सम्पादकीय

शंघाई सहयोग संगठन कितना सार्थक, आंतरिक विरोधाभास ही उसकी प्रगति में बाधक

Rani Sahu
20 Sep 2022 5:50 PM GMT
शंघाई सहयोग संगठन कितना सार्थक, आंतरिक विरोधाभास ही उसकी प्रगति में बाधक
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सोर्स- Jagran
हर्ष वी पंत: उज्बेकिस्तान के समरकंद में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ का शिखर सम्मेलन बीते दिनों चर्चा में रहा। उसकी सबसे खास झलकियों की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाकात बड़ी खास रही। उसमें मोदी ने पुतिन से कहा कि 'यह युद्ध का युग नहीं है!' प्रधानमंत्री का संकेत यूक्रेन को लेकर था। हालांकि यूक्रेन युद्ध की शुरुआत से ही नई दिल्ली का यही रुख है, लेकिन मोदी का सार्वजनिक रूप से इसे रेखांकित करना यह दर्शाता है कि रूस के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं और यह उसकी योजनाओं के अनुरूप दिशा में नहीं जा रहा।
यूक्रेन युद्ध को लेकर न केवल भारत, बल्कि चीन की असहजता भी स्पष्ट दिखती है। स्वयं पुतिन यह स्वीकारोक्ति करते दिखे कि वह यूक्रेन युद्ध के मसले पर चीन के 'सवालों और चिंता' को समझते हैं, वह भी तब जबकि चीन ने सार्वजनिक रूप से ऐसा कुछ नहीं कहा। उलटे पुतिन से राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मुलाकात पर चीन यही दर्शाने पर जोर देता रहा कि दोनों नेताओं की बैठक अमेरिकी चुनौती से निपटने के साझा प्रयासों पर केंद्रित रही। चीन ने यही मंशा दिखाई कि वह रूस के साथ काम करने का इच्छुक, महाशक्तियों की जिम्मेदारी से अवगत और अस्थिरता से गुजर रही दुनिया में स्थायित्व और सकारात्मक ऊर्जा के संचार में भूमिका निभाने की दिशा में सक्रिय है।
इसके बावजूद वैश्विक चुनौतियों के मुद्दे पर मोदी कहीं ज्यादा मुखर थे, जब उन्होंने पुतिन से कहा, 'हम पहले भी कई बार फोन पर इस विषय में बात कर चुके हैं।' मोदी का आशय खाद्य सुरक्षा, ईंधन सुरक्षा और उर्वरक उपलब्धता से जुड़ा था, जो कि आज विश्व की सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभरी हैं। इस लिहाज से दुनिया के कई नाजुक देशों पर यह समस्या बहुत भारी पड़ रही है। मोदी ने शांति के पथ पर अग्रसर होने की पैरवी करते हुए पुतिन को 'लोकतंत्र, कूटनीति और संवाद' की महत्ता का भी स्मरण कराया।
व्यापक संदर्भों से देखें तो एससीओ शिखर सम्मलेन का आयोजन काफी भव्य रहा। इसके विस्तार के भी संकेत दिखे। बहरीन, मालदीव, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात एससीओ में नए संवाद सहयोगी बनाए गए हैं, जबकि मिस्र, सऊदी अरब और कतर के लिए यह प्रक्रिया आरंभ की गई है। इसका 121 सूत्रीय समरकंद घोषणापत्र भी खासा महत्वाकांक्षी है, जो 2023-27 के लिए व्यापक कार्ययोजना निर्धारित करते हुए एससीओ सदस्य देशों के बीच मित्रता और सहयोग से संबंधित प्रविधानों का खाका खींचता है। इसके बावजूद इस सम्मेलन ने समूह के भीतर विभाजक रेखाओं को भी स्पष्ट किया।
यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद यह पुतिन और चिनफिंग की पहली मुलाकात थी और इसमें शी अपने रूसी समकक्ष को जुमलों के अलावा और कुछ नहीं दे पाए। जबकि चीन बड़ी मात्रा में रूस से सस्ता तेल खरीद रहा है, लेकिन उसने रूस को अभी तक कोई बड़ी मदद नहीं पहुंचाई है। समरकंद में शी यूक्रेन पर किसी भी प्रकार की चर्चा से बचे। इसके बजाय उन्होंने मध्य एशिया में चीन की व्यापक भूमिका पर जोर दिया, क्योंकि रूस अभी इस मोर्चे पर कुछ खास नहीं कर सकता। देखा जाए तो चीन-रूस संबंध समय के साथ एकतरफा होते जा रहे हैं और एससीओ इसकी पुष्टि का ताजा पड़ाव बना।
इस सम्मेलन के जरिये रूस पश्चिम को यह दिखाने की फिराक में था कि वह अलग-थलग नहीं पड़ा, मगर उसके लिए यह मंच असहज करने वाला सिद्ध हुआ, क्योंकि यूक्रेन पर रूसी आक्रामकता पर शायद ही कोई सदस्य खुलकर मास्को के समर्थन में आया हो। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि रूस कहीं ज्यादा तेजी से यूक्रेन में अपना नियंत्रण गंवा रहा है। रूस के विकल्प भी सीमित होते जा रहे हैं। इसका प्रभाव एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उसकी हैसियत पर भी पड़ रहा है। समय के साथ जाहिर होती रूस की कमजोरियों से पूर्व सोवियत राष्ट्रों की अपने भविष्य के प्रति चिंता बढ़ी है। मास्को पर उनकी निर्भरता एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि कमजोर रूस अपने आर्थिक एवं सामरिक मामलों को प्रभावी रूप से संभालने में सक्षम नहीं रहेगा।
जहां रूस अभी यूक्रेन में फंसा है, वहीं आर्मेनिया और अजरबैजान में कुछ दिन पहले ही तनाव फिर से बढ़ गया। जिस समय एससीओ में अच्छे पड़ोस को लेकर प्रवचन हो रहा था, उसी दौरान मध्य एशिया में किर्गिस्तान-ताजिकिस्तान सीमा पर संघर्ष का नया मोर्चा खुल गया। उनकी हजार किलोमीटर लंबी सीमा में से एक तिहाई हिस्से पर विवाद है। एक अन्य मध्य एशियाई देश कजाखस्तान ने भी यूक्रेन पर रूस का समर्थन करने में हिचक दिखाई और ऊर्जा आपूर्ति के लिए पश्चिम का रुख कर रहा है।
इस क्षेत्र के अधिकांश देश व्यापार विविधीकरण कर रूस पर अपनी निर्भरता घटाने के प्रयास में हैं। पिछले महीने ही ताजिकिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व में हुए सैन्य अभ्यास में ताजिकिस्तान, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, मंगोलिया, पाकिस्तान और उज्बेकिस्तान ने हिस्सा लिया। स्पष्ट है कि मध्य एशियाई देश पश्चिमी देशों और चीन एवं भारत जैसी उभरती आर्थिक महाशक्तियों के साथ नए अवसर तलाश रहे हैं। रूस उनके लिए समस्या जैसा बन गया है।
एससीओ पर धूमधड़ाके के बीच कोई संदेह नहीं कि भविष्य में इस मंच के लिए चुनौतियां और बढ़ेंगी। मध्य एशिया में बेहतर पहुंच और मुक्त आवागमन के लिए नई दिल्ली का इसमें दांव समझ आता है। वहीं अधिकांश मध्य एशियाई देशों की तरह रूस और चीन द्वारा इसे पश्चिम विरोधी मंच बनाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं। चीन को व्यापक रूप से नजरअंदाज कर भारत ने रूस को इस रुख से अवगत करा दिया है। जब भारत सदस्य देशों से आतंकवाद के विरुद्ध साझा सहमति की उम्मीद लगाए था, उसी दौरान चीन संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकी साजिद मीर का समर्थन करके उसे नाउम्मीद कर रहा था। चार महीनों में बीजिंग की ऐसी तीसरी कोशिश ने भारत-चीन संबंधों के समीकरण और बिगाड़ दिए। इससे स्पष्ट है कि एससीओ के भीतर आंतरिक विरोधाभास ही भविष्य में उसकी प्रगति में बाधक बने रहेंगे।
Rani Sahu

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