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आंदोलन का अंजाम जब चुनाव बन जाए तो तय है कि इससे न केवल मुद्दों के प्रति निराशा पैदा होती है
Faisal Anurag
आंदोलन का अंजाम जब चुनाव बन जाए तो तय है कि इससे न केवल मुद्दों के प्रति निराशा पैदा होती है बल्कि भविष्य के आंदोलनकारी भी संदेह के शिकार बन जाते हैं. पहले झारखंड आंदोलन, फिर विस्थापन विरोधी आंदोलन और अब खतियान आधारित नियोजन नीति का आंदोलन इसी मर्ज का शिकार हो गया है. अभी तो आंदोलन का तेवर पूरे झारखंड में गहरा असर भी नहीं दोड़ पाया है कि नेताओं ने जल्दबाजी दिखा दी. यानी चुनाव लड़ने के लिए पार्टी बना दी गयी. पार्टी बनाने की प्रक्रिया ने यह साबित कर दिया कि आंदोलन का लक्ष्य किसी बड़े मकसद के लिए नहीं है, बल्कि उसके पीछे विधानसभा तक पहुंचने का अवसरवाद क्रियाशील है.
ऐसा आखिर क्यों होता है कि आंदोलन का मतलब ही चुनावी तैयारी जैसा बना दिया जाता है. किसानों ने ऐतिहासिक आंदोलन किया और आधी जीत भी हासिल की. लेकिन यह आंदोलन भी सत्ता के मायाजाल से नहीं बच सका. पंजाब में किसानों की विकास समाज पार्टी, जिसे बहुसंख्यक किसान संगठनों ने मिल कर बनाया था, विधानसभा चुनाव में जमानत भी नहीं बचा सकी. जिस आंदोलन ने पंजाब की राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित किया वह राजनैतिक विकल्प बनने में विफल हो गया. क्या इससे आंदोलन करने वाले समूह कभी कोई सबक हासिल करेगे. झारखंड के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि सामाजिक राजनैतिक जीवन की शुरूआत के साथ ही सत्ता मोह हावी दिखने लगता है.
समाज विज्ञानी मानते हैं कि आंदोलनों से समाज में वैकल्पिक नरेटिव विकसित होता है लेकिन उसे स्थायी वैचारिक ऊर्जा देने के बजाय आंदोलनकारियों का बड़ा तबका भटक कर उन्हीं प्रवृतियों को अपना लेता है जिसने संसदीय राजनीति को बेहद बदनामी दी है. किसी भी आंदोलन के लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि वह जिन सपनों और आकांक्षाओं के आधार पर जनसमर्थन खड़ा करता है उसेलंबे समय तक किस तरह बने,बनाए लीक से बचा सके.
संसदीय रानीतिक दलों की सबसे बड़ी खासियत यह हो गयी है कि वह जानता है कि देर सबेर आंदोलनों के नेता उनकी शरण में ही आएंगे. भारत में दो बड़े आंदोलन हुए, 1974 का जयप्रकाश आंदोलन और 1980 के बाद का असम आंदोलन. जेपी आंदोलन में संघर्ष वहिनी को छोड़ शेष सभी चुनावी राजनीति के सिरमौर बने. लेकिन समाज या राजनीति में बुनियादी बदलाव के प्रतीक नहीं बन सके. बदलाव तो दूर की बात है बाद में राजनैतिक नैतिक मूल्यों का काई आदर्श भी पेश नहीं कर सके. देश पहले से ज्यादा अनुदार हुआ और समाजिक धार्मिक सद्भाव की विरासत भी प्रभावित हुयी.
असम आंदोलन के नेता तो विश्वविद्यालयों से निकलने के पहले ही सत्ता में पहुच गए और अवसरवादी राजनीति की नयी मिसाल कायम करने में कारगर साबित हुए. एक और आंदोलन अन्ना हजारे के नेतृतव में हुआ. उसमें शामिल सबसे बड़ा समूह अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दो राज्यों में सत्ता में है और कुछ भारतीय जनता पार्टी के सत्ताकाल में ताकतवर बने हुए हैं. लेकिन अन्ना का लोकपाल आज भी अपनी स्वायत्तता के लिए तड़प रहा है. जिस बंदलाव की बयार की आकांक्षा आंदोलन ने युवाओं में पैदा की थी 9 सालों में वे बदलाव कहीं नजर नहीं आए हैं.
Rani Sahu
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