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यह सुनते-सुनते काफी लोगों के कान पक चुके हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है
ओम प्रकाश यह सुनते-सुनते काफी लोगों के कान पक चुके हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. लेकिन यहां खेती करने वालों के हालात कैसे हैं इसकी तस्दीक हालिया जारी नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन (NSSO) की रिपोर्ट करती है. जिसमें बताया गया है कि अन्नदाताओं की प्रति महीने आय सिर्फ 10,218 रुपए है. इसमें भी फसलों से होने वाली इनकम का योगदान महज 3,798 रुपए ही है. इसकी बड़ी वजह उनकी उपज का सही दाम (Fair Price) न मिलना है. केंद्र सरकार जो दाम तय करती है जमीनी स्तर पर बहुत कम किसानों को उसका फायदा पहुंचता है. क्योंकि निजी क्षेत्र उतना दाम देने के लिए बाध्य नहीं है. ज्यादातर राज्यों में मंडियों का भारी अभाव है. इसलिए किसान पूरी तरह से व्यापारियों पर निर्भर हैं, जिनसे फसलों के उचित दाम मिलने की उम्मीद बेमानी है.
भारत में अन्नदाताओं की इनकम चपरासी से भी कम है. फसल का वाजिब दाम नहीं मिलने, कर्ज के बोझ तले दबने, उपज भंडारण सुविधाओं के अभाव और फसल नुकसान की भरपाई न होने की समस्या से किसान पहले भी जूझ रहे थे और आज भी. सरकारें आती हैं और जाती हैं लेकिन किसानों की दशा नहीं बदलती.
एग्री इनपुट एमआरपी पर मिलता है लेकिन…!
तमाम अवरोधों को पार करके जब किसानों की फसल तैयार होती है तो उसका उचित दाम नहीं मिलता. यूपी और बिहार जैसे सूबों में तो किसान अपनी उपज औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर हैं. हालात ये हैं कि सरकार की ऑनलाइन मंडी ई-नाम के प्लेटफार्म पर भी फसलों का उचित दाम नहीं मिल रहा. जबकि इसे कृषि सुधार की दिशा में एक कदम बताया जाता है. किसान कृषि इनपुट तो मैक्सीमम रिटेल प्राइस (MRP) पर खरीदते हैं, लेकिन, उनकी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की भी गारंटी नहीं मिलती.
दाम न मिलने से कितना नुकसान?
दिल्ली के कुछ दरबारी अर्थशास्त्री अक्सर यह कहते हैं कि एमएसपी की गारंटी (MSP Guarantee) दी गई तो देश बर्बाद हो जाएगा. इसकी गारंटी महंगाई भड़काएगी और सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ेगा. उन्हें मक्का 900 रुपये प्रति क्विंटल पर चाहिए और गेहूं-धान 1400-1500 रुपये पर. वो चाहते हैं मक्का और गेहूं अमेरिका के रेट पर मिले, लेकिन यह बात बताना भूल जाते हैं कि वहां किसानों (Farmers) को भारत से कितनी अधिक सब्सिडी मिलती है. ऐसे ही अर्थशास्त्रियों की ऐसी सोच की वजह से किसानों को कितना नुकसान हुआ है, क्या आपको इसका अंदाजा है?
आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 से 2016-17 के बीच भारत के किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम न मिलने के कारण 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. यह किसानों के हक का पैसा था जिसे बिचौलियों एवं दूसरे व्यापारियों ने खाया. यह पैसा किसानों के हाथ में आता तो शायद उनकी इतनी खराब स्थिति नहीं होती.
पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में बहुत कम है सब्सिडी
यह स्थापित सत्य है कि भारत में किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी पश्चिमी देशों के मुकाबले काफी कम है. यह बात खुद सरकार भी अंतरराष्ट्रीय फोरम पर मानती है. फिर भी कुछ अर्थशास्त्रियों को लगता है कि भारत में कृषि उपज दूसरे देशों से महंगी है. उनकी नजर में फसलों के दाम में वृद्धि से देश की अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ जाती है, जबकि दूसरी चीजों की महंगाई से इकोनॉमी मजबूत होती है. यही माइंडसेट किसानों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है.
कमाई घटी, आत्महत्या के मामले बढ़े
एनएसएसओ के मुताबिक वर्ष 2012-13 में किसान फसलों से अपनी कुल कमाई का करीब 50 फीसदी हिस्सा जुटाता था. लेकिन जुलाई 2018 से जून 2019 और 1 जनवरी 2019 से 31 दिसंबर 2019 के बीच हुए नए सर्वे की रिपोर्ट बता रही है कि अब फसलों की कमाई का योगदान सिर्फ 37 फीसदी (3798) रह गया है. यह रिपोर्ट तब आई है जब हम आए दिन 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का मंत्र पढ़ रहे हैं.
फसलों से होने वाली किसानों की कमाई कम हो रही है लेकिन कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं. साल 2020 के दौरान कृषि क्षेत्र में 10,677 आत्महत्या हुई है. जबकि 2019 में इस तरह के आत्महत्या के कुल मामले 10,281 थे. साल 2018 में 10,349 एवं 2017 में 10,655 किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की थी.
कर्ज का बोझ बढ़ा
एनएसएसओ ही रिपोर्ट बता रही है कि देश के किसान-परिवारों पर 2013 में औसतन 47,000 रुपये का कर्ज था. जबकि यह रकम 2019 में बढ़कर 74,121 रुपये हो गई है. देश के 50 प्रतिशत से अधिक कृषि परिवार आज भी कर्ज (Loan) में डूबे हैं. दूसरी ओर, नाबार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक 31 मार्च तक किसानों पर 16.80 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है. किसान नेता किसानों को इस कर्ज से स्थायी मुक्ति की मांग कर रहे हैं. ऐसा तभी हो सकता है जब बीज से बाजार तक की व्यवस्था पारदर्शी हो. किसानों को उनकी उपज का पूरा दाम मिले.
'एमएसपी की गारंटी' पर भ्रम फैलाने की कोशिश
कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि एमएसपी पर खरीदी जाने वाली 23 फसलों की पूरी खरीद अगर इसके मौजूदा रेट पर की जाए तो इस पर लगभग 17 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा. भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से भी ज्यादा खराब हो जाएगी.
जबकि सच तो यह है कि किसान ऐसा कह ही नहीं रहे हैं कि उनकी सारी फसलें सरकार ही खरीदे. किसानों का तो कहना है कि सरकार ऐसी कानूनी व्यवस्था बना दे जिससे कि एमएसपी के दायरे में आने वाली फसलों की निजी खरीद भी उससे कम पर नहीं की जा सके. उससे कम पर खरीद करने वाले पर कानूनी कार्रवाई हो.
नई उम्मीद
फिलहाल, कृषि कानूनों (Farm Laws) को वापस लेने का एलान करने के बाद मोदी सरकार ने एमएसपी को और अधिक प्रभावी व पारदर्शी बनाने के लिए एक कमेटी के गठन की बात कही है. जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के प्रतिनिधि, किसान, कृषि वैज्ञानिक और कृषि अर्थशास्त्री शामिल होंगे. देखना यह है कि इससे किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिल पाता है या नहीं.
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