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- गुरु-शिष्य परंपरा की...
शंकर शरण। यह विडंबना ही है कि पराधीन भारत में हमारी भाषा, शिक्षा और संस्कृति उतनी बुरी अवस्था में नहीं थी, जितनी अंग्रेजों से मुक्त होने के बाद स्वदेशी राज में हो गई। शिक्षा की धारणा भी मूलत: स्खलित हो गई। महान कवि-चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के शब्दों में कहें तो शिक्षकों और विद्र्यािथयों को संबोधित करने का एकाधिकार उस राजनीतिक वर्ग का हो गया है, जिसका आज ज्ञानोपार्जन से कोई नाता नहीं, जो केवल सफलता के फौरी नुस्खे बांटते रहते हैं। ऐसी अवस्था में भारत के महान गुरुओं का स्मरण कर लेना भी एक आवश्यक कार्य है, ताकि लोगों में शिक्षा और शिक्षक की अर्थवत्ता की लौ जलती रहे। भारतीय ज्ञानियों के अनुसार, जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति-संचार हो, वह गुरु कहलाता है। इसके लिए देने वाले में शक्ति और लेने वाले में ग्रहण करने की योग्यता अपेक्षित है। शिष्य में भी पात्रता होनी आवश्यक है। सातवीं सदी में भारतीय शिक्षा को देखने वाले चीनी विद्वान ह्वेनसांग ने लिखा है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए आने वाले छात्रों में दस में दो-तीन ही उत्तीर्ण हो पाते थे, किंतु यह भी सत्य है कि व्याकुल शिष्य को गुरु मिल ही जाते हैं। एकलव्य की कथा इसी का संकेत है। यहां तक कि भौतिक रूप से मौजूद न रहने पर भी महान गुरुओं के वचन, उनकी पुस्तकें हमारा वही मार्गदर्शन कर सकती हैं, जैसा वे स्वयं करते। केवल सच्ची अभीप्सा होनी चाहिए।