सम्पादकीय

चरागाह विकास की अनदेखी भारी पड़ेगी

Rani Sahu
20 March 2022 7:15 PM GMT
चरागाह विकास की अनदेखी भारी पड़ेगी
x
हिमाचल प्रदेश में 67 फीसदी वन भूमि होने के बावजूद चारे का संकट होना हैरान करने वाला है

हिमाचल प्रदेश में 67 फीसदी वन भूमि होने के बावजूद चारे का संकट होना हैरान करने वाला है। हालांकि ऐसा पिछले डेढ़ सौ वर्षों के वन एवं चरागाह भूमियों के कुप्रबंधन के कारण हुआ है। अंग्रेजों ने सुधार वानिकी के नाम पर मिश्रित वनों को चीड़, सफेदा आदि व्यापारिक प्रजाति वनों में बदलने का जो क्रम शुरू किया था, वह आजादी के बाद भी चलता रहा। चिपको आंदोलन के बाद 1980 में इस पर गंभीर विचार-विमर्श शुरू हुआ और मिश्रित वानिकी का दौर फिर से शुरू हुआ। किंतु उसके प्रभाव के दर्शन अभी होने बाकी हैं। प्रदेश में 32.89 फीसदी भूमि चरागाह भूमि है। उसका प्रबंधन भी वन विभाग के ही हवाले रहा है। उसमें भी चीड़-सफेदा आदि व्यापारिक प्रजातियों के रोपण ने पशुओं के लिए चारे के संकट को बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है। हिमाचल प्रदेश में कृषि भूमि केवल 11 फीसदी ही है जिस कारण जोतें भी छोटी-छोटी हैं। 80 फीसदी के लगभग जोतें एक हैक्टेयर से कम हैं। जाहिर है कि इतनी कम भूमि में अपने लिए अन्न पैदा करें या आय के लिए नकदी फसल लगाएं या चारा उत्पादन करें। जाहिर है कि पहले किसान अन्न पैदा करता है या नकदी फसल उगाता है, और चारे के लिए बर्तनदारी वाली वन या चरागाह भूमि पर ही निर्भर करता आया है, जिसके कुप्रबंधन ने चारे का संकट खड़ा कर दिया। इसके चलते पशुपालन को लाभकारी बनाना दिन प्रति दिन कठिन होता गया। परिणामस्वरूप एक ओर पंजाब से महंगे दरों पर तूड़ी का आयात करने को पशुपालक मजबूर हुए, दूसरी ओर पशुपालन की ओर रुझान कम हुआ और पशुओं को लाबारिस छोड़ा जाने लगा। इससे भी किसान का दोहरा नुकसान हुआ। किसान की आत्म-निर्भरता कम हुई। उसे बैलों के बजाय महंगे कृषि उपकरणों, जो खनिज तेल से चलते हैं, उन पर निर्भर होना पड़ा। दूसरी ओर लावारिस पशु खेतों को चुग कर तबाह करने लगे हैं। हिमाचली किसान का नकदी आय का स्रोत मुख्यतः पशु और भेड़-बकरी पालन रहा है, जो अब खतरे में है। इस स्थिति से उबरने के लिए चरागाह विकास महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

हालांकि वन विभाग में भी कुछ कार्यक्रम सिल्विपास्चर विकास के चल रहे हैं जिनमें चारा देने वाले पेड़ों के साथ सुधरी किस्म के घास लगाने का कार्यक्रम है, किंतु यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित हो रहा है। चरागाहों की बड़ी समस्या खरपतवार भी बन गई है। आधे से ज्यादा चरागाहें खरपतवारों से नष्टप्रायः हो गई हैं। इन्हें उत्पादक बनाने के लिए मनरेगा के रूप में अतिरिक्त आर्थिक संसाधन उपलब्ध हैं, किंतु इसका उपयोग नहीं किया जा रहा है। जिन पंचायतों ने इसके लिए प्रस्ताव भेज कर अनुरोध भी किया, उन्हें प्रशासनिक स्तर पर बहाने बना कर टाल दिया जा रहा है। इसके पीछे क्या विचार काम कर रहा है, समझ से बाहर है, जबकि मनरेगा दिशा-निर्देशों में चरागाह विकास के लिए स्पष्ट प्रावधान हैं। राजस्थान और उत्तर प्रदेश में इसके लिए राज्य सरकारों ने विशेष निर्देश दे रखे हैं, किंतु हिमाचल में इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर में खरपतवार उन्मूलन पर अच्छा काम हुआ है, जिसका लाभ लिया जा सकता है। नहीं तो खरपतवार, विशेषकर लैंटाना को उखाड़ कर भी खत्म किया जा सकता है। ऐसे काम निरंतर मिशन के रूप में सफल होते हैं, क्योंकि जीवित परिसंपत्तियों की देखभाल गंभीरता की मांग करती है। शायद इसीलिए टालमटोल द्वारा बचने का प्रयास होता है। मनरेगा के दिशा-निर्देशों में अनुसूची एक के अंतर्गत कृषि एवं तत्संबंधी कार्यकलापों से जुड़े मनरेगा कार्यों की सूची दी गई है। धारा एक के प्रवर्ग 'अ' (प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन से संबंधित लोक निर्माण) शीर्षक के छठे बिंदु में चरागाह विकास और स्टाइलो आदि बारहमासी घास लगाने का प्रावधान है।
प्रवर्ग 'आ' के बिंदु 4 के अंतर्गत भी चरागाह विकास और सुधरे घास लगाने का प्रावधान है। डायरेक्टर मनरेगा, ग्रामीण विकास मंत्रालय भारत सरकार के 14 अगस्त 2012 के पत्र, जो सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को भेजा गया था, के अनुसार 'मनरेगा के तहत चरागाह विकास' विषय पर जारी निर्देश में अनुसूची एक के हवाले से चरागाह विकास का निर्देश दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि इससे '1. ग्रामीण निर्धन वर्ग को रोजगार के अवसर मिलेंगे, उनकी आजीविका के लिए संसाधन आधार मजबूत होगा। 2. भूमिहीन पशुपालकों को भी चारा उपलब्ध हो सकेगा।' उम्मीद की जानी चाहिए कि हिमाचल सरकार इस ओर विशेष ध्यान देकर यह सुनिश्चित करेगी कि चरागाह विकास कार्य को मनरेगा में पहली प्राथमिकता से किया जाए। इस कार्य में कोई ज्यादा सामान खरीद की भी जरूरत नहीं है। इससे अधिक मात्रा में रोजगार वर्तमान में और दीर्घकाल में भी सृजित करने में मदद मिलेगी। लावारिस पशु धन की समस्या हल करने में कुछ मदद मिलेगी और पशुपालन, भेड़-बकरी पालन का रोजगार पुनर्जीवित हो सकेगा। हिमाचल में भारी मात्रा में दुग्ध पदार्थ आयात करने पड़ रहे हैं। मांस के लिए भी बकरियां राजस्थान तक से आयात करनी पड़ रही हैं। यदि विकास खंड अधिकारियों को विशेष आदेश जारी किए जाएं कि वे पंचायतों में इस तरह के दीर्घ समय तक लाभ देने वाले कार्यों के प्रति जागरूकता लाएं और लक्ष्य निर्धारित करके कार्य शुरू करवाएं तो समयबद्ध रूप में कुछ प्रभाव सामने आ सकेगा।
कुलभूषण उपमन्यु
अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story