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मौसम की प्रतिकूलता में जिंदगी की रफ्तार को नियंत्रित करें या इस बहाने को समझें कि मौत कभी बैसाखी पहन कर नहीं आती
सोर्स - divyahimachal
मौसम की प्रतिकूलता में जिंदगी की रफ्तार को नियंत्रित करें या इस बहाने को समझें कि मौत कभी बैसाखी पहन कर नहीं आती। पहले से कहीं अधिक खूंखार और एक नई पटकथा में मौत का सामना करते प्रकृति, प्रगति और प्रलाप। एक वीभत्स चित्रण के साथ कुल्लू घाटी के सारे नाद, सारे नजारे और सारी नफासत बिखर गई। फिर एक बस और घातक सूचना यही कि जब जिंदगी की तलाश में निकली दिनचर्या अपनी मंजिल और ख्वाबों के सफर पर थी, तो सड़क पर घात लगा कर बैठी मौत ने कई रिश्ते, कई उम्मीदें और कई वादे छीन लिए। सैंज घाटी से कुल्लू शहर का मिलन कराती बस मौत के पिंजरे में तबदील और तेरह लोगों के शरीर अब केवल शव बन कर रह गए। वहां कितने प्रश्न, कितने बचाव और कितने ही सुझाव अब घूम रहे होंगे, लेकिन सत्य यह है कि एक निजी बस फिर सड़क पर ताबूत बन कर चली और यात्रियों को फिर यह मालूम ही नहीं हुआ कि आज गंतव्य बदल गया है। जांच अब बस के टुकड़ों में कारण ढूंढेगी, तो सड़क के खूंखार इरादे भी पता चलेंगे। सड़क बोलेगी कि वह ऐसी नहीं थी मौसम ने आकर उसकी बखिया उधेड़ दी। वैसे मौसम हमारे हर दाग से गहरा होता है, इसलिए खुद में हमारे ही दोष छुपा लेता है।
यह सड़क कितनी उत्तम, कितनी सार्थक, कितनी व्यस्थ और कितनी सक्षम थी, इसका मूल्यांकन उस यात्री के लिए कोई जवाब नहीं ढूंढता, जो कल पुनः ऐसी ही किसी बस में ढोया जाएगा और यही सोचता रहेगा कि कब यह वाहन उसे कुल्लू पहुंचा दे ताकि उसकी जिंदगी का सफर न रुके, न थमे, लेकिन हिमाचल हर बार मौत के कठघरे में प्रश्नांकित होता है। सड़कें हमेशा किसी न किसी मोड़ पर आकर प्रायश्चित करती हैं या मौसम के अवरोध पर खुद को बेकसूर साबित करने की भरपूर कोशिश करती है। हर वाहन चालक भी धूप टीका करके बस रवाना करता है ताकि उसके हुनर में ईश्वर का साथ, यात्रियों का आशीर्वाद, मालिक का व्यापार और हिमाचल के आगे बढ़ने का आसार रहे। अब तो पीडब्ल्यूडी भी अपने कर्मचारियों की समस्त छुट्टियां काट कर दीप जलाता है ताकि बरसात जैसे मौसम में बर्बादी और बदनामी न हो। सिलसिले बदले हैं और सफर की तासीर भी, कौन कब सड़क को जगा जाए यह अब नए हिमाचल की मुरीद है। सिर्फ सड़क बनने की देरी है, फिर वहां वाहन ही प्रगति को उठा कर पहुंचा देंगे। हम सड़क दुर्घटनाओं के कारण ढूंढते हुए कई विभागों के साथ-साथ वाहन और चालक को तो कोस सकते हैं, लेकिन क्या समाज अपनी भूमिका में कोई खोट तलाश सकता है। सड़कों के किनारे पर निर्माण सामग्री से भवन निर्माण का अंधाधुंध विस्तार क्या परिवहन की दृष्टि से उपयुक्त मान लिया जाए। क्या सड़कों पर पार्क किए गए वाहनों को स्वीकार कर लिया जाए। क्या बिना पैट्रोलिंग के सड़क सुरक्षा के इंतजाम मान लिए जाएं।
क्या सड़कों की लंबाई चौड़ाई पर तने हुए वन विभाग के पेड़ों को निर्दोष मान लिया जाए। क्या परिवहन विभाग के रूट परमिट के अंदाज और समय सारिणी को मासूम मान लिया जाए। क्या हमने यह जानने की कोशिश की है कि निजी बसों में हर यात्री की जरूरत को समझते हुए चालक अपनी रफ्तार को पगार और यात्रियों की ख्वाहिश से जोड़ता है। एचआरटीसी घाटा बर्दाश्त कर सकती है, लेकिन निजी बस चलता फिरता बैंक खाता है। इसके लिए वाहन चालक को अपने समय को रफ्तार से बांधना पड़ता है। यही समय अकसर बस दुर्घटनाओं को आमंत्रित कर देता है, लेकिन सड़क पर ऐसी कोई निगरानी नहीं जो बसों का अनुशासित चालन करवा सके। हर दुर्घटना केवल मातम नहीं, बल्कि इन चीखों के हजारों सबक हैं। क्या हमारी परिवहन नीति इस के ऊपर भी कभी गौर करेगी कि पहाड़ी रास्तों पर वाहन हर सूरत संयमित आचरण में कैसे चलें। खास तौर पर निजी बसों को रूट प्रदान करने की मर्यादा में सड़क सुरक्षा को अहमियत मिलनी चाहिए।
Rani Sahu
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