सम्पादकीय

सियासी खरे खोटे में

Rani Sahu
19 May 2023 11:03 AM GMT
सियासी खरे खोटे में
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By: divyahimachal
राजनीति के खरे खोटे में फंसा देश भले ही जनप्रतिनिधित्व के उसूलों पर समाज और राष्ट्र की किरकिरी देख ले, लेकिन नेताओं का दीन ईमान अब सत्ता का वर्चस्व है। सत्ता की कुंडलियों में राजनीति की जुंडलियां हर बार हिमाचल के सियासी आरोहण और सरकार की पांत में देखी जाती हैं। राजनीति में सत्ता का उपभोग, सामाजिक, आर्थिक और राज्य की व्यवस्थाओं पर कुंडली मार कर बैठ रहा है, नतीजतन एक बड़ी सौदेबाजी में हिमाचल जैसे राज्य के भी कई साल गुम हो रहे हैं। आचरण केवल सियासत के पहलू में ही कमजोर नहीं हो रहा, बल्कि सामाजिक दृष्टि भी कंगाल हो गई है। अभी हाल ही में पूर्व विधायक जवाहर ठाकुर का सूखे में बरसना भाजपा को रास नहीं आया, जबकि लोकतांत्रिक स्वरूप में पार्टियों का आचरण इतना सशक्त तो होना चाहिए ताकि कम से कम हार की स्थिति में तो खुलकर मंथन कर लिया जाए। पूर्व विधायक ने भाजपा की सत्ता में पार्टी की पपडिय़ां उतारीं तो जुल्म हो गया, लिहाजा मंडी संसदीय क्षेत्र के प्रभारी तथा पार्टी के प्रदेश महामंत्री राकेश जम्वाल को उनसे सख्त लहजे में पूछना पड़ रहा है। ऐसे में कौन नक्कार खाने की तूनी बनकर पूछने की हिमाकत करेगा। वैसे हार में उपहार तो मिलता नहीं, लेकिन सियासत अब प्रायश्चित करना भी भूल गई है। पार्टी अनुशासन में पूर्व विधायक से जो कुछ छीना जा सकता है, उससे भी अधिक मसला यह है कि सत्ता में रहते हुए राजनीतिक दल अब जुंडली बन कर चल रहे हैं। सरकार और संगठन के बीच केवल प्रभुत्व की दरकार ही देखी व समझी जाती है। यह अब अजीब सा रोजगार बन चुका है, इसीलिए जब कर्मचारी ओपीएस की मांग करते हैं तो जवाब मिलता है कि एक बार चुनाव जीत कर दिखाओ। देश चुनावी राजनीति का गुलाम बन कर अपनी नैतिकता के आधार को खो रहा है। जब तक सत्ता है, पार्टियां अपने भीतर सारी कुंठाएं छुपाए अपने ही गुणगान में फंसी रहती हैं और फिर जब ताकत गुम होती है तो सारा आक्रोश पहलवान बनकर बाहर निकल आता है। जवाहर ठाकुर का आक्रोश अपनी ही पूर्ववर्ती सरकार की कलई खोल चुका है, तो कहीं ज्वालामुखी के पूर्व विधायक रमेश धवाला का गुस्सा फिर से सत्ता के अपने दौर को अनावृत कर रहा है। राजनीति के भ्रम जाल में जनता को बार-बार बरगलाया जाता है कि सत्ता बदलते ही परिवर्तन हो जाएगा या प्रदेश के फलक पर न्याय मुस्कराएगा, लेकिन वर्तमान दौर में सत्ता के कक्ष में इतनी संकीर्णता भर चुकी है कि अपनों से मुकाबले देखे जा रहे हैं। चुनौतियां तो वाईएस परमार से शांता कुमार तक भी रहीं और सरकार के भीतर मुकाबले होते रहे, लेकिन अब ‘यारों की सरकार या ‘मित्रों की सरकार’ के दोष सामने आने लगे हैं।
भाजपा और कांग्रेस सरकारों में अंतर इतना ही देखा गया कि केसरिया प्रभाव आरएसएस के माध्यम से सत्ता में ऐसी नियुक्तियां भी करता रहा जो संगठन व सरकार की ताकत में दीमक सिद्ध हुए। हम यह तो नहीं कह सकते कि जवाहर ठाकुर ही सही हैं, लेकिन जो उन्होंने कहा उसे सुनने की ताकत व वजह भाजपा के पास नहीं है। इससे पहले भी जब रमेश धवाला सत्ता के भीतर और बाहर बतौर विधायक बोलते रहे, तो भाजपा ने उसे लगातार अनसुना किया। जब चार उपचुनाव हार कर भी भाजपा ने अपनी सत्ता और सत्ता कक्ष का विश£ेषण नहीं किया, तो न जाने कितने जवाहर ठाकुर पैदा हुए होंगे। फतेहपुर उपचुनाव में किरपाल परमार का सीधे टकराना अगर प्रधानमंत्री द्वारा संपर्क करने पर भी शांत नहीं हुआ, तो इन गलियों की भगदड़ को रोकने की कोशिश किसने की। ऐसे में भाजपा की दीवारों पर चस्पां आक्रोश वर्तमान कांग्रेस भी अगर पढ़ ले तो आंतरिक शांति के कई उपचार व हवन सामग्री मिल जाएगी। सत्ता की मदहोशी अकसर जवाहर ठाकुरों या रमेश धवालों को भूलने का प्रयास करती है, लेकिन वक्त पर चोट जब होती है तो घायल मंजर पर आहें सभी की निकलती हैं। भाजपा सरकार की आहें सुनी जाएंगी भले ही पार्टी जवाहर ठाकुर के ऊपर एकतरफा अनुशासन की चादर डाल दे। सत्ता में रह कर भी विधायक, पूर्व विधायक या वरिष्ठ नेता प्रताडि़त हों, तो विरोध के लिए विपक्ष को निमंत्रण देने की आवश्यकता नहीं। हिमाचल भाजपा को अपनी सत्ता के पिछले कार्यकाल को खंगालना आवश्यक होगा ताकि आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान ऐसे आक्रोश की चारित्रिक अर्थियां न निकलें।
Rani Sahu

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