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विधान के इस भाग में अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा मूलाधिकारों को इस प्रकार मिश्रित कर दिया गया है कि वे अलग भी नहीं हो सकते। श्रीमान मुझे विश्वास है कि यह मिश्रण उचित तथा आवश्यक है
रेवरेण्ड जेरोम डीसूजा,
विधान के इस भाग में अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा मूलाधिकारों को इस प्रकार मिश्रित कर दिया गया है कि वे अलग भी नहीं हो सकते। श्रीमान मुझे विश्वास है कि यह मिश्रण उचित तथा आवश्यक है। आखिर, अल्पसंख्यक यही चाहते हैं कि व्यक्तियों के अधिकारों का पक्का संरक्षण होना चाहिए। यदि ऐसा किया जाए, तो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की आवश्यकता ही न रह जाएगी और न इनकी मांग ही रह जाएगी। पर शासन की जनतंत्रात्मक प्रणाली में, जहां कि बहुसंख्यकों के मत से अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय हो सकता है, अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लेख होना ही चाहिए। किंतु अपने धार्मिक विश्वासों को मानने का, अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को अपनाए रखने का व्यक्ति को अधिकार है।... अगर इन अधिकारों को अंतत: सुरक्षित रखा जाता है, तो अल्पसंख्यकाधिकारों की जो मांग है, वह अपने आप ही लुप्त हो जाएगी।
..हमारे देश की तथा हमारे नेताओं की इच्छा यह है कि इस विस्तृत देश में राजनीतिक एकरूपता लाने के लिए कदम बढ़ाया जाए। दुर्भाग्यवश अल्पसंख्यकों को राजनीतिक आरक्षण देने की आवश्यकता से उस राजनीतिक एकरूपता के टूटने का खतरा पैदा हुआ और कुछ मात्रा में तो वह टूट भी गई। किंतु स्मरण रहे कि यह आरक्षण धार्मिक और सांस्कृतिक और वैयक्तिक अधिकारों के कारण आवश्यक समझे गए थे, और केवल राजनीतिक विशेषाधिकारों अथवा उनसे प्राप्त हो सकने वाले परिलाभों के कारण आवश्यक नहीं समझे गए। और जब तक इन सांस्कृतिक तथा वैयक्तिक अधिकारों का आरक्षण होता है, तब तक हमें किसी राजनीतिक आरक्षण की जरूरत नहीं है।... मेरी प्रार्थना है कि हम सब लोग यह सर्वदा स्मरण रखें कि राजनीतिक बंटवारे तथा प्रादेशिक स्वतंत्रता के नारे तब तक और उस हद तक न उठाए जा सकेंगे, जिस समय तथा हद तक सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अन्ततोगत्वा सुरक्षित ये अधिकार, अपने से संलग्न सब परिणामों सहित, ईमानदारी से लागू किए जाते हैं और पूरी तरह कार्यान्वित किए जाते हैं। हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे, जिससे वह नारा पुन: उठे। जहां तक छोटी-सी ईसाई जाति का संबंध है, हमने काफी हद तक राजनीतिक आरक्षणों का परित्याग कर दिया है और हम और भी आगे बढ़कर स्थानों के उस आरक्षण को भी छोड़ने के लिए तैयार हैं...।
मुझे विश्वास है कि ऐसा समय आएगा, जब जो लोग विशेष सहायता मांगेंगे या जिन्हें उसकी जरूरत होगी, उन्हें वह प्राप्त हो जाएगी और इसके लिए जातीयता के आधार पर आरक्षणों अथवा अभिरक्षणों की जरूरत न होगी; जबकि हमारे कानून निर्माता तथा नेता वैयक्तिक मामलों पर विचार कर सकेंगे, जिसमें सांप्रदायिक अथवा सामाजिक पृष्ठभूमि का अवश्य ध्यान चाहे रखा गया हो, किंतु वह सहायता अथवा वह रियायत सब व्यक्तियों को दी जाएगी, किसी जाति अथवा वर्ग-विशेष तक सीमित न होगी। ऐसा होने पर ही और ऐसी भावना के आने पर ही हमारे वर्ग भेद- जहां तक कि वह राजनीतिक दृष्टि से भयावह हैं और राजनीतिक पार्थक्य पैदा करते हैं, दूर होंगे। दूसरी ओर, यदि सांस्कृतिक, धार्मिक व इस प्रकार के अन्य अधिकारों का अभिरक्षण कर दिया जाए, तो मैं कोई कारण नहीं देखता कि इस देश की विभिन्न तथा इसका विरंगापन, जो गत वर्षों में राजनीतिक निर्बलता का कारण रहा है, अब देश के लिए शक्ति तथा शान का कारण क्यों न बन जाए। हम सच्चे हृदय से भरोसा करते हैं कि जिस भावना से हमारे न्यायाधीश भविष्य में इन अधिकारों की व्याख्या करेंगे, उनका अर्थ निकालेंगे, तथा उन पर अमल करेंगे, जिस भावना से बहुसंख्यक जाति उनको क्रियान्वित करेगी, उससे अल्पसंख्यकों की सारी आशकाएं दूर हो जाएंगी तथा उन्होंने राजनीतिक अधिकारों के परित्याग कर देने का जो मार्ग अब जान-बूझकर चुना है, उसमें उन्हें प्रोत्साहन मिलेगा। तभी निकट भविष्य में ही, मैं दूर भविष्य की प्रतीक्षा नहीं करता, इन 33 करोड़ लोगों की राजनीतिक एकता एक तरफ हो जाएगी, और समस्त जातियों के लोग नागरिक समानता के आधार पर, किंतु अपने-अपने धर्म को मानते हुए, अपने विश्वासों तथा आदर्शों पर चलते हुए, और उन विश्वासों तथा निष्ठा से अपनी वैयक्तिक शक्ति प्राप्त करते हुए, हमारी मातृभूति की महानता तथा समृद्धि के लिए कंधे से कंधा मिलाकर एक साथ कार्य करेंगे।
सोर्स- Hindustan Opinion Column
Rani Sahu
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