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दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 30 फीसदी और सबसे अधिक आबादी वाला महाद्वीप होने के बावजूद एशिया (Asia) विश्व स्तर पर पिछड़ रहा था
अशोक कुमार
दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 30 फीसदी और सबसे अधिक आबादी वाला महाद्वीप होने के बावजूद एशिया (Asia) विश्व स्तर पर पिछड़ रहा था. अधिकतर एशियाई देश विभिन्न औपनिवेशिक शक्तियों या शासकों के अधीन थे. इनमें से ज्यादातर देशों ने द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) के बाद अपने औपनिवेशिक आकाओं या अन्य शासकों से स्वतंत्रता प्राप्त करना शुरू कर दिया था. आजादी मिलने के बाद इनके सामने भोजन, दवा, आर्थिक विकास और विदेश नीति से संबंधित चुनौतियां थीं. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन (China) ही वीटो पावर वाला एकमात्र एशियाई देश था, हालांकि स्वतंत्रता प्राप्त करने के समय सभी 14 पड़ोसियों के साथ उसके सीमा विवाद थे.
चीन को छोड दिया जाए तो 1945 से 1990 के बीच एशियाई देशों की विकास की रफ्तार धीमी रही. लेकिन 1991 में सोवियत संघ (USSR) के विघटन और नए स्वतंत्र देशों के वजूद में आने के बाद हालात बदलने शुरू हुए. शीत युद्ध के खत्म होने, आर्थिक रूप से रूस के कमजोर पड़ने और अन्य जियोपॉलिटिकल परिस्थितियों की वजह से अमेरिकादुनिया का एकमात्र सुपर पावर बनने की दिशा में चल पड़ा. 1991 में भारत में उदारीकरण, अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए चीन के प्रयास, और जापान व दक्षिण कोरिया का भी प्रमुख आर्थिक केंद्र के रूप में उभरने से एशिया ने विश्व मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना शुरू कर दिया.
अमेरिका और यूरोप भी आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं
चीन के उदय ने न केवल रूस की जगह ले ली, बल्कि इसने विश्व मंच पर अमेरिका को चुनौती देना शुरू कर दिया, जहां चीन विश्व मंच पर सबसे प्रभावशाली स्थिति हासिल करने के एजेंडे के साथ आगे बढ़ा. एशियाई देश परमाणु, सैन्य और आर्थिक ताकत के साथ नए तरीके से उभर रहे थे, दूसरी ओर अमेरिका और यूरोपीय देशों की शक्तियों में गिरावट शुरू हो गई. इस संबंध में, अपने कंबोडियाई समकक्ष के साथ बातचीत के दौरान चीनी स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी की हालिया टिप्पणी बहुत मायने रखती है, जहां उन्होंने कहा कि दुनिया एशिया की आवाज पर पहले से अधिक ध्यान दे और वैश्विक शासन में 'एशियन मूवमेंट उभर रहा है.
वहीं अंतर्राष्ट्रीय नियम-कानून पर आधारित व्यवस्था ढह रही है, विदेश मामलों में अमेरिका और यूरोप अपनी श्रेष्ठता खो रहे हैं और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण एक नई विश्व व्यवस्था का उदय हो रहा है, क्योंकि इस दौरान अमेरिका और यूरोप भी आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, उन्हें बढ़ती महंगाई का सामना करना पड़ रहा है. हालांकि, चीनी बयानों को उनके संदिग्ध इरादे के कारण बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, फिर भी इस टिप्पणी पर ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि यह उभरती वास्तविकताओं पर आधारित है. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि दुनिया नई वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रही है. इसके मद्देनजर चीन ने वैश्विक विकास पहल (GDI) और वैश्विक सुरक्षा पहल (GSI) पेश किया है.
यदि चीन पड़ोसियों के साथ अपने रवैये में बदलाव लाता है तो इन दोनों पहल (GDI, GSI) में इतनी क्षमता है कि ये एशियाई देशों को दुनिया के मुख्य केंद्र में ला सकते हैं. भारत के साथ अपने सीमा विवादों, दक्षिण चीन सागर सहित इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में समस्या पैदा करने और ताइवान पर कब्जा करने के जुनून के कारण चीन संघर्ष का संभावित कारण बन सकता है. यदि चीन परिपक्वता दिखाता है और एशिया में अपने विस्तारवादी नीतियों को वापस लेता है, तो वह विश्व मंच पर एशिया का नेतृत्व कर सकता है, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है और संघर्ष होता है तो यह एशिया को न केवल कुछ साल, बल्कि कुछ दशक पीछे चला जाएगा. अमेरिका और यूरोपीय महाद्वीप की घटती शक्ति के लिए एशिया को उद्भव को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.
अमेरिका की घटती शक्ति एशिया के लिए राह तैयार कर रही
जैसे ही डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका के राष्ट्रपति की कमान संभाली, उन्होंने 'अमेरिका फर्स्ट' की नीति अपनाई और दुनिया के विभिन्न हिस्सों से अमेरिका को अलग करने की प्रक्रिया शुरू की. मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन भी इसी नीति पर चल रहे हैं. अफगानिस्तान से अचानक वापसी ने इस देश की छवि, क्षमता और विश्वसनीयता को कम कर दिया है. रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से स्वयं अमेरिका के कई दोष सामने आए हैं, और उसके नाटो देशों के साथ और भारत जैसे दूसरे करीबी देशों के साथ इसकी दूरियां और भी बढ़ गई हैं. इसकी घटती शक्ति के कुछ संकेतों की यहां (नीचे) चर्चा की जा रही है, जो एशियाई राष्ट्रों के उद्भव के लिए बेहतर अवसर प्रदान करते हैं:
रूस ने यूक्रेन की संप्रभुता और अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन किया है, लेकिन रूस के खिलाफ अमेरिका की प्रतिक्रिया मुख्य रूप से आर्थिक प्रतिबंधों के रूप में ही रही है. इस तरह रूस को नुकसान पहुंचाने की प्रक्रिया में उसने खुद को और अपने मित्र देशों को ही चोट पहुंचाई है जो भारी ऊर्जा संकट, महंगाई और आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं.
कई देशों ने अन्य मुद्राओं में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार शुरू किया है. यह बदलाव अमेरिका पर उल्टा असर डालेगा और उसका स्टेटस कमजोर होगा. रूस द्वारा रूबल-आधारित व्यापार और चीन द्वारा युआन-आधारित व्यापार ने अन्य देशों को भी अपनी मुद्रा में व्यापार करने की सुविधा दी है. यदि यह अस्थायी व्यवस्था स्थिर हो जाती है, तो अमेरिकी डॉलर अपनी चमक खो देगा और एशिया के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था के उदय को गति मिलेगी.
दुनिया की नए रूप के परिणामस्वरूप अधिकतर एशियाई देशों ने अमेरिका और यूरोप में उसके सहयोगियों पर निर्भर रहने के बजाए आपस में व्यापार बढ़ाया है.
परमाणु ताकत, मिसाइल, अंतरिक्ष और अन्य सैन्य-संबंधी गतिविधियों में भी, चीन आगे बढ़ रहा है, हालांकि इसके ठीक पीछे भारत है. अमेरिका की प्रतिष्ठित सैन्य शक्ति लगातार नीचे चली गई है.
रूस-यूक्रेन युद्ध समाप्त होने और इसका पूरा प्रभाव सामने आने के बाद चीन अमेरिका का और अधिक प्रभावी ढंग से सामना करने के लिए तैयार हो जाएगा. भारत भी तेजी से आगे बढ़ रहा है, ऐसे में एशिया एक ऐसा महाद्वीप है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.
यूरोप: रूस और अमेरिका के बीच फंसा महाद्वीप
अपनी जनसंख्या और आर्थिक व सैन्य शक्ति के कारण एशिया का उदय स्वाभाविक है, हालांकि, यूरोपीय देशों में आई गिरावट के कारण यह अधिक मजबूत हुआ है. इसके कुछ महत्वपूर्ण पहलू इस प्रकार हैं:
नाटो की छत्रछाया को छोड़ दिया जाए तो यूरोप अपना बचाव करने में असमर्थ है. फ्रांस और जर्मनी ने अपनी खुद की सुरक्षा क्षमता को बढ़ाने की जरूरत पर आवाज उठाई है लेकिन रूस खतरे का डर पैदा कर अमेरिका ने पूरे यूरोप को बंधक बना लिया है.
यूरोपीय देशों के अपने दोष हैं. ब्रेक्सिट के जरिए ब्रिटेन पहले ही यूरोपीय यूनियन से बाहर निकल चुका है. फ्रांस और जर्मनी सस्ती ऊर्जा और दूसरी सुविधाओं के लिए रूस पर निर्भर हैं, लेकिन यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस पर प्रतिबंधों के कारण अमेरिका ने इन्हें नुकसान पहुंचाया है. ये प्रतिबंध रूस की तुलना में यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचा रहे हैं.
यूक्रेन लगभग तबाह हो चुका है. जैसे ही युद्ध समाप्त होता है, वर्तमान में जारी वित्तीय सहायता के अलावा, यूरोपीय देशों को यूक्रेन के पुनर्निर्माण के लिए एक बड़ा खर्च उठाना होगा.
यूरोपीय देशों में बड़ी संख्या में शरणार्थी पहले ही आ चुके हैं जो मौजूदा कमियों का फायदा उठा रहे हैं और एक बड़ा आर्थिक झटका दे रहे हैं.
ये वह कारण हैं जो अमेरिका के साथ-साथ यूरोपीय देशों की घटती शक्ति को निर्णायक रूप से कम करते हैं. इन्हीं वजहों से अमेरिका और यूरोपीय देश, इस तथ्य के बावजूद, भारत के साथ अपने जुड़ाव को समाप्त नहीं कर पाए हैं कि नई दिल्ली ने न केवल रूस के साथ संबंध बनाए रखे हैं बल्कि प्रतिबंधों के बावजूद कच्चे तेल की खरीद में भी वृद्धि की है. इसके बजाए, वे भारत का समर्थन करते दिख रहे हैं.
आगे क्या होगा?
दो घटनाओं के एक साथ घटित होने से, पहली अमेरिका और यूरोप की गिरावट और दूसरी चीन व भारत जैसे एशियाई देशों के उदय ने एशिया के उद्भव में सहायता की है और दुनिया के पास इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है कि वह इस तथ्य पर ध्यान दे. जहां तक दो पहलों (GDI और GSI) पर चीनी प्रस्तावों का संबंध है, अगर चीन असाधारण कूटनीतिक कौशल दिखाता है, अपने विस्तारवादी रवैये पर अंकुश लगाता है और एशिया को युद्ध में नहीं ढकेलता है, तो ये अच्छे परिणाम दे सकते हैं. विश्व पटल पर एशिया ऊपर उठ सकता है लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब चीन इस महाद्वीप में अशांति पैदा न करे. चीन ने जो बयान दिए हैं, उसके मद्देनजर भारत को भी इस क्षण का उपयोग चीन के साथ अपने सीमा विवादों को हल करने के लिए करना चाहिए.
Rani Sahu
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