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साहित्य की दुनिया में यह सवाल अक्सर खड़ा हो जाता है
साहित्य की दुनिया में यह सवाल अक्सर खड़ा हो जाता है कि किसी बड़े लेखक को उसके निधन के बाद किस रूप में याद किया जाए और अगर वह लेखक अपने जीवन काल में विवादास्पद रहा हो तो यह समस्या और गहरी हो जाती है। सवाल यह है कि क्या लेखक का मूल्यांकन करते हुए उसके अंतर्विरोध को छुपा लिया जाए या उसके अंतर्विरोधों के आधार पर उसे खारिज कर दिया जाए? पिछले दिनों नामवर जी के निधन के बाद आई उनकी जीवनी ने ऐसा ही विवाद खड़ा कर दिया। यह अलग बात है कि प्रकाशक ने वह जीवनी वापस ले ली क्योंकि उसमें नामवर जी के बारे में एक ऐसा गलत तथ्य छप गया था, जिसका संबंध नामवर जी से नहीं, बल्कि उनके मित्र और शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी से था।
भयंकर गलती के पीछे नामवर जी के पुत्र द्वारा संपादित पुस्तक "आमने सामने" का हाथ रहा, जिसमें एक दैनिक में प्रकाशित नामवर जी और विश्वनाथ त्रिपाठी के अलग-अलग इंटरव्यू को मिला दिया गया था, जिसके कारण जीवनी में यह बात छप गई कि नामवर जी कभी संघ परिवार में थे और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्हें जेल में रखा गया था, जबकि यह घटना श्री विश्वनाथ त्रिपाठी से संबंधित थी पर सवाल यह है कि क्या किसी लेखक का अपने जीवन के युवा काल में संघ परिवार से जुड़ा होना इतना बड़ा गुनाह हो कि उसके सारे किए पर कालिख पोत दी जाए और उसके योगदान की अनदेखी की जाए? लेकिन सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर काफी बहस हुई और हिंदी समाज दो भागों में विभक्त हो गया। एक वर्ग नामवर जी का समर्थक था तो दूसरा घोर विरोधी लेकिन किसी लेखक का मूल्यांकन किसी अतिवादी नजरिए से या पूर्वाग्रहग्रस्त दृष्टि से नहीं किया जाना चाहिए।
पिछले दिनों रजा फाउंडेशन की ओर से हिंदी के कई यशस्वी लेखकों की जीवनियां आईं, जिनमें जैनेंद्र कुमार, नागार्जुन, रघुवीर सहाय और कृष्णा सोबती की जीवनी उल्लेखनीय है। कायदे से हिंदी के प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक डॉ. नामवर सिंह की जीवनी भी इसी योजना के तहत आनी चाहिए थी लेकिन इस योजना में नामवर सिंह को शामिल नहीं किया गया। बहरहाल, हिंदी के युवा आलोचक अंकित नरवाल ने अपने प्रयासों से नामवर जी की 339 पृष्ठों की जीवनी "अनल पाखी" लिख डाली। पर सवाल यह है कि क्या उन्होंने इस जीवनी में नामवर सिंह के साथ "न्याय" किया है और उनके संपूर्ण "व्यक्तित्व" और "कृतित्व" को समेट लिया है?
नामवर जी के बारे में जानने के लिए उनके अतीत को जानना जरूरी है। जीवनी में उनके अभावग्रस्त बचपन की कहानी, बालविवाह के बाद उनके वैवाहिक जीवन की जटिल कथा, काशी में उनकी शिक्षा-दीक्षा की कहानी और फिर सागर विश्विद्यालय से लेकर जोधपुर विश्विद्यालय और वहां से लेकर नई दिल्ली तक की उनकी यात्रा के माध्यम से नामवर सिंह के व्यक्तित्व के विकास को रेखांकित किया गया है। राहुल सांकृत्यायन की एक किताब ने उनके जीवन को बदल दिया और वे मार्क्सवादी बन गए। उनके जीवन की प्रमुख घटना यह रही कि 1947 में निराला ने उन्हें उनकी एक कविता एक पर युवा कवि का पुरस्कार भी दिया था लेकिन कालांतर में नामवर जी ने कविता का रास्ता छोड़ कर आलोचना का रास्ता अपना लिया और उनका पहला कविता संग्रह अप्रकाशित ही रह गया। कविता से आलोचना की तरफ मुखातिब होने के पीछे किशोरी दास बाजपेई का एक पद उनके लिए प्रेरणा स्रोत बना। उस पद में किशोरी दास जी ने "कूड़े कचरे को बुहारने" की बात लिखी थी। नामवर जी को यह बात जंच गई और उन्होंने साहित्य में फैले इस "कूड़े कचरे" को दूर करने के लिए आलोचना का क्षेत्र अपनाया और जीवन भर साहित्य में "सफाई" करते रहे।
आलोचना की दुनिया में उनकी पुस्तक "छायावाद" ने उन्हें स्थापित किया जो उन्होंने महज 29 साल की उम्र में लिखी थी। आज हिंदी का कोई भी छात्र इतनी कम उम्र में ऐसी किताब नहीं लिख सकता और किसी ने आज तक लिखा भी नहीं। यह नामवर जी की विलक्षण प्रतिभा का कमाल था। उन्होंने छायावाद के बारे में रामचंद्र शुक्ल और नंद दुलारे बाजपेई की स्थापनाओं से एक अलग स्थापना विकसित की और उसे राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ कर देखा। उनकी इस स्थापना से उन्हें साहित्य में मान्यता मिली लेकिन इससे पहले उनकी पुस्तक "बकलम खुद" आ चुकी थी।
नामवर जी हिंदी साहित्य के छात्र भले रहे पर उनकी गहरी रूचि संस्कृत साहित्य, विश्व साहित्य, अंग्रेजी आलोचना, इतिहास, राजनीति शास्त्र और दर्शन शास्त्र में रही। उन्होंने चीजों को हमेशा एक ऐतिहासिक और विश्व दृष्टि से देखने की कोशिश की है। उन्होंने साहित्य में एक ऐसी दृष्टि विकसित की जो उनसे पहले आलोचकों में नहीं थी। वह हिंदी के पहले ऐसे बुद्धिजीवी रहे, जिन्होंने इतिहास, दर्शन राजनीति, समाजशास्त्र, संस्कृति कला की मिली जुली दृष्टि से साहित्य और समाज को देखा जाना और परखा। उन्होंने परंपरा को न तो पूरी तरह खारिज किया और नहीं पूरी तरह आत्मसात किया। इसी तरह उन्होंने आधुनिकता को भी पूरी तरह आत्मसात नहीं किया और न ही उससे खारिज किया, बल्कि उसके साथ हमेशा एक आलोचनात्मक दृष्टि बनाए रखी। वे तुलसी को बड़ा कवि मानते रहे पर कबीर के महत्व को भी उन्होंने रेखांकित किया। मुक्तिबोध और अज्ञेय दोनों उन्हें प्रिय थे। यद्यपि अज्ञेय के साथ उनके रिश्तों में उतर चढ़ाव रहा। लेकिन उन्होंने साहित्य में दक्षिणपंथी दकियानूसी विचारों का हमेशा विरोध किया और रूपवादियों-कलावादियों और रस सिद्धांतवादियों से लगातार मोर्चा लिया।
"कविता के नए प्रतिमान" में डॉक्टर नगेंद्र के साथ एक लंबी जिरह "रस सिद्धांत" के खिलाफ की। दरअसल नामवर जी निराला, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय की धारा के समर्थक थे। जीवनी से पता चलता है कि वे मुक्तिबोध को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने के पक्ष में थे और उन्होंने अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी को इसके लिए सुझाया भी जो अकादमी की हिंदी परामर्श समिति के संयोजक थे लेकिन द्विवेदी जी ने मुक्तिबोध की बजाय डॉक्टर नागेंद्र को उनकी पुस्तक "रस सिद्धांत" पर 1965 का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया और इस काम में अकादमी के तत्कालीन अपर सचिव व तार सप्तक के कवि भारत भूषण अग्रवाल सहयोगी बने। दरअसल डॉक्टर नगेंद्र ने ही द्विवेदी जी को चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में नौकरी दिलवाई थी।
नामवर जी विवादों के घेरे में तब आए जब उन्होंने अपना 75वां जन्मदिन पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और दिग्विजय सिंह की उपस्थित में मनाया, जिसकी आलोचना हुई। 90 वें जन्मदिन पर वे राजनाथ सिंह के हाथों सम्मानित हुए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आलोचक होने के बावजूद उनके साथ मंच पर ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह को संबोधित किया। लेकिन जीवनी में इन तथ्यों को छिपा लिया गया है। इसके पीछे जीवनीकार की मंशा समझ में नहीं आती। लेकिन नामवर जी के व्यक्तित्व की चर्चा करते समय इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हिंदी आलोचना की भाषा को समृद्ध करने, एक नई दृष्टि देने, विश्वविद्यालय की दुनिया में नए तरह के पाठ्यक्रम विकसित करने और हिंदी पट्टी में अपने गंभीर प्रभावशाली और अद्भुत भाषणों से वैज्ञानिक धर्मनिरपेक्ष सांस्कृतिक वैचारिक वातावरण बनाने और लोक जागरण फैलाने में नामवर जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसे रेखांकित किए जाने की जरूरत है क्योंकि उन्होंने हमेशा एक न्यायप्रिय जन राष्ट्रवाद की वकालत की।
Triveni
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