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कबीर दास जी के इस छोटे से दोहे में जीवन का सार छिपा है
रेखा गर्ग
कबीर दास जी के इस छोटे से दोहे में जीवन का सार छिपा है. जिस जिन्दगी के भरोसे हम निश्चिन्त रहते हैं वो धोखा देने में बड़ी माहिर है. हर क्षण का व्यतीत होना असंख्य रहस्यों से भरा है. भविष्य के गर्भ में क्या है यह प्रश्न बड़ा ही विचारणीय है. अतीत की यादों से वर्तमान में खुश या दुखी हो सकतें हैं पर भविष्य कल्पना युक्त होकर भी आशंकित कर देने वाला होता है. क्षण भर की स्थिरता भी सम्भव हो नहीं कह सकते. जिन्दगी हादसों की डगर है. और बढ़ते इन हादसों ने जिन्दगी को बहुत छोटा कर दिया है. जितने आविष्कारों से मनुष्य प्रफुल्लित होता है वे उसी के विनाश के लिए बन जाती हैं.
जीवन की नश्वरता किस रुप में कब, कैसे सामने आ जाए समझ ही नहीं पाते. हर पल होने वाली दुर्घटनाएं विचलित कर देती हैं. मृत्यु किस रुप में कहॉं घात लगाए बैठी है अनुमान से भी परे है. हादसे सभी भयानक होते हैं पर काल इतना निकट हो कि उसकी भयावहता देख राह चलते सभी ठिठक जाए तब क्या कहिए? नन्हा सा किशोर जिसके सपने अभी यौवन को भी प्राप्त नहीं हुए थे, उफ! कैसे मौत के मुँह में समा गया. बडा़ उत्साहित हो वाई-फाई की केबल डालने पहुँचा था वह। तार उछाला ही था और वह हाई टेंशन लाइन से जा टकराया. फूल सा शरीर राख में तब्दील हो गया.
अपने सुनहरे भविष्य के लिए उसने यही काम चुना था. आमदनी कम ही सही पर बड़ा खुश था. हर दिन सुबह सवेरे ही काम पर पहुँच जाता था. पर आज ऐसा दुःखद अन्त! इसकी तो कल्पना भी नहीं की होगी. उसके साथ पूरे परिवार के सपने भी जल गए. हमारी जिन्दगी में जब एक छोटी सी चीज भी खोती है तो हम उसे ढूंढने के लिए पुरजोर कोशिश करते हैं पर जब हादसों के कारण प्यारा सा जीवन खो जाए तो कैसे सब्र करें? वो जीवन जो विकसित भी नहीं हुआ उसे कहॉं खोजें? क्षण भर में शरीर मिट्टी कहलाने लगता है. कैसे ढांढस बधें?
हर क्षण होते असंख्य हादसों का वर्णन सम्भव नहीं. जिस भी कार्य क्षेत्र के अनुभवी हों वे कार्य क्षेत्र भी जानलेवा हो जाते हैं. जिनकी वास्तविकता से अपने ही नहीं गैर भी द्रवित हो जाते हैं. इन हादसों का होना हर घर की सच्चाई है. इन हादसों पर विश्वास कर पाना भी मुश्किल होता है. असंख्य बीमारियों का प्रकोप. कहीं सड़क दुर्घटनाएं. कहीं अपने ही किए गए आविष्कारों से आहत हो जिन्दगी से हाथ धोना. लगता है जिन्दगी मौत की परछाई बनकर हर पल साथ रहती है. क्रूरतम मौत दिन-प्रतिदिन अपने शिकंजे को कसते ही जा रही है. जनसंख्या वृद्धि है. कहीं मनुष्य का आत्मविश्वास. विज्ञान की आशातीत सफलताएं हैं तो आगे बढ़ने का जुनून. आकांक्षाओं को पूरी करने की चाहत. क्या है जो मानव पाना चाहता है और इस पाने की कोशिश में जिन्दगियां समय से पहले दम तोड रही हैं.
हमेशा से सुनते आये है जिन्दगियां जीने के लिए हैं एक निश्चित अवधि होती है. पर आज के दौर में लगता है सब कुछ अनियन्त्रित हो गया है. कहीं वृद्ध जिन्दगियां सिसक रही हैं तो कहीं किलकारियां ही शान्त हो रही हैं. कहीं उड़ान भरती जिन्दगी पर मौत की चिन्गारी ही गिर गयी है तो कहीं सपने धराशायी हो रहे हैं. अनायास हादसों का शिकार होती जिन्दगियां तड़पने को मजबूर कर देती हैं.
ये हादसे किसी के भी साथ हो, दिल के निकट ही होते हैं. इनसे रिश्ता जुड़ा होता है. ये अपना पराया कुछ भी नहीं देखते हैं. इनसे दु:खी होने पर हम आंसू बहाना जानते हैं. दूसरों के दर्द में पिघलना जानते हैं. दिन-प्रतिदिन बढ़ते हादसे अरमानों को कम कर देते हैं. आशंकाओं को जन्म देते हैं. भविष्य को समाप्त कर देते हैं. जिन्दगी खुशियों की चाबी ना होकर भय की मशाल बन जाती है. आशाएं, आनन्द विलुप्त हो जाता है. किसी बच्चे का अपहरण, किसी की हत्या, सोच से भी परे दुष्कृत्य कर जीवन समाप्त कर देना. प्राकृतिक या अप्राकृतिक तरह से जीवन का शान्त हो जाना परिवार की गति को रोक देता है. इन हादसों से व्यथित मन किसी दिलासा से शान्त नहीं होता. कैसा वक्त होता होगा उन परिवारों के लिए जिनकी नींव लाख मजबूत हो पर हादसों ने उन्हें खोखला कर रखा हो. जो जिन्दगी तो जीते हैं पर सिसकियों की आवाजें स्पष्ट सुनाई देती हों.
वैसे तो हर क्षण होते हादसे याद नहीं रखे जाते क्योंकि इनकी संख्या बहुत होती है पर ये भूले भी नहीं जाते. ये दिल पर अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं. आजीवन रिसते हैं. घाव दे जाते हैं. इन हादसों की तकलीफ किसी जाति या रिश्ते में बंधी नहीं होती है. ये किसी एक परिवार का दर्द नहीं होता वरन् महसूस करने वाले हर दिल का दर्द होता है. जो भी इन हादसों को देखता है, सुनता है, उन सबका दर्द होता है.
कोई दर्द क्षण भर ठहर कर चला जाता है तो कोई आजीवन रुक जाता है. कोई कुछ खो गया है ये अहसास कराता है तो किसी का सब कुछ खो जाता है. दर्द देते और जिन्दगी को कम करते इन हादसों के प्रकारों को झेलने की क्षमता भी मनुष्य की सहनशक्ति का मूल्यांकन करती है. कभी तनिक सी पीड़ा भी कष्टकारी लगती है तो कहीं जख्म भी सहने पड़ते हैं. कहीं गिरते आंसू मूल्यवान होते हैं तो कहीं जिन्दगी आंसुओं की कहानी ही बन जाती है. इन दर्दनाक हादसों के कारण कुछ रिश्तों से हमेशा के लिए सम्बन्ध टूट जाता है. पीड़ा उन घरों का हिस्सा बन जाती है. ये हादसे वैधव्य के आवरण में लपेट देते हैं. बचपन की कहानी को शुरु होने से पहले ही खत्म कर देते है और बुढ़ापे को लम्बा कर देते हैं. नन्हें कन्धों के बोझ बढ़ जाते हैं तो बूढ़े कन्धे झुक जाते हैं.
ये हादसे क्या-क्या नहीं कराते. किसी की आंखों में काले साये बनकर मंडराते हैं तो किसी की बैसाखियों में झांकते दिखते हैं. कभी दीन-हीन बनाकर धरती पर रेंगने को विवश कर देते हैं तो कभी असहनीय पीड़ा दे देते है. ये हादसे बहुत ही आस-पास व नजदीक होते हैं. फन उठाए बढ़ते जा रहे है. लगता है शान्त जिन्दगी को नजर लग गयी है. आपाधापी, महत्वाकांक्षाएं, औद्योगिकीकरण, नगरीकरण, जनसंख्या वृद्धि या आविष्कार; क्या कारण है जो ये हादसे इतने करीब आ गये हैं?
जन्म मिला है तो एक भरपूर जिन्दगी तो हिस्से में आनी ही चाहिए. हादसों के कारण बिना समय दुनिया से चले जाना. जुझारु जिन्दगियों का समाप्त हो जाना, व्याकुल करने वाला है. प्रगति की आड़ में जन्म लेने वाले इन हादसों से जिन्दगियां कैसे बचे विचारणीय है. इन हादसों का कोई दीन ईमान नहीं. अपने हों, किसी करीबी के हों या अनजान के हों, ये हादसे अभिन्न हिस्सा हो गये हैं. निरन्तर बढ़ रहे हैं और जिन्दगियों को कम कर रहे हैं. स्वस्थ, सुखद जीवन के लिए मंगल कामना तो सब कर ही सकते हैं.
Rani Sahu
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