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सम्पादकीय
अगर बसवराज बोम्मई को लगता है कि कर्नाटक में योगी का 80/20 फॉर्मूला काम करेगा तो वे गलत हैं
Gulabi Jagat
14 April 2022 7:45 AM GMT
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कर्नाटक में स्थिति खतरनाक होती जा रही है
(लेखक-रामकृष्ण उपाध्याय): पिछले साल जुलाई में, जब बीजेपी (BJP) के केंद्रीय नेतृत्व ने पार्टी के दिग्गज नेता बीएस येदियुरप्पा को कर्नाटक के मुख्यमंत्री के पद से हटाकर उनकी जगह गैर-आरएसएस पृष्ठभूमि के अपेक्षाकृत नए चेहरे बसवराज बोम्मई (Basavaraj Bommai) को नियुक्त किया था, तब यह माना जा रहा था कि मोदी-शाह की जोड़ी राज्य में 2023 के विधानसभा चुनावों (2023 Assembly Election) से पहले लोगों के सामने एक ऐसा उम्मीदवार पेश करना चाहती है जो नया हो और साथ ही विवादों से दूर भी.
हालांकि शुरुआत में, बोम्मई के अचानक चयन ने सभी को हैरान कर दिया था और इससे पार्टी में कुछ समय के लिए ही सही, सवालों का एक तूफान भी आया था जो लाजमी भी था. आखिर बोम्मई 2008 में ही तो जनता परिवार से बीजेपी में शामिल हुए थे. बोम्मई के बारे में यही अंदाजा लगाया गया था कि वे बहुत जल्दी मनोभावों को पकड़ लेते हैं और तुरंत अपने काम में लग जाते हैं. 61 वर्षीय बोम्मई ने अपने पूर्ववर्ती की टीम के अधिकांश मंत्रियों और नौकरशाहों की कुर्सी को बरकरार रखा और नाराज येदियुरप्पा के प्रति भी समय-समय पर खूब सम्मान दिखाया. इससे लग रहा था कि बोम्मई एक सुचारू और 'गैर-विवादास्पद' प्रशासन देने के लिए तैयार हैं.
कर्नाटक में स्थिति खतरनाक होती जा रही है
लेकिन, कर्नाटक में इन दिनों जिस तरह सांप्रदायिकता को आधार बनाते हुए राजनीति हो रही है और वहीं अगले साल राज्य में चुनाव भी होने वाले हैं – इसे देखते हुए ऐसा होना नहीं चाहिए था. पिछले दो दशकों से दक्षिण में बीजेपी का एकमात्र गढ़ होने के नाते, राज्य एक ओर हिंदुत्ववादी ताकतों के लिए 'प्रयोगों' और दूसरी ओर चरमपंथी इस्लामी संगठनों द्वारा 'जवाबी हमले' का केन्द्र बन गया है. उडुपी, मंगलुरु, भटकल, कारवार, शिवमोग्गा और चिक्कमगलुरु के तटीय और मलनाड क्षेत्र (अपेक्षाकृत समृद्ध और राजनीतिक रूप से अति सक्रिय आबादी के साथ) तो मानो इन दिनों राजनीति के अखाड़े में बदल गए हैं. कांग्रेस और बीजेपी – दोनों ही पार्टियां लगातार अपने बयानों और कार्यों से सांप्रदायिक भावनाओं को उबाल रही हैं और इससे चुनावों में बड़ा लाभ पाने की उम्मीद भी कर रही हैं.
कर्नाटक के कई हिस्सों में मुस्लिम समुदाय को जिस भड़काऊ, बेतुके, अजीब और खतरनाक तरीके से निशाने पर लिया जा रहा है, उसे पिछले साल दिसंबर में शुरू हुए हिजाब विवाद से जोड़कर देखा जा सकता है. बीजेपी के अग्रणी संगठन, विश्व हिंदू परिषद (VHP) और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) पिछले कई वर्षों से दक्षिण कन्नड़ और उडुपी जिलों में बेहद सक्रिय हैं और वे लव जिहाद, अवैध पशु व्यापार जैसे मुद्दों को लगातार उठाते आ रहे हैं. इसी तरह मुसलमानों के अपने संगठन हैं, जैसे सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI), स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), जिसने बाद में खुद को पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) और इसके छात्र विंग, कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (CFI) में बदल दिया – जो शांति बहाल नहीं होने दे रहे हैं.
दिसंबर के मध्य में, उडुपी के एक कॉलेज की एक हिंदू छात्रा के साथ बलात्कार की घटना की सूचना मिली थी और एबीवीपी ने इसके विरोध में एक मार्च निकाला था. कुछ मुस्लिम छात्राएं भी इस विरोध में शामिल हुईं. तब पीएफआई ने इन छात्राओं से संपर्क करके कथित तौर पर उनसे कहा कि उन्हें एवीबीपी की गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिए. बात यहीं तक नहीं रही. बल्कि इन मुस्लिम छात्राओं को सीएफआई में शामिल होने के लिए मनाया भी गया.
हिजाब विवाद ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया
यह वो समय था जब उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव करीब आ रहे थे और ऐसा लग रहा था कि पीएफआई एक विवादास्पद मुद्दा उठा कर पूरे राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहती थी और इस तरह गैर-बीजेपी वोटों को मजबूत करना चाहती थी. पुलिस इंटेलिजेंस की रिपोर्ट बताती है कि एक योजना के तहत उडुपी में सरकारी प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज की छह छात्राएं – जो आमतौर पर कॉलेज में प्रवेश करने से पहले अपने हिजाब को हटाती थीं – अचानक, एक दिन, हिजाब पहनकर कक्षा में पहुंच गईं. इससे सभी दंग रह गए. कॉलेज ने उनको इस तरह कैंपस में रहने की इजाजत देने से इनकार कर दिया जिसके बाद पीएफआई ने दूसरे कॉलेजों तक में इस घटना के विरोध प्रदर्शन किए.
स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया ने शहर में पहुंचकर इस विवाद को नॉन-स्टॉप कवरेज दी और इसी बीच एबीवीपी, श्री राम सेना और बजरंग दल ने अपने लड़कों को भगवा शॉल पहनकर कक्षाओं में प्रवेश करने की कोशिश करने के लिए उकसाया. इससे फैली हिंसा की आंच राज्य के दूसरे क्षेत्रों तक भी पहुंच गई जिसके बाद कुछ दिनों के लिए स्कूलों और कॉलेजों को बंद कर दिया गया. इसके बाद हिजाब का मुद्दा कर्नाटक उच्च न्यायालय में पहुंच गया. हाई कोर्ट में एक महीने से अधिक समय तक चली लंबी सुनवाई के बाद, तीन-न्यायाधीशों की बेंच – कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रितु राज अवस्थी, न्यायमूर्ति कृष्णा दीक्षित और न्यायमूर्ति श्रीमती जेएम खाजी – ने फैसला सुनाया कि हिजाब पहनना एक आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है और उन्होंने शिक्षण संस्थानों में यूनिफॉर्म का पालन करने के राज्य सरकार के आदेश को बरकरार रखा.
हिजाब पहनने वाली लड़कियों की ओर से लगे देश के कुछ शीर्ष वकीलों ने कई दिनों तक तर्क दिया कि कैसे हिजाब पर प्रतिबंध ने अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (विश्वास पर कोई भेदभाव नहीं), अनुच्छेद 19 (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) और अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) के तहत संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का उल्लंघन किया है. लेकिन इनमें से कोई भी तर्क न्यायाधीशों के फैसले को बदल नहीं सका. यहां तक कि अंतिम समय में पेश की गई इस अपील – कि मुस्लिम लड़कियों को वर्दी के समान रंग का हेडस्कार्फ पहनने की अनुमति दी जाए – को भी अदालत ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह पढ़ने वाले बच्चों के बीच अलगाव पैदा करेगा और स्कूल की वर्दी लागू करने के धार्मिक और सांप्रदायिक विविधताओं से परे सद्भाव और सामान्य भाईचारे को बढ़ावा देने के उद्देश्य को फेल कर देगा.
इस तरह के एक स्पष्ट फैसले के बाद, हिजाब आंदोलन की अगुवाई करने वाले संगठनों से एक कदम पीछे हटने और छात्राओं को कॉलेज वापस जाकर पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए राजी करने की उम्मीद की गई थी. लेकिन बदले में फैसला न मानने वाली आवाजें उभरने लगीं और न्यायाधीशों के फैसले पर ही सवाल उठाए जाने लगे. हाई कोर्ट के फैसले के विरोध में राज्य के कुछ हिस्सों में मुस्लिम व्यापारियों ने एक दिन का बंद भी रखा. मामला अब सुप्रीम कोर्ट में चला गया है.
घटनाक्रम पर नजर बनाए रखने वालों का ये भी मानना है कि हलाल मांस पर विवाद, धार्मिक स्थानों द्वारा लाउडस्पीकर के उपयोग की शिकायतें, हिंदू मंदिरों के आसपास और धार्मिक मेलों के दौरान मुस्लिम व्यापारियों और विक्रेताओं पर 'प्रतिबंध' आदि घटनाएं हिजाब विवाद पर हाई कोर्ट का फैसला आने के त्वरित जवाब के तौर पर हुई हैं जिसमें एक समुदाय जोश में आकर न्याय व्यवस्था का ही अपमान करता नजर आ रहा है.
टकराव की शुरुआत
पूरे राज्य में साल भर सैकड़ों हिंदू धार्मिक मेले आयोजित किए जाते हैं, जिसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल होते हैं. तरह-तरह के सामान बेचने वाले छोटे व्यापारी और फेरीवाले इन जगहों पर कुछ दिनों से लेकर एक हफ्ते या उससे अधिक समय तक रहते हैं. उनका रहना इस बात पर निर्भर करता है कि 'जात्रे' कितने समय तक चलते हैं, और इस दौरान आम तौर पर सभी अच्छी कमाई करते हैं. ऐसे मेलों में मुस्लिम व्यापारियों और परिवारों का हमेशा स्वागत रहा है और किसी ने कभी किसी तरह की कोई शिकायत नहीं की.
लेकिन हिजाब विवाद के बाद अचानक मुस्लिम व्यापारियों पर बैन लगाने को लेकर आवाजें उठ रही हैं. हसन में प्रसिद्ध चेन्नाकेशव मंदिर, चिक्कमगलुरु में सुग्गी देवीरम्मा मंदिर (जो सप्ताह भर उत्सव मनाते हैं) के प्रशासकों ने कथित तौर पर मुसलमानों को मंदिरों के आसपास स्टॉल लगाने या सामान बेचने से रोक दिया. बैन का यह 'वायरस' जल्द ही और भी कई जगहों पर फैल गया. विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने तर्क दिया कि प्रशासन की डोर हाथ में होने की वजह से यह बोम्मई सरकार का कर्तव्य था कि वह धार्मिक आधार पर हो रहे इस तरह के स्पष्ट भेदभाव पर जल्दी से हस्तक्षेप समाप्त करे क्योंकि यह स्पष्ट रूप से संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन था, जिसमें लोगों की आजीविका का अधिकार भी शामिल था.
सारे घटनाक्रम देखकर यह स्पष्ट था कि बोम्मई सरकार ने दृढ़ता और निर्णायक रूप से स्थिति से निपटने की बजाय प्रतिबंध लगाने वाली साइड का पक्ष लिया. वहीं कानून और संसदीय मामलों के मंत्री जे सी मधुस्वामी ने 2002 में एसएम कृष्णा के मुख्यमंत्री काल के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक संस्थानों के पास गैर-हिंदुओं द्वारा व्यापार को प्रतिबंधित करने वाले एक ऐसे कानून को हाईलाइट कर कांग्रेस पर दोष मढ़ने की कोशिश की जिसके बारे में कम ही लोग जानते थे.
कर्नाटक धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ संस्थान अधिनियम 2002 के नियम 12 में कहा गया है कि धार्मिक संस्थानों के पास स्थित भूमि, भवन या साइटों सहित कोई भी संपत्ति गैर-हिंदुओं को पट्टे पर नहीं दी जाएगी. इसमें यह भी कहा गया है कि जमीन लीज पर लेने वाला पट्टेदार ऐसा कोई व्यवसाय नहीं चलाएगा जिससे मंदिर में आने वाले भक्तों की भावनाओं को ठेस पहुंचे या परिसर की पवित्रता प्रभावित हो.
इस पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बी एल शंकर ने जवाब दिया कि मेलों के दौरान मंदिरों के पास लगाई गई दुकानें या स्टॉल अस्थायी ढांचे थे और इस तरह यहां प्रॉपर्टी को पट्टे पर देने का कोई सवाल ही नहीं उठता है. उनका कहना है कि बीजेपी जानबूझकर राजनीतिक कारणों से नियमों की गलत व्याख्या कर रही है और इस तरह वह अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले समाज का ध्रुवीकरण करने के अपने उद्देश्य को पूरा करना चाहती है.
इसके अलावा, हिंदू अधिकारों के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं ने उगादी की पूर्व संध्या पर 'हलाल मीट बनाम झटका मीट' का मुद्दा भी उठाया. बता दें कि उगादी के अगले दिन कई हिंदू समुदाय थोडाकू मनाते हैं जिसमें बड़ी मात्रा में नॉन-वेजिटेरियन खाना परोसा और खाया जाता है. कार्यकर्ता चाहते थे कि मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए हिंदू हलाल मांस का बहिष्कार करें, लेकिन राज्य के अधिकांश हिस्सों में इस आह्वान का बहुत कम प्रभाव देखने को मिला. आखिर किसी के कहने से खाने की आदतें एकदम से नहीं बदल जाती हैं.
80/20 वाले फॉर्मूले को फॉलो करना चाहते हैं बोम्मई
इस पूरे हंगामे के दौरान, मुख्यमंत्री बोम्मई ने चुप्पी साधे रखी या फिर इक्का दुक्का बयान के साथ लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कहीं वे भी विभाजनकारी मुद्दों और इनको उठाने वाले लोगों के साथ तो नहीं हैं. हो सकता है कि इसके पीछे अप्रैल 2023 में होने वाले विधानसभा चुनावों में हिंदू वोट बटोरने की बीजेपी की रणनीति काम कर रही हो. या हो सकता है कि बोम्मई उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में योगी आदित्यनाथ के 80/20 वाले फॉर्मूले को फॉलो कर वैसे नतीजे पाना चाहते हों, जैसे हाल के राज्य चुनावों में बीजेपी को मिले है.
अगर बोम्मई कुछ इसी तर्ज पर ऐसा सोच रहे हैं और इसी वजह से कर्नाटक में मामलों को इस हद तक बिगड़ने दे रहे हैं, तो उनको और बीजेपी को तीन कारणों से इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. पहला तो ये कि उत्तर प्रदेश की तुलना में कर्नाटक का मिजाज पूरी तरह अलग है और सांप्रदायिक आधार पर विभाजन यहां कभी काम नहीं आया है. दूसरा योगी सरकार पांच साल के अपने पिछले कार्यकाल में राज्य में कई विकास कार्यों को शुरू करने और राज्य भर में सख्त प्रशासन रखने का दावा कर सकती थी. ऐसे में 80/20 फॉर्मूला उनके लिए एक चुनावी सप्लिमेंट्री पिल कहा जा सकता है.
तीसरा और शायद सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि 2019 के विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश के परिणामस्वरूप कर्नाटक में पिछले चार वर्षों में तीन अलग-अलग बेतुकी सरकारें बनीं और बोम्मई सत्ता के पिछले नौ महीनों में तो मुख्यमंत्री के घुटने की बिगड़ती समस्या की तरह राज्य में प्रशासन भी लगभग 'लंगड़ा' हो गया है. ऐसे में कर्नाटक में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ने देना वास्तव में बीजेपी सरकार पर भारी पड़ सकता है. अहम सवाल यह है कि अगर बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व कर्नाटक की घटनाओं को लेकर 'चिंतित' है, तो क्या वह बोम्मई को जल्दी से अपना रास्ता बदलने के लिए कहेगा या फिर वह एक और 'खेड़ा ऑपरेशन' का जोखिम लेने पर विचार करेगी? खैर, यह तो केवल समय ही बताएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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