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ब्रिटिश शासन का अंत सुनिश्चित हो जाने के बाद भारतीय रियासतें स्वायत्तता की अपेक्षा कर रही थीं
सचिन कुमार जैन
ब्रिटिश शासन का अंत सुनिश्चित हो जाने के बाद भारतीय रियासतें स्वायत्तता की अपेक्षा कर रही थीं. परंतु नये भारत के शासकों, खासकर सरदार पटेल ने बगैर कोई कुटिलता दिखाये बेहद परिपक्वता के साथ उन्हें भारत के साथ मिलाया.
जब से भारत में ब्रिटेन का राज स्थापित होना शुरू हुआ, तभी से ब्रिटिश सरकार भारत की रियासतों और राजशाही वाले राज्यों को अपने नियंत्रण में लेने लगी थीं. इसके लिए कहीं युद्ध का तरीका अपनाया गया, तो कहीं "संधि" का. इन संधियों के माध्यम से ब्रिटेन के सम्राट भारतीय राज्यों/रियासतों पर सर्वोच्च सत्ता हासिल कर लेते थे. जब भारत स्वतंत्रता के दरवाज़े पर पहुंचा तब ब्रिटेन के सम्राट की सरकार ने कैबिनेट मिशन भारत भेजा ताकि भारत की स्वतंत्रता के लिए एक व्यवस्था बनायी जा सके. इसके तहत अंतरिम सरकार और संविधान सभा का गठन सबसे महत्वपूर्ण पहलू थे. लेकिन एक और मसला था – भारत की रियासतों का.
12 मई 1946 को ब्रिटिश सम्राट की सरकार के मंत्रिमंडल (कैबिनेट मिशन) ने अपने स्मृति पत्र में उल्लेख किया था कि "अंतरिम काल (स्वतंत्रता की व्यवस्था सुपुर्द होने तक) के उपरान्त एक ओर भारतीय रियासतों और दूसरी ओर ब्रिटिश सम्राट और ब्रिटिश भारत के बीच राजनैतिक प्रबंध समाप्त हो जायेंगे. इस स्थान की पूर्ती रियासतों को या तो ब्रिटिश भारत की उत्तराधिकारी सरकार के साथ संघीय सम्बन्ध स्थापित करके करनी होगी अथवा उसके साथ विशिष्ट राजनैतिक प्रबंध करके". रियासतों ने माना कि अंतरिम काल समाप्त होने के बाद उन्हें फिर से सर्वोच्च सत्ता हासिल हो जायेगी और ब्रिटेन के साथ हुई संधि से पहले के अधिकार उन्हें वापस मिल जायेंगे. इस घोषणा ने भारत की सभी रियासतों को एक स्वतंत्र इकाई का रूप दे दिया और रियासतें स्वायत्त राज्य होने की अपेक्षा करने लगीं.
16 मई 1946 के कैबिनेट मिशन की योजना में यह उल्लेख किया गया कि संविधान सभा में रियासतों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा. चूंकि ब्रिटिश भारत में आबादी के अनुसार प्रतिनिधि रखे गये हैं. अतः इस मान से रियासतों के प्रतिनिधि 93 से अधिक नहीं होंगे और उनके चुनाव का तरीका सलाह-मशविरे से तय किया जायेगा, शुरू में रियासतों का प्रतिनिधित्व वार्ता समिति करेगी". इसका मतलब यह रहा कि प्रतिनिधित्व के प्रश्न को हल करने के लिए संविधान सभा और रियासतें अपनी तरफ से वार्ता समितियां बनायेंगी.
संविधान सभा और रियासतों की वार्ता
इन समितियों के बीच 8-9 फ़रवरी और 1-2 मार्च 1947 को गहन वार्ताएं हुईं. इसकी रिपोर्ट 28 अप्रैल 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरु ने संविधान सभा में प्रस्तुत की. इसके पांच अहम बिंदु थे – एक : रियासतों के संविधान सभा में शामिल होने की योजना पूर्णतः ऐच्छिक है. इसमें घटनाओं की बाध्यता के अतिरिक्त कोई और बाध्यता नहीं है. यदि संविधान सभा में शामिल होते हैं, तो उसके निर्णय के मानने की भी बाध्यता नहीं है. दो: रियासतें राजतंत्रात्मक प्रणाली बनाये रख सकती हैं. तीन : प्रदेशों/रियासतों की सीमाएं पुनर्विभाजित तब तक नहीं की जायेंगी, जब तक कि उनसे जुड़े पक्षों के बीच सहमति न हो. चार: जो विषय (संचार, रक्षा और विदेश मामले) भारतीय संघ (यूनियन) को दिए गये हैं, उनके अलावा सभी विषय रियासतों के पास रहेंगे. पांच : रियासतों को जितने प्रतिनिधि संविधान सभा में भेजने हैं, उनमें से कम से कम 50 प्रतिशत प्रतिनिधि विधान परिषद/धारासभा या निर्वाचक मंडल के द्वारा चुने जाएं, यानी सभी प्रतिनिधि नरेश/राजा खुद न चुनें.
यह रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए पं. नेहरु ने कहा था कि आजकल की दुनिया में किसी राजा द्वारा शासन चलाने के तरीके के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह लोगों को पसंद है, चाहे उससे पहले कितनी ही भलाई क्यों न हुई हो. यह पद्धति आगे चलकर खत्म हो जायेगी, लेकिन मैं नहीं जानता कि यह कब तक टिकी रहेगी. इसके बारे में संविधान सभा को निर्णय नहीं करना है. इसका निर्णय रियासत के लोगों को ही करना है".
आपसी सहमति से साथ आयीं रियासतें
संविधान सभा की समिति और रियासतों की आपसी सहमति के बाद रियासतें संविधान सभा में शामिल होने लगीं. युद्ध या कुटिलता के बजाय भारतीय राजनीतिज्ञ एक परिपक्व मूल्य आधारित प्रक्रिया से रियासतों को भारत से जोड़ रहे थे. डॉ. कैलाश नाथ काटजू ने इसी दिन पं. नेहरु के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा था कि मेरे विचार से राजाओं के लिए अपनी तथाकथित शक्ति पर निर्भर रहने के बजाय, अपनी जनता के प्रेम और विश्वास पर निर्भर रहना कहीं अधिक श्रेयस्कर है. यदि वे उस पर निर्भर रहें तो वे बने रह सकते हैं, अन्यथा इनमें से अधिकांश रियासतें लुप्त हो जायेंगी".
जब 4 नवम्बर 1948 को संविधान के प्रारूप पर बहस शुरू हुई, तब अपना प्रारंभिक वक्तव्य रखते हुए डॉ. बी. आर अम्बेडकर ने कहा कि संविधान के प्रारूप की आलोचना इसलिए हो रही है क्योंकि इसमें केंद्र सरकार और प्रान्तों के बीच वैधानिक सम्बन्ध की व्यवस्था है, और रियासतों के साथ केंद्र के सम्बन्ध की भिन्न व्यवस्था है. रियासतें संघ-सूची में दिए हुए विषयों की पूरी तालिका को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं. वह संवर्ती सूची को मानने के लिए भी बाध्य नहीं हैं. वे अपनी संविधान सभा बना कर खुद अपना संविधान भी बना सकती हैं. यहां तक कि इस मसौदे में उन्हें अपनी सेना रखने की अनुमति भी दी गयी है. मैं इस प्रबंध को बड़ा ही हानिकारक और विपरीतगामी मानता हूं, जो भारत की एकता को छिन्न-भिन्न कर सकता है और केंद्र सरकार को उलट सकता है. मसौदा समिति इस व्यवस्था से संतुष्ट न थी; लेकिन संविधान सभा और रियासतों के बीच हुई वार्ता के निर्णयों से हम बंधे थे".
एक महत्वपूर्ण बात डॉ. आंबेडकर ने जोड़ी कि "जो जर्मनी में हुआ, हमें उससे साहस मिलता है. बिस्मार्क ने वर्ष 1870 ई. में जर्मन साम्राज्य स्थापित किया था. वह एक विमिश्र राज्य था. उसमें 25 इकाइयां थी, जिनमें से 22 में राजशाही व्यवस्था थी, कालांतर में चलकर वह विभेद ख़तम हो गया और समूचा राज्य एक हो गया. भारत में 15 अगस्त 1947 को लगभग 600 रियासतें थीं, लेकिन रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया में इनके अपने समूह बनने से इनकी संख्या केवल 20-30 रह गयी है. जो रियासतें रह गयी हैं, मैं उनसे अपील करता हूं कि कि वे भारतीय प्रान्तों के स्तर पर आ जाएं और उन्हीं की तरह भारतीय संघ का पूर्णतः अंग बन जाएं. मुझे विश्वास है कि अपना संविधान पारित करने से पहले ही हम प्रान्तों और रियासतों के बीच के अंतर को दूर कर देंगे".
मार्च 1947 में रियासतों के साथ हुए समझौते के मुताबिक रियासतों की अपनी स्वायत्त व्यवस्थाएं होनी थीं, उनके अपने संविधान बनने थे. लेकिन जैसा कि डॉ. अम्बेडकर ने सोचा था, स्थितियां बदलने लगीं.
रियासतों की शंकाएं और प्रिवी पर्स की व्यवस्था
समझौते का पहला चरण पूरा हो जाने के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल ने रियासतों के साथ मई 1947 से कूटनीतिक संवाद करते हुए नरेशों की शंकाओं को दूर किया. उनके शंका थी कि कांग्रेस के ज्यादातर नेता समाजवादी विचार के हैं, इसलिए वह उनकी शासन व्यवस्था को समाप्त कर देगी, उनकी संपत्तियों का अधिग्रहण कर लिया जाएगा और उनकी अधिकारों को समाप्त कर दिया जाएगा. यदि वे भारतीय संघ के पक्ष में चले जायेंगे, तो उनके राजस्व कमाने के रास्ते भी बंद हो जायेंगे. सरदार पटेल ने नरेशों को विश्वास दिलाया कि उनसे कुछ भी नहीं छीना जाएगा. जहां तक उनकी आय में कमी का प्रश्न है, इसे नरेशों के लिए "शाही निजी थैली" (प्रिवी पर्स) की व्यवस्था से सुलझा दिया जाएगा.
माना जाता है कि समाजवादी विचार के नेता, यहां तक कि पं. नेहरु भी "शाही निजी थैली" के प्रावधान के पक्ष में नहीं थे, लेकिन सरदार पटेल ने इन व्यवस्थाओं को संविधान में शामिल करवाने का वायदा किया था. नरेशों के साथ बातचीत की प्रक्रिया में सरदार पटेल ने सबसे ज्यादा वी. पी. मेनन को अपने साथ रखा. मेनन को ही नरेशों और राजाओं से वार्ता करने के लिए भेजा जाता था. माना जाता है कि वी.पी. मेनन दिन में दो बार सरदार पटेल को स्थितियों से अवगत करवाते थे और हर रात विस्तृत रिपोर्ट भेजते थे.
जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद
जून से 15 अगस्त 1947 के बीच जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद को छोड़कर 565 रियासतों में से 562 से परिग्रहण की संधि पर हस्ताक्षर करके भारतीय संघ से सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे. जूनागढ़ में 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू होने के बाद भी, जूनागढ़ के नवाब महाबत खान रसूलखानजी के दीवान सर शाह नवाज़ भुट्टो की कोशिश थी कि यह रियासत पाकिस्तान का हिस्सा बन जाए, रियासत के नवाब ने 15 अगस्त 1947 को ऐसा ही निर्णय ले भी लिया, लेकिन ऐसा संभव हो नहीं सका. भारत की अंतरिम सरकार ने दबाव बनाया कि फैसला जनमत संग्रह से हो. 20 फ़रवरी 1948 को जूनागढ़ में जनमत संग्रह हुआ. 2.021 लाख पंजीकृत मतदाताओं में से 1.91 लाख ने मतदान किया. इनमें से केवल 91 मतदाताओं ने पाकिस्तान में शामिल होने के पक्ष में मत दिया था, शेष सभी ने जूनागढ़ को भारत में मिलाने के विकल्प को चुना था.
इसके दूसरी तरफ महाराजा हरिसिंह कश्मीर को स्वतंत्र रखना चाहते थे. पाकिस्तान ने कबीलाई और सैन्य दबाव से कश्मीर पर नियंत्रण की कोशिश की. तब भारत ने कश्मीर की सहायता की और परिग्रहण की संधि भी. 2.12 लाख वर्ग किलोमीटर और 1.6 करोड़ की जनसंख्या के साथ हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी. हैदराबाद के निजाम का ब्रिटिश सरकार के साथ हमेशा विशेष सम्बन्ध रहा. सरदार पटेल का मानना था कि हैदराबाद निजाम का झुकाव पाकिस्तान की तरफ रहा है, लेकिन तब किसी तरह की सैन्य कार्यवाही नहीं किये जाने की नीति रही. जब संधियों से बात नहीं बनी, तब सितम्बर 1948 में सरदार पटेल ने मंत्रिमंडल से हैदराबाद के मसले के हल के लिए सैन्य कार्यवाही की अनुमति ली. 13 से 18 सितम्बर 1948 के बीच हुई कार्यवाही के आजाद भारत ने हैदराबाद की सेना को शिकस्त दी लेकिन सरदार पटेल ने परिपक्व राजनीति अपनाते हुए निजाम को ही हैदराबाद का राजप्रमुख बनवाया. बाद में हैदराबाद का भारत में विलय हुआ. इनमें से कोई पहल या कार्यवाही पं. नेहरु या सरकार की सहमति के बिना नहीं की गयी थी.
12 अक्टूबर 1949 को यानी संविधान पारित होने के लगभग डेढ़ महीने पहले गृह और राज्यों के मंत्री सरदार पटेल ने रियासतों/राज्यों के सम्बन्ध में अपनी आखिरी रिपोर्ट संविधान सभा में प्रस्तुत की. उन्होंने कहा कि "भारत सरकार की रियासतों के एकीकरण और लोकतंत्रात्मक बनाने की नीति के कारण दिसम्बर 1947 के बाद रियासतों के संघीकरण का काम जोरों से हुआ. इसके कारण राज्यों तक संघीय ढांचे का विस्तार हुआ और संघीय वित्तीय व्यवस्था बनी. जब रियासतें भारत की संविधान सभा में शामिल हुई थीं, तब यह समझा गया था कि उनका संविधान, भारत के संविधान का अंग नहीं होगा और इनका भारतीय संघों में प्रवेश किसी संवैधानिक व्यवस्था से होगा. इन विषयों पर रियासतों को प्रान्तों से भिन्न आधार पर रखा गया था. लेकिन जो संशोधन अब रखे जा रहे हैं, उनमें उस रक्तहीन क्रान्ति के परिणाम निहित हैं, जिसने इतने कम समय में रियासतों की आंतरिक तथा बाह्य व्यवस्था में परिवर्तन कर दिया है".
पहले भारत के प्रान्तों और रियासतों के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं बनी थीं, देसी रियासतों से बातचीत के बाद व्यवस्था में चार बातें शामिल हुईं – 1. केंद्र सरकार रियासतों में उन्हीं कृत्यों को करे और शक्तियों का प्रयोग करे, जो वह प्रान्तों में करती है; 2. प्रान्तों के समान ही रियासतों में केंद्र सरकार अपने निजी कार्यपालक संगठनों के द्वारा कार्य करे; 3. अंशदान के आधार में एकरूपता और समानता हो, 4. करों, सेवाओं पर व्यय, अनुदान, आर्थिक सहायता, वित्तीय और प्रौद्योगिकी सहायता के मामले में भी प्रान्तों और रियासतों में परस्पर समानता का व्यवहार हो. अब भारत की व्यवस्था ठीक वैसी ही नहीं है, जैसी वर्ष 1935 के अधिनियम की योजना में थी, जिसमें लोकतंत्र और राजकुलों का मेल थी.
'शाही निजी थैली" के सन्दर्भ में सरदार पटेल ने कहा था कि शासक और उनके परिवारों के सदस्यों पर लगभग 20 करोड़ रुपये का व्यय किया जाता है. सभी अन्य संधियों और करारों में निजी थैली को नियत कर देने की व्यवस्था है. हम जो व्यवस्था कर रहे हैं उसके अनुसार इस थैली के लिए केवल साढ़े चार करोड़ रूपये का व्यय होगा, यानी मौजूदा व्यय के एक चौथाई से भी कम. इसके दूसरी तरफ रियासतों के एकीकरण के कारण शासकों के प्राप्त हुए धन से संघ को इससे कहीं ज्यादा आर्थिक लाभ हुआ है. मैं संविधान सभा को यह विश्वास कराना चाहता हूं कि रियासतों में से एकतंत्रवाद सदैव के लिए चला गया है. शासक सम्मानपूर्वक छोड़कर चले गये हैं. अब यह जनता का कर्तव्य है कि वह इस कमी को पूरा करे और नयी व्यवस्था का पूर्ण लाभ उठाये".
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