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- चरागाह विकास की अनदेखी...
हिमाचल प्रदेश में 67 फीसदी वन भूमि होने के बावजूद चारे का संकट होना हैरान करने वाला है। हालांकि ऐसा पिछले डेढ़ सौ वर्षों के वन एवं चरागाह भूमियों के कुप्रबंधन के कारण हुआ है। अंग्रेजों ने सुधार वानिकी के नाम पर मिश्रित वनों को चीड़, सफेदा आदि व्यापारिक प्रजाति वनों में बदलने का जो क्रम शुरू किया था, वह आजादी के बाद भी चलता रहा। चिपको आंदोलन के बाद 1980 में इस पर गंभीर विचार-विमर्श शुरू हुआ और मिश्रित वानिकी का दौर फिर से शुरू हुआ। किंतु उसके प्रभाव के दर्शन अभी होने बाकी हैं। प्रदेश में 32.89 फीसदी भूमि चरागाह भूमि है। उसका प्रबंधन भी वन विभाग के ही हवाले रहा है। उसमें भी चीड़-सफेदा आदि व्यापारिक प्रजातियों के रोपण ने पशुओं के लिए चारे के संकट को बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है। हिमाचल प्रदेश में कृषि भूमि केवल 11 फीसदी ही है जिस कारण जोतें भी छोटी-छोटी हैं। 80 फीसदी के लगभग जोतें एक हैक्टेयर से कम हैं। जाहिर है कि इतनी कम भूमि में अपने लिए अन्न पैदा करें या आय के लिए नकदी फसल लगाएं या चारा उत्पादन करें। जाहिर है कि पहले किसान अन्न पैदा करता है या नकदी फसल उगाता है, और चारे के लिए बर्तनदारी वाली वन या चरागाह भूमि पर ही निर्भर करता आया है, जिसके कुप्रबंधन ने चारे का संकट खड़ा कर दिया। इसके चलते पशुपालन को लाभकारी बनाना दिन प्रति दिन कठिन होता गया। परिणामस्वरूप एक ओर पंजाब से महंगे दरों पर तूड़ी का आयात करने को पशुपालक मजबूर हुए, दूसरी ओर पशुपालन की ओर रुझान कम हुआ और पशुओं को लाबारिस छोड़ा जाने लगा। इससे भी किसान का दोहरा नुकसान हुआ। किसान की आत्म-निर्भरता कम हुई। उसे बैलों के बजाय महंगे कृषि उपकरणों, जो खनिज तेल से चलते हैं, उन पर निर्भर होना पड़ा। दूसरी ओर लावारिस पशु खेतों को चुग कर तबाह करने लगे हैं। हिमाचली किसान का नकदी आय का स्रोत मुख्यतः पशु और भेड़-बकरी पालन रहा है, जो अब खतरे में है। इस स्थिति से उबरने के लिए चरागाह विकास महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।