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बस देश का नाम खराब नहीं होना चाहिए
मनीषा पांडेय।
31 साल के इजिप्ट के फिल्मकार मोहम्मद दिआब ने एक फिल्म बनाई, जो सार्वजनिक जगहों पर स्त्रियों के साथ होने वाली यौन हिंसा पर उस देश में बनी पहली फिल्म थी. अमेरिका और यूरोप का तो पता नहीं, लेकिन तीसरी दुनिया के किसी भी देश की कोई भी स्त्री उस फिल्म को देखते हुए ऐसा महसूस करेगी कि मानो ये उसकी अपनी कहानी है. दिल्ली की ब्लू लाइन बसों में सफर करने वाली इस शहर की लाखों लड़कियां सैकड़ों बार उस तकलीफदेह अनुभव से गुजरी हैं. ट्रेन, बस, बाजार, दुकान, संकरी तंग गलियों में मौका मिलते ही औरत की देह टटोलने वाले मर्द हाथों का अनुभव हर स्त्री के पास है, लेकिन उस मर्द को पलटकर दो तमाचे जड़ देने का अनुभव हर स्त्री के पास नहीं है.
ऐसी ही चंद कहानियों को एक तार में पिरोकर मोहम्मद दिआब ने कायरो 678 नाम की एक फिल्म बनाई, जिसे पूरी दुनिया में काफी सराहा गया. उस फिल्म में कुछ भी अतिरेक या अतिशयोक्ति नहीं है. तीन लड़कियां हैं. तीनों समाज के अलग-अलग तबके से आती हैं. एक बेहद निम्न मध्यवर्गीय परिवार की शादीशुदा लड़की है, जो एक सरकारी दफ्तर में काम करती है. उस बस में ट्रैवल करने से डर लगता है क्योंकि बस में बेतहाशा भीड़ होती है और भीड़ में मौका देखकर कोई न कोई मर्द हाथ उसे टटोलने लगता है. अगर वो पलटकर विरोध करने की कोशिश करे या उस मर्द से तमीज से खड़े रहने को कहे तो भीड़ उल्टे उस लड़की की की कैरेक्टर की बखिया उधेड़ने लगती है. इस डर से वो चाहती है कि ज्यादातर कैब से ही ऑफिस जाए. लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और आखिरकार उसे मजबूर होकर बस में जाना ही पड़ता है. बस में रोजमर्रा की इस छेड़खानी से आजिज आकर वो एक तरीका निकालती है. वो एक तेज धारदार सूई अपने हाथों में कसकर दबाकर रखती है और उसे गलत तरीके से छूने वाले मर्दों को इतनी फुर्ती से चुभोती है कि किसी को पता ही नहीं चलता कि हुआ क्या और मर्द उस बस से सीधे अस्पताल पहुंच जाते हैं.
एक और लड़की है, जो थोड़े मॉडर्न, थोड़े प्रोग्रेसिव, थोड़े अमीर परिवार से आती है. उसके साथ एक बार सड़क पर एक बार एक मर्द बदतमीजी करता है. चलती गाड़ी में उसकी छाती दबोच लेता है. वो लड़की उस आदमी को पहले पुलिस स्टेशन और फिर कोर्ट तक लेकर जाती है. लड़की पर उसके बॉयफ्रेंड और परिवार की तरफ से बड़ा दबाव है कि वो ये केस वापस ले ले. इससे परिवार की और उसकी इज्जत खराब हो रही है.
एक और तीसरी लड़की है, जो एकदम अपर क्लास से ताल्लुक रखती है. उसके जीवन में तो सबकुछ बहुत सुंदर था, उस दिन तक जब सबकुछ अचानक सुंदर नहीं रह गया. एक दिन फुटबॉल मैच से लौटते हुए भीड़ में कुछ लड़के उसके साथ छेड़खानी और फिर रेप करते हैं. वो खुद अपने दुख से उबर पाती, इससे पहले उसका अपना पति उसे इस तरह देखने और पेश आने लगता है मानो उस लड़के पर कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा है.
लड़की जितना आहत उस घटना से नहीं हुई थी, उससे ज्यादा अपने पति के व्यवहार से होती है. आखिरकार वो उस शादी को तोड़कर उसेस बाहर निकल जाती है और लड़कियों को सेक्सुअल हैरेसमेंट, रेप, हिंसा के प्रति जागरूक और सबल बनाने के लिए काम करना शुरू करती है. टीवी पर उसका एक शो आता है, जिसमें वो रोज औरतों को बताती है कि छेड़खानी का मुकाबला कैसे करें. अपने जीवन में हो रही हिंसा को कैसे रोकें. कैसे मजबूती से अपने पैरों पर खड़े हों.
पहली लड़की जब कायरो की बसों में मर्दों को घायल करना शुरू करती है तो धीरे-धीरे ये बात इतनी फैल जाती है कि पुलिस और मीडिया भी उस अनजान औरत की तलाश में लग जाता है, जो इस तरह मिस्र की चलती बसों में मर्दों को दर्दनाक ढंग से सूई चुभो रही है. एक पुलिस अफसर उस अंजान शख्स को ढूंढते हुए आखिरकार इन महिलाओं के पास पहुंचता है. उसके आगे क्या होता है, ये जानने के लिए ये फिल्म ही देखी जानी चाहिए.
फिल्म में और भी कई परतें हैं. समाज की, परिवार की, रिश्तों की, मीडिया की, पुलिस की और हर उस शख्स की, जो औरत नहीं है. हर उस शख्स की भी, जो कि औरत है. मर्द औरतों को कैसे देखते हैं, उनके साथ कैसे व्यवहार करते हैं और इस सतत हो रही हिंसा के बीच औरतें कैसे अपनी लड़ाई जारी रखती हैं.
यह फिल्म इतनी सहज, इतनी सच्ची और इतनी दुखदायी है कि इसे देखते हुए किसी को यकीन नहीं होगा कि इजिप्ट के महान ताकत की कुर्सियों पर बैठे हुए मर्दों को इस फिल्म से कोई आपत्ति भी हो सकती है. जब दुबई इंटरनशेनल फिल्म फेस्टिवल में ये फिल्म दिखाई जाने वाली थी तो इजिप्ट अटॉर्नी अब्देल हामिद शाबान ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया कि किसी भी तरह इस फिल्म को दिखाने से रोक दिया था. उनका कहना था कि इस फिल्म से देश का नाम खराब होता है.
कमाल की बात है न. देश में औरतों के साथ हिंसा होती रहे, रेप होता रहे, वॉयलेंस होता रहे, सेक्सुअल हैरेसमेंट होता रहे, देश की सड़कों पर, बसों में औरतें खुद को सुरक्षित महसूस न करें, देश का कानून बराबर होने का दावा करे, लेकिन औरतों को हिकारत से देखे और उनके साथ गैरबराबरी का व्यवहार करे तो देश का नाम खराब नहीं होता. देश की 70 फीसदी महिला आबादी के साथ हो रही यौन हिंसा से देश का नाम खराब नहीं होता. लेकिन उस सच पर फिल्म बना देने, उसे सिनेमा के पर्दे पर दिखा देने से देश का नाम खराब हो जाता है.
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