की ताजा पसंद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के रूप में जारी है। ऐसे लचीले राष्ट्रपति इस प्रश्न को वैधता देते हैं कि इस पद की आवश्यकता ही क्या है। राष्ट्रपति का रखरखाव भारतीय करदाताओं पर बहुत महंगा पड़ता है – हर वर्ष 100 करोड़ रुपए से भी अधिक। इस पद की संवैधानिक भूमिका के अनुरूप एक मजबूत राष्ट्रपति बनाने के लिए भारत को कुछ सुधार करने ही चाहिएं। एक तरीका पटेल के स्पष्ट निर्वाचित राष्ट्रपति के विचार को पुनर्जीवित करने का है। यह फ्रांस के समान राष्ट्रपति-संसदीय प्रणाली जैसा मिश्रण तैयार करेगा। भारत को संयुक्त राज्य अमरीका जैसी राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने पर भी विचार करना चाहिए जिसके नियंत्रण और संतुलन प्रसिद्ध हैं।
कुछ विवेकाधीन शक्तियां जो राष्ट्रपति के पास हों
कम से कम भारत के राष्ट्रपति को कुछ विवेकाधीन शक्तियां दी जानी चाहिएं। एक सही शुरुआत होगी यदि राष्ट्रपति के पास विधेयकों पर वीटो पावर हो, जिसे संसद के दो-तिहाई बहुमत से ही निरस्त किया जा सके। राष्ट्रपति को राज्यों के गवर्नर स्वतंत्र रूप से चुनने का अधिकार भी मिलना चाहिए, जो अभी प्रधानमंत्री के पास है। और राष्ट्रपति को यह शक्ति दी जानी चाहिए कि वह चुनाव आयोग और जांच एजेंसियों के प्रमुख के पदों पर प्रधानमंत्री की ओर से नामित लोगों को अस्वीकार कर सके, क्योंकि यहां हितों के टकराव स्पष्ट और बेतुके हैं। इतिहास बताता है कि लोकतंत्र हमेशा खतरे में होता है जब शक्तियों का एक ही केंद्र हो, भारत के लिए कदम उठाने का यही समय है।
– अंग्रेजी में 'द क्विंट' में प्रकाशित (16 जुलाई, 2022)
भानु धमीजा
सीएमडी, दिव्य हिमाचल


Rani Sahu

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