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सम्पादकीय
India Ban Wheat Export : गेहूं का निर्यात बंद होने से पूरी दुनिया में त्राहि-त्राहि
Gulabi Jagat
18 May 2022 8:26 AM GMT
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने गेहूं का निर्यात बंद करने का जो फ़ैसला किया है
शंभूनाथ शुक्ल |
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) की सरकार ने गेहूं का निर्यात बंद (Wheat Export Stopped) करने का जो फ़ैसला किया है, उसे कुछ मायनों में जनोपयोगी कहा जा सकता है. भारत पहले अपने देश के लोगों का पेट भरने की सोचे, उसके बाद ही निर्यात संभव है. हालांकि अप्रैल में ही उसने 10 लाख टन गेहूं का निर्यात किया भी था. पर अब उसने निर्यात तत्काल प्रभाव से बंद करने का निर्णय किया है. चूंकि भारत की कुल गेहूं निर्यात में 5 प्रतिशत की हिस्सेदारी है, इसलिए पूरी दुनिया में इस फ़ैसले से हड़कंप मच गया. इसका असर यूरोप के उन देशों पर पड़ेगा जहां खाद्यान्न उत्पादन निल है, ख़ासकर ब्रिटेन में.
अब रूस-यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) के चलते दुनिया भर में त्राहि-त्राहि मच गई है, क्योंकि विश्व के कुल गेहूं उत्पादन का सबसे बड़ा देश रूस है. गेहूं के कुल निर्यात में उसकी हिस्सेदारी 23.92 प्रतिशत है. यूक्रेन से 8.91 पर्सेंट गेहूं निर्यात होता है. इस तरह लगभग 33 प्रतिशत गेहूं तो मार्केट से यूं ही गायब हो गया है. इससे विश्व के तमाम विकसित कहे जाने वाले देशों में खाद्यान्न का भयानक संकट खड़ा हो गया है. भारत का निर्यात अपने पड़ोसी देशों- बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल को ही रहा है. इस बार यूरोप को भी उससे गेहूं की आस थी. पर मोदी सरकार के फ़ैसले से वे सन्न हैं.
बढ़ते पारे ने दिया झटका
दरअसल सरकार को उम्मीद थी, कि इस बार की रबी की फसल रिकार्ड-तोड़ होगी. अकेले गेहूं के बारे में अनुमान था कि क़रीब 12 करोड़ टन की फसल होगी. इसलिए सरकार ने तय किया था, कि एक करोड़ टन गेहूं का निर्यात किया जाएगा. किंतु होली के पहले से पड़ रही गर्मी ने सारे अनुमान ध्वस्त कर दिए. हक़ीक़त यह है कि गेहूं का उत्पादन 10 करोड़ टन से भी कम हुआ है. ऊपर से सरकारी ख़रीद भी न्यूनतम हुई, क्योंकि व्यापारियों ने एमएसपी से अधिक क़ीमत देकर किसानों के खेत से ही गेहूं उठा लिया. पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीस गढ़ में सरकारी गेहूं की ख़रीद का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ. ऐसे में ख़ुद सरकार के समक्ष यह संकट खड़ा हो गया कि वह सबको भोजन देने का वायदा कैसे पूरा कर पाएगी? इसलिए भी सरकार को गेहूं के निर्यात पर रोक लगानी पड़ी. गेहूं की कमी की आशंका से भारतीय खाद्यान्न बाज़ार में गेहूं की क़ीमतें बढ़ने लगी थीं. पर सरकार के इस फ़ैसले से अब अंकुश लगा है.
सोमवार को शिकागो मंडी में गेहूं ने लगाई छलांग
लेकिन मोदी सरकार के इस निर्णय से विश्व बाज़ार में गेहूं की क़ीमतें 6 प्रतिशत उछल गईं. शुक्रवार को जब शिकागो मंडी बंद हुई और सोमवार जैसे ही खुली तो 5.9 प्रतिशत का उछाल गेहूं की क़ीमतों में आ गया. इससे खूब हाय-तौबा मचने लगी. पश्चिमी देश अब भारत को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. जी-7 (G-7) देशों ने भारत से अपील की है कि वह गेहूं का निर्यात खोले. क्योंकि अब सारा दारोमदार सिर्फ़ कनाडा, अमेरिका और आस्ट्रेलिया पर है. किंतु इन मुल्कों की अपनी सीमाएं हैं. इस बीच चीन ने भारत का फ़ेवर अवश्य किया है. उसका कहना है कि विकासशील देशों के समक्ष ख़ुद का खाद्यान्न संकट होता है. इसलिए बेहतर रहे कि जो देश भारत को आड़े हाथों ले रहे हैं, वे अपने यहां से गेहूं निर्यात का लक्ष्य बढ़ाएं.
फ़ैसले से भारत में गेहूं की क़ीमतों में गिरावट
दुनिया में गेहूं की क़ीमतें बढ़ी हैं. लेकिन निर्यात बंद होने से भारत के घरेलू बाज़ार में क़ीमतें गिरने लगीं. सोमवार को पंजाब में गेहूं के मूल्यों में 100 से 150 रुपयों के बीच गिरावट आई तो यूपी में 100 रुपए. राजस्थान में 200 से अधिक की गिरावट दर्ज की गई. अर्थात् घरेलू मूल्य वृद्धि पर अंकुश लगा. अब अगर वह पश्चिमी देशों के दबाव में गेहूं का निर्यात करता रहता है तो भारतीय घरेलू बाज़ार का क्या होगा? हालांकि भारत का कहना है कि उसने अकेले अप्रैल में ही इतना निर्यात कर दिया है जो भारत द्वारा किए गए वायदे के अनुरूप पूरा हो चुका है. भारत सरकार अगर अपने फ़ैसले पर अडिग रहती है और विश्व दबाव में नहीं झुकती है तो देसी मोर्चे पर वह सफल रहेगी. अन्यथा महंगाई की अनियंत्रित रफ़्तार मध्य वर्ग को बहुत भारी पड़ रही थी.
रूस-यूक्रेन युद्ध ने महंगाई को बढ़ाया
पेट्रो-उत्पादों की महंगाई रोकना सरकार के बूते का नहीं न ही खाद्य तेलों की मूल्य वृद्धि. क्योंकि इन दोनों तेलों के मामले में भारत को विदेशी आयात पर निर्भर रहना पड़ता है. रूस और यूक्रेन के बीच पिछली 24 फ़रवरी से चल रहे युद्ध ने सारे समीकरण बिगाड़ दिए हैं. पेट्रो उत्पाद और खाद्य तेलों दोनों के दाम लगातार बढ़ रहे हैं. नतीजा यह है, कि भारत में भी महंगाई चरम पर है. ऐसे में गेहूं के दाम नियंत्रित रखने के लिए गेहूं का निर्यात बंद करना ज़रूरी था. लेकिन जी-7 देश अब परेशान हैं. वे विश्व बाज़ार में गेहूं की बढ़ती क़ीमतों का ज़िम्मेदार भारत को मान रहे हैं. भारत सरकार ने 14 मई शनिवार को गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगाया था, उसे जी-7 के देश काला शनिवार बता रहे हैं.
जवाबी वार की आशंका
भारत सरकार के खाद्य सचिव सुधांशु पांडेय ने प्रेस को बताया था, कि घरेलू बाज़ार में महंगाई लगातार बढ़ती जा रही थी. खुदरा वृद्धि खुले बाज़ार में अप्रैल में ही दो प्रतिशत बढ़ गई थी. इसलिए निर्यात रोकने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. किंतु इसका असर भारत के पड़ोसी देशों पर भी पड़ेगा. ख़ासकर बांग्ला देश में, जो पूरी तरह से गेहूं के लिए आयात पर ही टिका है. भारत से वह गेहूं आयात करता था. अकेले वही नहीं नेपाल, श्रीलंका, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया और फ़िलीपीन्स भी भारत से गेहूं आयात करते थे. उनके समक्ष भी संकट आ खड़ा हुआ है. संभव है कि ये देश भारत पर दबाव बनाने के लिए वे भी अपने देशों से उन खाद्य पदार्थों का निर्यात रोकें, जिन्हें भारत उनके यहां से मंगाता था. आज जिस तरह से वैश्विक अर्थ व्यवस्था हुई है, उसमें दुनिया का हर देश एक-दूसरे का मुखापेक्षी है. कोई भी देश स्वयं में ही आत्म निर्भर नहीं रहा है. इसलिए कोई एक देश किसी चीज़ का निर्यात रोक कर अपने यहां की मूल्य वृद्धि को नियंत्रित नहीं कर पाएगा. क्योंकि किसी चीज़ के दाम घटेंगे तो दूसरी की बढ़ेंगे.
सभी जगह क़ीमतों ने आसमान छुआ
दरअसल यह एक तरह से दबाव की रणनीति है. रूस-यूक्रेन की लड़ाई ने हर देश की अंदरूनी अर्थ व्यवस्था को बुरी तरह झकझोर दिया है. आज की तारीख़ में हर देश महंगाई से परेशान है. हम श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्ला देश जैसे विकासशील और छोटे देशों को देख ही रहे हैं. किंतु अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी जैसे देश भी महंगाई से त्रस्त हैं. अगर रुपयों से तुलना करें तो पाएंगे कि अमेरिकी और योरोपीय देशों में भी महंगाई का हाल यही है. वहां भी पेट्रोल का दाम भारत से कम नहीं है न ही अन्य वस्तुओं की क़ीमतें. वहां की सकल आमदनी और खर्च का औसत यही आ रहा है. चूंकि वे विकसित इसलिए उनको हर दुनियावी ग़मों से दूर समझ लेना एक तरह की नासमझी है. कोरोना के बाद रूस और यूक्रेन की रार ने पूरे विश्व को ऐसे मुहाने पर ला खड़ा किया है, जहां से सारे रास्ते बंद ही प्रतीत हो रहे हैं.
घरेलू बचत को किसने मारा
अब पहले की तरह स्वावलंबन नहीं रहा. जिनको लगता है कि 2008 की वैश्विक मंदी से भारत इसलिए मुक्त रहा, क्योंकि उस समय हमारे देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे, जो कि एक अर्थ शास्त्री थे, वे भ्रम में हैं.. यह एक तरह से समस्या का सरलीकरण है. उस समय की भारत मंदी की मार इसलिए झेल ले गया था, क्योंकि तब यहां की जनता फ़िज़ूलखर्च नहीं थी. और घरेलू बचत वह अनिवार्य रूप से करती थी. स्वयं डॉक्टर मनमोहन सिंह ने अपने एक इंटरव्यू में यह कहा था. लेकिन घरेलू बचत पर कुल्हाड़ा उन्हीं के वक़्त से चल रहा है.
उस समय रफ़्तार धीमी थी लेकिन 2015 के बाद से आर्थिक विकास को जिस तरह लक्ष्य बनाया गया, उसमें घरेलू बचत को उपेक्षित कर दिया गया. नतीजा सामने है. यह उदारीकरण की तरफ़ तेज़ी से बढ़ते देश की अनिवार्य परिणिति है. व्यक्ति महत्त्वपूर्ण नहीं होता है, बल्कि महत्त्वपूर्ण होते हैं हालात तथा विकास की गति की दिशा. लक्ष्य हासिल करने की हड़बड़ी में बहुत कुछ नष्ट किया है. इसलिए सरकार को अब हर कदम संभाल कर रखने की ज़रूरत है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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