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- हम बदलें तो जग बदले
प्रभात कुमार: नागरिक के रूप में हमारी अपेक्षाएं, किसी भी पार्टी की सरकार से कभी कम नहीं होतीं। बढ़ती ही जाती हैं। हर छोटे-बड़े मामले में छोटी जगह से लेकर बड़ी जगह का वासी यही चाहता है कि उसका आर्थिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य और सामाजिक स्तर उठाने के लिए सरकार एक से एक बढ़िया योजनाएं बनाए, धन जुटाए और सरकारी कारिंदे उन्हें ईमानदारी से लागू भी करें। सभी सरकारों के पास समाज कल्याण और विकास योजनाएं बनाने वालों की कमी नहीं होती, यह बात और है कि उनके कार्यान्वयन में समानता और क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने की कोशिशों को कुटिल राजनीति सफल नहीं होने देती।
सरकार के आंगन में मुफ्त बांट जारी रखती है, ताकि गद्दी पर निरंतर कब्जा रहे। जनता के स्वास्थ्य, सड़क, जल, शिक्षा और अन्य जन-सुविधाएं देने के लिए दर्जनों विभाग अपनी खास शैली में मेहनत करते हैं। हर शासन में यह स्थापित रिवायत है कि पिछली सरकार ने नहीं किया, इसलिए हम क्यों करें या उन्होंने ऐसा किया था इसलिए हम उनसे बढ़-चढ़ कर करेंगे।
इस संदर्भ में गलत और सही को लेकर अपना-अपना नजरिया होता है। परिणाम चाहे कुछ भी निकले, करने और न करने के अभियान में अनेक किंतु, परंतु और कदाचित उग आते हैं और वास्तव में रामायण की जगह महाभारत हो जाती है।
पिछले बरसों में महामारी का आना अप्रत्याशित रहा। सभी सरकारों ने अपने हिसाब से हर संभव प्रयास किया। पूर्णबंदी ने सभी की रक्षा की। स्वास्थ्य, स्वच्छता कर्मी और अन्य कर्मचारियों समेत सामाजिक संस्थाएं सक्रिय रहीं। झूठे-सच्चे विज्ञापनों की सक्रिय भूमिका रही। कुछ सच्चाइयों को तो माना ही नहीं गया। यही नियम लागू किया कि जब माना नहीं गया, तो यह समझ लिया जाए कि हुआ ही नहीं। इस तरह करते रहना भी ताकतवर की चारित्रिक विशेषता होती है।
अब भी कोविड अनुशासन बनाए रखने के लिए कहा जा रहा है, लेकिन लोग स्वछंद स्वभाव और लापरवाह प्रवृत्ति की गिरफ्त में हैं। सामाजिक दूरियां और बढ़ती जा रही हैं। अब भी यही आरजू है कि सरकार के नुमाइंदे आकर हमें खबरदार करें, कानूनी कार्रवाई करें, हम जुर्माना अदा करें।
अच्छे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता जरूरी है, लेकिन खरा सच आज भी यह है कि कचरा हरे-भरे जंगलों, खाली जगहों, गलियों और सड़क किनारे फेंका जा रहा है। यह बिलकुल प्रशंसनीय नहीं है। सरकारी अमले हर वक्त हमें समझाने के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते। जिंदगी में आए कुछ सकारात्मक बदलावों के लिए अदृश्य दुश्मन कोरोना का शुक्रिया अदा किया जा रहा है।
वाकई उन दिनों प्रदूषण विभाग के नोटिस के बिना ही पर्यावरण की सेहत बेहतर हो गई थी। अब सभी नागरिकों को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर अपने कूड़े-कचरे को उचित तरीके से निपटाने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
अपना योगदान देते हुए अगर औद्योगिक घराने, फैक्ट्रियां अपना रासायनिक कचरा नालों-नदियों में न बहाएं, तो इनमें बहने वाला जल पीने लायक न सही, नहाने लायक तो रह सकता है। उद्योगों से पैसा कमाने वाले, नियमों का पालन कागजों में नहीं, वास्तव में करें तो वे सच्चे राष्ट्रभक्त साबित हो सकते हैं।
कुदरत की मेहरबानी ने मानव जीवन में पुन: लौटना शुरू किया है, इस बेहतर प्रभाव से कोई अछूता नहीं है। पर्यटक बढ़ रहे हैं। अब उनकी जिम्मेदारी है कि प्रकृति के दिए उपहारों का ध्यान रखें, उन्हें नुकसान न पहुंचाएं। कुदरत की दी हुई मुफ्त नेमतों का खयाल रखना भी देशप्रेम है।
सड़कों की हालत आम लोग ठीक नहीं कर सकते, लेकिन गाड़ी चलाते हुए ट्रैफिक नियमों का पालन खुद से करें तो कई जिंदगियां बच सकती हैं। हम इसलिए गाडी तेज चलाते या गलत तरीके से आगे निकलते हैं, क्योंकि दूसरे ऐसा कर रहे होते हैं। विदेशियों से सीखने के लिए हम प्रसिद्ध हैं, लिहाजा उनसे सीखें, जो एक दिन में कई कई किलोमीटर पैदल चलते हैं और साइकिल भी उनके जीवन का जरूरी अंग है। वहां तो मंत्री भी अपने कार्यालय साइकिल से जाते हैं।
हमारे यहां वीआईपी गाड़ियों से झंडी सिर्फ सांकेतिक रूप में ही उतरी है, यह वास्तव में तभी उतर सकती है जब समाज के प्रशासनिक नायक अच्छा बदलाव करें। कुछ दूर चलना हो तो हमारे अधिकारी, मंत्री और राजनेता भी पैदल चल सकते हैं। सड़कों पर वाहन कम रहेंगे, तो पर्यावरण भी खुश रहेगा। हमारे विरोधी अच्छा बदलाव लाएं तो उनकी प्रशंसा करते हुए प्रेरित हों चाहें तो उनका शुक्रिया दूर से ही सही, लेकिन दिल से करें।
जागरूकता, सतर्कता और सुरक्षा सबसे पहले अपने आप से शुरू होती है और स्वानुशासन से व्यक्तिगत जीवन, परिवार और समाज सुधारने की शुरुआत होती है। कुल मिलाकर हमें अनुशासन और स्वानुशासन के दायरे में रहने की जरूरत है। सरकार की सीमाएं होती हैं। कितना अच्छा हो कि जो भी सहयोग हम दे सकें निर्विवाद दें।