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- धर्मशाला में हुंकारा
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By: divyahimachal
धर्मशाला की आभार रैली का मजमून, संदर्भ और सियासत साफ थी और इसीलिए माहौल के उत्साह को मनचाहा हिमाचल मिल गया। यह वह हिमाचल है जो सरकार व कर्मचारियों के बीच ओपीएस दिलाने का भरोसा और प्रदेश के अधिकारों को केंद्र से लाने का रास्ता तय करता है। इसीलिए जब आभार रैली का शंखनाद हो रहा था, तो कहीं हिमाचल सरकार यह भी समझ रही थी कि ओपीएस की बढ़ी हुई लागत में राज्य व केंद्र के संबंधों में दूरी को संघर्ष की बुनियाद से पाटा जाएगा। पूर्वविदित है कि एनपीएस के तहत केंद्र के पास 9245 करोड़ की भारी भरकम रकम फंसी हुई है और इसे वापस लेने के लिए पापड़ बेलने पड़ेंगे। यह राशि कर्मचारी वर्ग और सरकार के योगदान से एनपीएस के सफर की कहानी है, लेकिन अब इसकी हिस्सेदारी से ओपीएस का दारोमदार भी जुड़ता है। सवाल एनपीएस के साम्राज्य का नहीं क्योंकि वहां केंद्र सरकार के वित्तीय हिसाब के तर्क और रणनीति आसानी से इस धन की वापसी नहीं करना चाहती, बल्कि संघीय ढांचे और प्रदेश की आत्मनिर्भरता का है। धर्मशाला रैली में नमक हलाली के सबूत बन कर कर्मचारी उमंगें सरकार को साधुवाद देती रहीं, लेकिन प्रश्र अब 9245 करोड़ का रहेगा और इसीलिए इशारों-इशारों में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने बता दिया कि वक्त आ गया है कि राज्य अपने अस्तित्व के प्रश्रों पर दिल्ली कूच करे।
बेशक यह प्रश्र अब उस मिलकीयत का है, जहां कर्मचारियों की पाई-पाई जुड़ती रही और यह राज्य के वित्तीय ढांचे की जरूरत भी है कि राज्य सरकार सीधे केंद्र से आंख मिला कर पूछे। धर्मशाला में भरा गया हुंकारा अब कर्मचारियों को भी एक ऐसा मार्ग दिखा रहा है, जो इससे पहले कभी था ही नहीं। राज्य की प्रतिष्ठा, वचनबद्धता और वित्तीय अधिकारों के लिए पहली बार कर्मचारी भी एक पार्टी बन कर दिल्ली पहुंच जाएं, यह अपने आप में एक अद्भुत घटना होगी। इसी के पार्ट टू में मुख्यमंत्री विद्युत उत्पादन से हिमाचल के लिए मुफ्त में बिजली हासिल करने का बीड़ा भी उठाते हैं। धर्मशाला का मंच उन्हें हिमाचली अधिकारों की नए सिरे से व्याख्या करने का अवसर प्रदान करता है तो वह ऋण मुक्त हो रही विद्युत परियोजनाओं से 12 प्रतिशत नि:शुल्क बिजली के बजाए अब तीस प्रतिशत दर से इसे हासिल करने का ऐलान भी करते हैं। प्रदेश को आत्मनिर्भरता के नक्शे पर सुदृढ़ करने के लिए मुख्यमंत्री अपने कार्यभार संभालते ही काम पर डट गए हैं। वाटर सेस उनका एक साहसिक कदम है, भले ही पड़ोसी राज्यों ने इसे लेकर अंट शंट कहा हो या अपनी-अपनी विधानसभाओं में इसकी नाकाबंदी की हो, लेकिन सुक्खू सरकार अपने वित्तीय अधिकारों की फाइल को मोटा कर रही है। पानी, बिजली के बाद जंगल के पेड़ों से आत्मनिर्भरता ढूंढने की कोशिश की जाती है, तो राज्य का नजरिया एक नए निर्माण की शर्तों को यकीनन पूरा कर सकता है। बेशक पिछले कुछ दशकों से विशेष राज्य का दर्जा हासिल करके केंद्रीय संसाधनों की आपूर्ति में 90:10 का फार्मूला चलता रहा, लेकिन आत्मनिर्भरता के प्रयासों या कुछ परियोजनाओं के खातों में इस उम्मीद से भी भरपाई नहीं हुई। जिस प्रदेश की लगभग सत्तर फीसदी भूमि वनों के अधीन आती हो, वह अपनी विकास, आर्थिक, रोजगार तथा आत्मनिर्भर बनने की जरूरतों को कैसे पूरा कर सकता है।
या तो जंगल हमें आय का रास्ता दे या कुछ जमीन लौटा दे ताकि पूंजीनिवेश तथा अधोसंरचना के विकास से रोजगार व आय के साधन बढ़ सकें, वरना अनुमतियों और वन भूमि की अनापत्तियों में ही सरकार की मशक्कत में सत्ता का पूरा कार्यकाल ही न गुजर जाए। यह हमारे सामने है कि 68 विधानसभा क्षेत्रों में डे बोर्डिंग स्कूलों की जमीन तलाशते ही प्रशासन पसीना-पसीना हो रहा है और सरकार की प्राथमिकता के बावजूद अब तक केवल 13 स्थान ही चिन्हित हो पाए हैं, तो कसूर उसी जंगल का है जो कुंडली मार के हिमाचल की संभावनाओं को तिरोहित कर रहा है। विकास के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ होने के बावजूद वन भूमि की बाड़बंदी हिमाचल की सबसे बड़ी आफत है और इसे समझने तथा केंद्र को समझाने की जरूरत अति अहम है। बहरहाल धर्मशाला का हुंकारा यह भी साबित कर गया कि वर्तमान सरकार अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए चैन से नहीं बैठेगी और यह भी कि आत्मनिर्भरता के बहीखातों में सरकारी मशीनरी का गठजोड़, भरोसा व दक्षता हासिल की जाएगी। उम्मीद है कि आभार रैली केवल राजनीतिक तौर पर कांग्रेस सरकार को शाबाशियां देने के साथ-साथ इस प्रदेश की आर्थिक लाचारियों को समझते हुए ऐसी कार्यसंस्कृति का अनुसरण करेगी, जो सुक्खू सरकार की प्रतिबद्धता से आर्थिक खुशहाली लाने की प्रतिज्ञा भी है।
Rani Sahu
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