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Written by जनसत्ता; लेकिन कई बार कुछ मसले ऐसे होते हैं, जिन पर अदालत का रुख संबंधित मामले का निष्कर्ष तो होता है, मगर सामाजिक रूप से वह व्यापक महत्त्व का होता है और इसी क्रम में उसे ऐतिहासिक फैसले का भी दर्जा मिलता है। गुरुवार को गर्भपात के मसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया, वह देश की महिलाओं के संवैधानिक और मानवीय अधिकारों के लिहाज से क्रांतिकारी महत्त्व का साबित होगा और इस मुद्दे पर समाज के नजरिए में भी बदलाव का एक बड़ा वाहक बनेगा।
आमतौर पर गर्भपात को लेकर पारंपरिक रूप से सामाजिक आग्रह यही रहा है कि इस मामले में विवाहित स्त्रियों को ही विशेष स्थितियों में गर्भ को हटाने का अधिकार होना चाहिए, जबकि अविवाहित महिलाओं के मामले में सामाजिक रुख संकीर्ण और विभाजित रहा है। इसके पीछे पारंपरिक रूढ़ियों से संचालित वैसे पूर्वाग्रह रहे हैं, जिनमें अविवाहित महिलाओं के अपने बारे में लिए जाने वाले निर्णय की स्वतंत्रता को समाज के ढांचे के लिए नुकसानदेह माना जाता है।
अब सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग पैमाने पर स्त्री का दोयम दर्जा तय करने वाली पितृसत्तात्मक मानसिकता से लेकर व्यवस्था तक को यह आईना दिखाने की कोशिश की है कि अगर समाज के सबसे अहम हिस्से की पीड़ा के प्रति पर्याप्त संवेदना नहीं है तो उसे वक्त के मुताबिक मानवीय, संवेदनशील और न्यायपरक बनाया जाना चाहिए। संबंधित मामले पर फैसला सुनाते हुए अदालत ने साफ लहजे में कहा कि सभी महिलाएं सुरक्षित और कानूनी गर्भपात की हकदार हैं। एमपीटी यानी गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम में 2021 का संशोधन विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच भेदभाव नहीं करता है।
यों भी यह एक सामान्य समझ का मामला है कि अविवाहित अवस्था में किसी भी महिला के गर्भधारण के लिए अलग-अलग, विशेष और कई बार उनके खिलाफ त्रासद अपराध जैसी स्थितियां जिम्मेदार हो सकती हैं। बल्कि विवाहित महिलाओं के संदर्भ में अदालत ने अनचाहे गर्भ के लिए 'वैवाहिक बलात्कार' की स्थिति की भी चर्चा की। ऐसे में किसी महिला के सामने सुरक्षित तरीके से गर्भ को हटाना ही एकमात्र विकल्प हो सकता है। सिर्फ अविवाहित होने की वजह से उनके सहज जीवन के अधिकार को बाधित करना मानवीय नहीं कहा जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में कहा कि गर्भपात के नियम को अगर केवल विवाहिता के लिए समझा जाता है तो यह इस रूढ़ि को कायम रखेगा कि यौन संबंध केवल विवाहित महिलाओं तक सीमित हैं। यह संवैधानिक रूप से टिकाऊ नहीं है और विवाहित और अविवाहित स्त्रियों के बीच कृत्रिम अंतर को कायम नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि इससे संविधान के अनुच्छेद-14 का उल्लंघन होता है। वक्त के साथ समाज और जीवन के मानदंड भी बदलते हैं। मौजूदा समय में घर की दहलीज से पार स्त्रियों के कामकाज, जीवन और उनकी दुनिया का दायरा बड़ा हुआ है।
ऐसे में पारंपरिक जड़ता में कैद सोच कई बार किसी सामाजिक हिस्से के मानव अधिकारों के खिलाफ भी हो सकती है। इसलिए अगर पूर्व में बनाए गए किसी कानून से बदले वक्त में समाज के कि हिस्से का जीवन और अधिकार बाधित होता है तो उसके प्रति नजरिए और नियम-कायदों में भी बदलाव आना चाहिए। इस संदर्भ में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि एक ओर आधुनिक और विकसित कहे जाने वाले अमेरिका में महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को हाल ही में सीमित कर दिया गया, वहीं भारत में इस मसले पर वास्तविक आधुनिक और मानवीय दृष्टिकोण के साथ महिलाओं के इस हक को स्थापित किया गया।