सम्पादकीय

हुड़दंग मेरा जन्मसिद्ध कार्य व्यापार है

Rani Sahu
30 March 2022 6:57 PM GMT
हुड़दंग मेरा जन्मसिद्ध कार्य व्यापार है
x
ये सरकार जी! समझते क्यों नहीं? हुड़दंग के बिना भी कोई वार त्योहार होता है क्या?

ये सरकार जी! समझते क्यों नहीं? हुड़दंग के बिना भी कोई वार त्योहार होता है क्या? अपने यहां सड़क से लेकर संसद तक कुछ विद्धमान है तो बस, हुड़दंग ही। हमारा जीवन पैदा होने से लेकर मरने तक हुड़दंग की ही तो अमिट गाथा है। जिस वार त्योहार में हुड़दंग की संभावनाएं न हों उसे मनाते हुए लगता है जैसे वह वार त्योहार बेकार आया है। जिस वार त्योहार के अवसर पर जमकर तनकर हुड़दंग न हो, वह काहे का वार त्योहार। हमारे वार त्योहार हमें शांति भाईचारे का नहीं, जबरदस्त हुड़दंग का संदेश देते हैं। मित्रो! अब कबूतर भी शांत प्रिय नहीं रहे। रहे होंगे जब वे शांतिप्रिय रहे होंगे। शांति से अब यहां बात बनती भी नहीं। जो चौबीसों घंटे शांति शांति का शोर मचाए रहते हैं, वे भी अच्छे बुरे वक्त के लिए आस्तीन में बंदूक छिपाए रखते हैं। क्या पता, भैयाजी को शांति के कंधे पर रख कब जैसे बंदूक चलानी पड़ जाए? बिन बदूंक शांति वार्ता नहीं हो सकती। शांति वार्ता के लिए वार्ता नहीं, जुबान पर बंदूक जरूरी होती है।

अब हमारी रग रग में खून नहीं, हुड़दंग प्रवाहित होता है। हमें स्कूल में तरीके से एडमिशन न होने पर हुड़दंग मचाना पड़ता है। हमें स्कूल में मास्टर जी पढ़ाएं तो हुड़दंग मचाना पड़ता है। हमें स्कूल में मास्टर जी न पढ़ाएं तो हुड़दंग मचाना पड़ता है। एग्जाम्स में सख्ती हो जाए तो हुड़दंग मचाना पड़ता है। मस्ती से मस्ती हो जाए तो हुड़दंग मचाना पड़ता है। राशन की दुकान पर कायदे से राशन न मिलने पर हुड़दंग मचाना पड़ता है। रोजगार के लिए दिए इंटरव्यू का परिणाम न आने पर हुड़दंग मचाना पड़ता है। और जगह की बात तो छोडि़ए जनाब! बहुत बार तो मंदिर में भगवान के दर्शन करने के लिए हुड़दंग मचाना पड़ता है। वीवीआईपी, वीआईपी चोर दरवाजे से और आम जनता जनरल दरवाजे पर जयकारा करते अपना गला सूखाती हुई। हम क्या पहनें, क्या नहीं, इसके लिए भी हुड़दंग मचाना पड़ता है। और जब कहीं हुड़दंग की संभावनाएं न लगें तो हुड़दंग क्रिएट करने के लिए ही हुड़दंग मचाना पड़ता है। वैसे आजादी के बाद हम कुछ अधिक ही हुड़दंग प्रिय हो गए हैं। अब हमें लगता है कि आजादी हमारा कोई और हमारा जन्म सिद्ध व्यापार व्यवहार हो या न, पर हुड़दंग हमारा जन्म सिद्ध व्यापार व्यवहार है। हमें खाने को रोटी न भी मिले तो भी चलेगा।
हमें पहनने को कपड़ा न भी मिले तो बहुत चलेगा, हमें गले पड़ने को दोस्त न भी मिले तो भी चलेगा, पर करने को हुड़दंग नहीं मिलेगा तो कतई नहीं चलेगा। पर ज्यों ही हमें हुड़दंग मचाने का बहाना हाथ लग जाए, तो समझो राम रत्न धन पायो! हम बहुधा जब हुड़दंग मचाते हैं तो कायदे से हुड़दंग को रोकने के लिए तैनात पुलिस वाले भी हमारे साथ अपनी ड्यूटी भुला पूरी ईमानदारी से चोरी छिपे हुड़दंग में शामिल हो जाते हैं। नौकरी जाए भाड़ में, हुड़दंग है तो जीवन है। हुड़दंग को एंज्वाय करो यार! नौकरी तो रिटायरमेंट होने तक होती ही रहेगी। अरे भैयाजी! हम शरीफ हुड़दंगियों को छोड़ शिष्ट सभाओं के हुड़दंगियों को रोकने के लिए बल का इस्तेमाल करो तो वहां कुछ काम धाम हो। पर नहीं, वहां तो जब देखो बस, हुड़दंग! हुड़दंग! हुड़दंग! कब एक दूसरे को वहां हुड़दंग की पेमेंट करते रहोगे जनताजी? हम आम लोग हुड़दंग करें तो पुलिस के डंडे, वे हुड़दंग करें तो वाह! वाह! वाह जी वाह! वैसे तो मेरी समझ में आज तक बहुत समझने के बाद भी कुछ समझ नहीं आया, पर हुड़दंग की यह दोहरी नीति भी मेरे जैसे जनरल कैटेगरी के हुड़दंगी की समझ में कतई नहीं आई। और बातों पर एक ही तरह की राष्ट्रीय नीति हो या न, पर कम से कम हुड़दंग पर तो एक ही तरह की राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए की नहीं भाई साहब? इस बारे क्या राय है आपकी?
अशोक गौतम


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story