सम्पादकीय

पाबंदियां भीड़ पर लगाओ

Rani Sahu
31 Dec 2021 7:16 PM GMT
पाबंदियां भीड़ पर लगाओ
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चुनाव नहीं टलने थे, लिहाजा निर्वाचन आयोग ने नहीं टाले और चुनाव कराए जाने के स्पष्ट संकेत दिए हैं

चुनाव नहीं टलने थे, लिहाजा निर्वाचन आयोग ने नहीं टाले और चुनाव कराए जाने के स्पष्ट संकेत दिए हैं। अब उच्च न्यायालय भी क्या कर लेगा? उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने तो आयोग को नोटिस तक भेज दिया है। वकील बहस करते रहेंगे। सरकार हलफनामा दाखिल कर देगी। अदालत किसी आदेश की पराकाष्ठा तक बहुत कम ही पहुंचती हैं। उप्र में चुनाव होंगे, तो फिर उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर में क्यों नहीं होंगे? चुनाव होंगे, तो रैलियां भी सजेंगी, जिनमें भीड़ का कोई निश्चित आकार नहीं होगा। मास्क पहनना और आपसी दूरी के प्रोटोकॉल तो 'मज़ाक' बनकर रह गए हैं। देश को आश्वस्त किया जा रहा है कि रैलियों में भीड़ का आकार सीमित किया जाएगा। सेनेटाइज़र और मास्क मुफ़्त ही मुहैया कराए जाएंगे। जब देश के नेता ही मास्क नहीं पहनते, तो भीड़ क्यों पहनेगी? क्या कभी देखा है कि भीड़ ने चुनाव आयोग के निर्देशों का पालन किया है? चुनाव आयोग तो सरकार और नेताओं की 'गाय' है! गाय तो सींग भी नहीं मार सकती। यह गाय दंतहीन भी है। सवाल है कि अभी चुनाव आयोग के पास कौन-सी शक्तियां हैं, जिनके तहत वह राजनीतिक दलों को नियंत्रित और संचालित कर सके?

चुनाव आयोग मतदान का कार्यक्रम घोषित करेगा, तो आदर्श आचार संहिता लागू होगी और फिर शक्तियां आयोग के हाथों में होंगी। पूरा प्रशासन, पुलिस और अर्द्धसैन्य बल आदि चुनाव आयोग के नियंत्रण में होंगे। ऐसा जब होगा, तो तब देखा जाएगा। अभी कठघरे में चुनाव आयोग नहीं है। फिलहाल चिंता और सरोकार चुनावी भीड़ और कोरोना संक्रमण की भयावहता को लेकर है। अभी तमाम संवैधानिक शक्तियां प्रधानमंत्री मोदी के पास हैं। सबसे अधिक और भीड़दार रैलियां उन्हीं की होती रही हैं। वह भीड़ के नरमुंडों पर टिप्पणी करते हुए गदगद भी होते रहे हैं। औसतन हर तीसरे दिन वह उप्र में या किसी अन्य राज्य में होते हैं। जनसभा को संबोधित किए बिना वह रह नहीं सकते। आखिर जनता के ही 'प्रधान सेवक' हैं वह! उत्तराखंड में तो सड़क किनारे हजारों की भीड़ जुटाई गई थी, जो मोदी, मोदी के नारे बुलंद कर रही थी। ऐसा पहले भी कई राज्यों में देखा-सुना जा चुका है। कोरोना संक्रमण को फैलने के लिए और कैसी और कितनी उर्वरता चाहिए? उप्र तो प्रधानमंत्री मोदी का गृह राज्य सरीखा है। वह गंगा मैया में डुबकी लगाकर स्नान भी कर लेते हैं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर हो या गोरखपुर के आयोजन अथवा कानपुर में मेट्रो रेल का उद्घाटन हो, प्रधानमंत्री अक्सर बिना मास्क के दिखे हैं। बीच-बीच में मास्क याद आ जाता है, तो पहनने का स्वांग रचना पड़ता है।
मास्क विपक्ष के अखिलेश यादव, प्रियंका गांधी आदि भी नहीं पहनते, मानो ओमिक्रॉन इन नेताओं और भीड़ से खौफ खाता है! अथवा दिन में वायरस सोया रहता है और रात के अंधेरों में 'शहंशाह' की तरह निकलता है, लिहाजा ज्यादातर राज्यों में रात्रि कर्फ्यू चस्पा कर दिया गया है! प्रधानमंत्री ने जुटाई भीड़ से लबालब रैलियों को संबोधित कर विपक्षियों को चित्त करने की कोशिशें की हैं। लगभग ऐसी ही रैलियां गृहमंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी बेहद हुलहुला कर संबोधित की हैं। आखिर इस संक्रमण काल में मिसाल कौन कायम करेगा? आप बाज़ार, पार्क, गली-मुहल्ले और आस-पड़ोस में ऐसे उत्तेजक स्वर सुन सकते हैं कि क्या पाबंदियों के लिए आम आदमी और जनता ही बचे हैं? कोरोना की पहली-दूसरी लहर के दौरान लाखों मरे हैं। यदि अब भी तीसरी लहर की संक्रामक नौबत आ गई, तो फिर असंख्य मासूम मर जाएंगे। नेताओं को क्या फर्क पड़ता है? संसद में फिर जवाब दे दिया जाएगा कि कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा ही नहीं है! रैलियां तो नेताओं की प्राण-वायु हैं, लोकप्रियता का आधार हैं। शायद इसीलिए चुनाव आयोग के साथ बैठक के दौरान चुनाव टालने के पक्ष में कोई भी दल नहीं था। प्रधानमंत्री चाहते, तो वह मुख्यमंत्रियों और सभी राजनीतिक दलों की बैठक बुलाकर खुलासा कर सकते थे कि कोरोना संक्रमण के कितने भयानक हालात हैं, लिहाजा रैलियां स्थगित कर वर्चुअल माध्यम से प्रचार करना चाहिए। लाशों के अंबार पर जनाधार को लामबंद करने की कोशिशें लोकतंत्र नहीं है।

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