सम्पादकीय

विदेशों में प्रवासी भारतीयों के सामने पिछली सरकारों की आलोचना कितनी जायज?

Rani Sahu
4 May 2022 2:23 PM GMT
विदेशों में प्रवासी भारतीयों के सामने पिछली सरकारों की आलोचना कितनी जायज?
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जर्मनी में प्रवासी भारतीयों के लगभग 1600 सदस्यों में से अधिकांश लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी पर अपना सिर खुजला रहे होंगे

राकेश दीक्षित

जर्मनी में प्रवासी भारतीयों के लगभग 1600 सदस्यों में से अधिकांश लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी पर अपना सिर खुजला रहे होंगे. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि, "अब किसी भी पीएम को यह नहीं कहना होगा कि मैं दिल्ली से 1 रुपये भेजता हूं लेकिन लोगों तक केवल 15 पैसा पहुंचता है." प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के भाषण के संदर्भ में दिया गया था. 1985 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शताब्दी समारोह के अवसर पर मुंबई में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था, मैं दिल्ली से 1 रुपये भेजता हूं, लेकिन केवल 15 पैसा ही लोगों तक पहुंचता है."
स्पष्टवादी राजीव गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए मंच से स्वीकार किया था कि उन्हें एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था विरासत में मिली है जो एक रूपए में सिर्फ 15 पैसे ही लक्षित लाभार्थियों को देती है. बहरहाल, उसी वर्ष जब राजीव गांधी संयुक्त राज्य अमेरिका गए तो उन्होंने अपने देश के सिस्टम की कमियों के बारे में बोलने से परहेज किया. इसके बजाय, उन्होंने 1985 में संयुक्त राज्य कांग्रेस के संयुक्त सदनों को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध टिप्पणी की, "मैं युवा हूं और मेरा भी एक सपना है."
राजीव गांधी की नजर 21वीं सदी में भारत के भविष्य पर टिकी थी
राजीव गांधी की नजर 21वीं सदी में भारत के भविष्य पर टिकी थी. विदेश में रहते हुए वे भारत के सभ्यतागत प्रगति के बारे में बोलते थे. साथ ही अतीत के साथ निरंतरता की बात करते थे. वे सभी क्षेत्रों में अपनी सरकार की नीतियों में बदलाव लाना चाहते थे. बदलाव की यह नीति विदेश संबंधों में भी देखने को मिलता था, लेकिन ये बदलाव प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा अपनाए गए व्यापक ढांचे के अंतर्गत ही रहता था. पिछली सरकारों की आलोचना न करना इस ढांचे के प्रमुख नियमों में से एक था. अटल बिहारी वाजपेयी सहित सभी आने वाली सरकारों ने इस अघोषित सिद्धांत का पालन किया.
इसके ठीक उलट विदेशों में प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछली सरकार को कुछ अवमानना के साथ याद करते हैं. इसके पीछे उनका मकसद होता है – लोगों को यह बताना कि कैसे उनकी सरकार पहले की सरकार की तुलना में स्वच्छ है और अलग भी है. ऐसा करके प्रधानमंत्री दर्शकों में भारत के गर्व और पुरानी यादों को जगाने में कामयाब होते हैं. लेकिन अक्सर ही पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकलापों की कीमत पर जिस तरह अपनी सरकार का वे सुंदर आकलन करते हैं वह विदेशों में बसे भारतीयों के साथ एक तरह से विश्वासघात ही है.
2014 से पहले देश की प्रगति उतनी न हो सकी
निस्संदेह भारत की अपनी असंख्य समस्याएं हैं, जिसकी वजह से 2014 से पहले देश की प्रगति उतनी न हो सकी. उनमें से अधिकांश समस्याएं अभी भी बनी हुई हैं. मोदी सरकार ने उन समस्याओं को पिछली सरकारों की तुलना में अधिक कुशलता और तेजी से हल किया है. लेकिन उनकी सरकार ने कुछ अन्य समस्याओं को भी बढ़ने दिया है. मिसाल के तौर पर सांप्रदायिकता का मुद्दा देख लें. आज देश की राजव्यवस्था पर सांप्रदायिकता का घाव पहले से कहीं ज्यादा बड़ा है.
अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने यह दावा किया कि भारत में पिछले तीन दशकों के राजनीतिक रूप से अस्थिर माहौल को एक बटन दबाकर समाप्त कर दिया गया है. ये अत्यधिक विवादास्पद बयान है. ये बात जरूर है कि कुछ ऐसी गठबंधन सरकारें रही हैं जो अपने अंतर्विरोधों के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई हैं. बहुमत साबित करने में नाकाम रही सरकारों में से एक का नेतृत्व मोदी की पार्टी के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था.
प्रधानमंत्री ने तकनीकी प्रगति में एक बड़ी छलांग लगाने और उद्योग-धंधे लगाने के लिए एक माहौल देने की बात कही. लेकिन उन्होंने पीवी नरसिम्हा राव सरकार का उल्लेख नहीं किया. गौरतलब है कि नरसिम्हा राव सरकार की नीतियों की वजह से ही आर्थिक उदारीकरण का युग शुरू हुआ था. नरसिम्हा राव की सरकार गठबंधन की सरकार थी लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने शानदार ढंग से अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया. इसे कतई भी अस्थिर सरकार नहीं कहा जा सकता है.
यूपीए सरकार ने जीडीपी वृद्धि हासिल करने का अनूठा गौरव हासिल किया
इतना ही नहीं डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल के दो कार्यकाल को किसी भी मायने में अस्थिर नहीं कहा जा सकता था. यूपीए सरकार पूरे दस साल तक चली और दोहरे अंकों की जीडीपी वृद्धि हासिल करने का अनूठा गौरव हासिल किया. मोदी सरकार उस अर्थव्यवस्था की आधारभूत संरचना का लाभ उठा रही है जो उसे यूपीए सरकार से विरासत में मिली है. इसके बावजूद दो अंकों की वृद्धि मोदी सरकार के लिए एक कल्पना बनी हुई है. दोहरे अंकों की जीडीपी हासिल न कर पाने के लिए COVID-19 को बहाना नहीं बनाया जा सकता है. महामारी की शुरुआत से पहले ही अर्थव्यवस्था छह प्रतिशत जीडीपी से नीचे संघर्ष कर रही थी.
ये एक भ्रम है कि बहुमत वाली और मजबूत सरकार ही आर्थिक प्रगति की गारंटी हो सकती है. राजीव गांधी की सरकार को तीन-चौथाई बहुमत प्राप्त थी लेकिन बिना किसी यादगार उपलब्धि के जनता के गुड-विल को यूं ही बर्बाद कर दिया गया. इसके विपरीत, पीवी नरसिम्हा राव की गठबंधन सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए गेम-चेंजर साबित हुई. दुनिया भर में कई अल्पकालिक सरकारें रही हैं और वहां एक के बाद एक राष्ट्राध्यक्ष आते और जाते रहे. लेकिन फिर भी इन देशों की आर्थिक प्रगति कभी भी प्रभावित नहीं हुई. इस संबंध में जापान और इटली के नाम आसानी से दिमाग में आते हैं. इन दोनों आर्थिक महाशक्तियों ने शानदार प्रदर्शन किया है और दिखाया है कि अर्थव्यवस्था को किस तरह राजनीतिक उथल-पुथल से अछूता रखा जा सकता है.
दूसरी तरफ श्रीलंका का तेज पतन हमारे सामने है. द्वीप राष्ट्र के लोगों ने एक मजबूत नेता चुना था क्योंकि इसी नेता ने तमिल आतंकवादियों को निर्दयतापूर्वक रौंद दिया था. श्रीलंका की जनता ने अपनी कृतज्ञता का इजहार ही किया था. बहरहाल जिस भारी बहुमत ने गोटाबाया राजपक्षे को चुना वही अब हिंसक रूप से राष्ट्रपति के खिलाफ हो गया है. ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो और तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन दो ऐसे "मजबूत" नेता हैं जिन्हें आजकल लोगों के क्रोध का सामना करना पड़ रहा है. जनता ने इन लोगों को इसलिए चुना था कि उन्हें विश्वास था कि ये देश में क्रांतिकारी बदलाव लाएंगे. गौरतलब है कि ये दोनों नेता भी अपने पूर्ववर्तियों को बदनाम करने के लिए जाने जाते हैं.
Rani Sahu

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