सम्पादकीय

कैसे लगे अवैध खनन पर लगाम

Subhi
26 July 2022 5:45 AM GMT
कैसे लगे अवैध खनन पर लगाम
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एनजीटी ने गुरुग्राम, फरीदाबाद और मेवात क्षेत्र के पांच सौ अड़तालीस वर्ग किलोमीटर में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था। अरावली की हरियाली लौटाने की दृष्टि से न्यायाधिकरण ने बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने को कहा था

प्रमोद भार्गव: एनजीटी ने गुरुग्राम, फरीदाबाद और मेवात क्षेत्र के पांच सौ अड़तालीस वर्ग किलोमीटर में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था। अरावली की हरियाली लौटाने की दृष्टि से न्यायाधिकरण ने बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने को कहा था और साथ ही क्षेत्र में कचरा फेंकने पर रोक भी लगा दी थी। लेकिन सरकार की लापरवाही और खनन माफिया के दबदबे से ये दोनों ही काम नहीं हो पाए और अवैध खनन आज भी जारी है।

देश के ज्यादातर राज्यों में अवैध उत्खनन का धंधा जोरों पर है। इसमें लगे माफिया इतने ताकतवर होते जा रहे हैं कि बड़े अधिकारियों की हत्या करने में तक में नहीं हिचकिचाते। शायद ही कोई ऐसा साल गुजरता हो जब ऐसे मामलों में पुलिस और प्रशासन को लोगों पर हमले और उन्हें बेदर्दी से मार डालने की घटनाएं सामने न आती हों। ताजा उदाहरण हरियाणा के नूंह में एक पुलिस उपाधीक्षक की डंपर से कुचल कर की गई हत्या है। कानून के शासन को यह चुनौती अरावली की उन पर्वत शृंखलाओं में मिल रही है, जो हरियाणा राज्य के साथ दिल्ली और इससे सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आती हैं। लंबे समय से सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में इस अवैध उत्खनन पर नजर रखी जा रही है। इसके बावजूद दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत शृंखला को अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है।

शीर्ष न्यायालय के प्रतिबंध के बावजूद पिछले आठ साल में खनन माफिया ने चार सौ मीटर व्यास और साढ़े तीन सौ मीटर ऊंचे इकतीस पहाड़ों को जमींदोज कर डाला। ये पहाड़ नूंह के तावड़ू कस्बे में पंचगांव और चिला गांव में फैले थे। यहां से निकाले गए पत्थर की खपत हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली में भवन और सड़क निर्माण में होती है। गुरुग्राम को आधुनिक शहर बनाने के लिए दस हजार एकड़ प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र को नेस्तनाबूद कर दिया गया। याद किया जाना चाहिए कि अवैध खनन को लेकर दस साल पहले भी मध्यप्रदेश के मुरैना में एक आइपीएस अधिकारी की ट्रैक्टर से कुचल कर हत्या कर दी गई थी। किसी तरह यह अवैध खनन रुके, इस पवित्र उद्देश्य को लेकर राजस्थान के भरतपुर में साधु-संतों का एक समूह पिछले डेढ़ साल से आंदोलन कर रहा है। इतने दिनों में भी कोई सुनवाई नहीं होने पर हाल में एक संत ने आत्मदाह तक कर लिया।

ऐसा भी नहीं कि अवैध खनन केवल अरावली की पहाड़ियों में चल रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण से खनन माफिया की जड़े देशभर में गहरी होती जा रही हैं। विडंबना तो यह कि इस पर अंकुश की बजाय ऐसे नीतिगत फैसले लिए जा रहे हैं, जिससे वैध-अवैध उत्खनन का दायरा बढ़ता रहे। मुश्किल यह है कि प्राकृतिक संपदाओं के अधिकतम दोहन को आधुनिक एवं आर्थिक विकास का नीतिगत आधार बना लिया गया है। लेकिन भारत में यह संकट दूसरे देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले चुका है। प्राकृतिक संसाधनों का जिस बेरहमी से दोहन जारी है, उस परिप्रेक्ष्य में मौजूदा आर्थिक विकास की निरंतरता तो बनी नहीं रह सकती, बल्कि दीर्घकालिक दृष्टि से देंखे तो विकास की यह आवधारणा उस बहुसंख्यक आबादी के लिए जीने का भयावह संकट खड़ा कर सकती है, जिसकी रोजी-रोटी की निर्भरता ही प्रकृति पर अवलंबित है। इसी खतरे को भांपते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 में अरावली पर्वत शृृंंखलाओं से उत्खनन पर पूरी तरह प्रतिबंधित लगा दिया था।

लेकिन पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से इस पर अमल में लापरवाही बरती जा रही है। नतीजतन राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने एक बार फिर इन सबसे पुरानी पर्वत शृंखलाओं को बचाने के लिए दिल्ली से सटे गुरुग्राम के पूरे अरावली क्षेत्र में सड़क निर्माण और पेड़ों के काटने पर रोक लगा दी थी। इस फैसले से यह संदेश गया था कि पर्यावरण सुरक्षा के लिए कड़े से कड़े कदम उठाए जा सकते हैं। लेकिन नूंह की घटना बता रही है कि अवैध खनन का कारोबार बदस्तूर जारी रहा। सवाल है कि आखिर कौन है इसका जिम्मेदार?

आज सीमेंट, कंक्रीट व लोहे की संरचनाओं से जुड़ा आधुनिक विकास हो अथवा कंप्यूटर व संचार क्रांति से संबंधित प्रौद्योगिक विकास, सबकी निर्भरता प्राकृतिक संपदा पर ही है। इस विकास की बुनियाद जल, जंगल और जमीन पर तो टिकी है ही, खनिज, जीवाश्म र्इंधन, रेडियोधर्मी और तरल पदार्थ भी विकास के अपरिहार्य पहलू बन चुके हैं। हालांकि ये खनिज संपदाएं अब अकूत नहीं रहीं। बेशुमार दोहन से इनके भंडार भी तेजी से घट रहे हैं। लिहाजा प्रकृति के समक्ष पारिस्थतिकी तंत्र के संतुलन का संकट गहराने के साथ बड़ी आबादी के जीने का अधिकार भी खतरे में पड़ता जा रहा है। क्योंकि प्रकृति के खजाने लूट लिए जाएंगे तो संविधान के अनुच्छेद इक्कीस में दिए गए जीने के अधिकार के प्रावधान का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।

एनजीटी ने गुरुग्राम, फरीदाबाद और मेवात क्षेत्र के पांच सौ अड़तालीस वर्ग किलोमीटर में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था। अरावली की हरियाली लौटाने की दृष्टि से न्यायाधिकरण ने बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने को कहा था और साथ ही क्षेत्र में कचरा फेंकने पर रोक भी लगा दी थी। लेकिन सरकार की लापरवाही और खनन माफिया के दबदबे से ये दोनों ही काम नहीं हो पाए और अवैध खनन आज भी जारी है। गौरतलब है कि अरावली की पहाड़ियां दुनिया की प्राचीनतम पर्वत शृंखलाओं में से हैं। लगभग आठ सौ किलोमीटर के दायरे में फैली ये पहाड़ियां गुजरात से शुरू होकर राजस्थान, हरियाणा होते हुए दिल्ली तक फैली हैं। मानव समुदाय के लिए इन पहाड़ियों का कुदरती महत्त्व है। इनकी ओट ही पश्चिमी रेगिस्तान को फैलने से रोके हुए है, वरना हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की जो उपजाऊ भूमि है, उसे रेगिस्तान में तब्दील होने में समय नहीं लगेगा।

अवैध खनन सिर्फ अरावली तक सीमित नहीं है। दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट में भी उत्खनन की जारी रहने से वन क्षेत्रों और नदियों की गहराई पर बुरा असर पड़ा है। पश्चिम के ये वन प्रांत दुर्लभ वनस्पतियों और जैव विविधता के अनुपम उदाहरण हैं। यहां के पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायलय को पहल करनी पड़ी थी। मध्य क्षेत्र में भी प्राकृतिक संपदाओं के बेहताशा दोहन से सतपुड़ा और विंध्याचल की पर्वत श्रेणियां और कई नदियों का वजूद संकट में है। छत्तीसगढ़ में कच्चे अयस्क के अति दोहन ने शंखिनी नदी को प्रदूषित कर डाला है। मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में लगे इस्पात संयंत्र रोजाना करीब साठ टन दूषित मलवा चंबल और चामला नदियों में बहा कर उन्हें दूषित बना रहे हैं।

बड़े पैमाने पर पारिस्थितिकी तंत्र को गड़बड़ाने वाली रेणुका बांध परियोजना को रद्द करने की भी मांग उठ रही है। इस परियोजना को अस्तित्व में लाने का मुख्य मकसद दिल्लीवासियों को अतिरिक्त साढ़े सत्ताइस करोड़ गैलन पानी प्रतिदिन मुहैया कराना है। 1994 की इस परियोजना पर पांच सहयोगी प्रदेश राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल और उत्तर प्रदेश समझौता करने एकजुट हुए थे। लेकिन राजस्थान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था। ऐसी स्थिति में पारियोजना रद्द मानी जानी चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। विषेशज्ञों का मानना है कि यह परियोजना जारी रहती है तो निचले हिमालय क्षेत्र में दो हजार हेक्टेयर में फैले जंगल और कृषि क्षेत्र डूब जाएंगे।

संकट इसलिए गहराता जा रहा है कि हम विकास का ऐसा आदर्श और संतुलित रूप तैयार करने में नाकाम रहे हैं जिसमें विकास की गतिशीलता भी बनी रहे और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को भी धक्का न पहुंचे। आधुनिक विकास का आधार प्राकृतिक संसाधन हैं, इसलिए केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे नीतिगत उपाय करती हैं, जिससे हर प्रकार के निर्माण कार्यों में कोई अड़चन न आए। खासतौर से भवन और सड़कों के निर्माण में सबसे ज्यादा इस्तेमाल खनन साम्रगी का होता है। इस्पात की भी इसमें बड़ी खपत होती है। अतएव, जब तक इन निर्माण पर अंकुश के नीतिगत और वैकल्पिक उपाय नहीं किए जाते, तब तक अवैध उत्खनन पर भी अंकुश लगना मुमकिन नहीं है।

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