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भारतीय दूरदर्शन पर सबसे पहले स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने योग सिखाना शुरू किया। कुंडलिनी योग सिखाने की प्रक्रिया में वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के योग गुरू बने और दूरदर्शन पर उनका नियमित कार्यक्रम आने लगा तो दुनिया ने उन्हें जाना। उनके पराभव के बाद सरकारी हलके में योग पर बातचीत थम सी गई। इस बीच बहुत से योगाचार्यों ने योग को जनमानस तक ले जाने के प्रयोग किए, पर दूरदर्शन के अपने कार्यक्रमों में कपालभाति का प्रदर्शन करके सबको मोह लेने वाले बाबा रामदेव सबसे आगे निकल गए और अब सभी योग गुरुओं में वे बेताज बादशाह हैं।
उनकी प्रसिद्धि का आलम यह है कि उनकी कंपनी पतंजलि के उत्पाद उनके नाम पर बिकते हैं। श्रीश्री और सद्गुरू सरीखे अन्य संतों का भी बहुत प्रभाव है, पर योगाचार्य के रूप में बाबा रामदेव सबसे आगे हैं। आलोचना बाबा रामदेव की भी कम नहीं हुई। शुरू-शुरू में जब योग शिविर लगा करते थे तो कई लोग बाद में अस्पतालों में जाते थे क्योंकि योग शिविरों में उनकी शारीरिक अवस्था जानने की कोई व्यवस्था नहीं होती थी और सबको एक साथ कई तरह के योगासन करवाए जाते थे। इससे सचमुच कई नई परेशानियां पैदा हुईं और बहुत से डाक्टरों ने सोशल मीडिया पर योग शिविरों से होने वाले नुकसान के बारे में बोलना शुरू किया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाना शुरू हुआ तो योग की चर्चा विश्व भर में तेजी से होने लगी।
नई सरकार के नजरिये और योग के प्रचार-प्रसार का एक लाभ यह भी हुआ कि लोगों का ध्यान आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा की ओर भी गया और उनकी लोकप्रियता में भी इजाफा होने लगा। यही नहीं, खुद बहुत से डाक्टरों ने एलोपैथी की सीमाओं के बारे में बताना शुरू किया तो प्राकृतिक चिकित्सा पर फोकस कुछ और भी बना। इस सबके बावजूद फार्मास्युटिकल कंपनियों के प्रभाव, एलोपैथी सिस्टम के डाक्टरों की बड़ी संख्या और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताकत के कारण भारतवर्ष में अभी भी ऐलोपैथी का वर्चस्व है। एलोपैथी के वर्चस्व के कुछ और कारण भी हैं। पहला तो यह कि इसके लैबोरेट्री टैस्ट, एक्सरे और इसीजी, एमआरआई आदि कई तरह के स्कैन जिनकी सहायता से डाक्टरों के लिए रोग की वास्तविक स्थिति का पता लगाना बहुत आसान हो जाता है। एलोपैथी की लोकप्रियता का दूसरा कारण है बुखार की अवस्था में रोगी के लिए फौरी राहत। तीसरा कारण यह है कि हृदय रोग, पथरी सहित विभिन्न आपरेशनों के लिए रोगी को एलोपैथी पर ही निर्भर होना पड़ता है। इसी तरह किसी दुर्घटना में घायल हुए लोगों के लिए, तथा एमरजेंसी मामलों के लिए एलोपैथी सिस्टम ही हमारे काम आता है। इन सब खूबियों के बावजूद एलोपैथी की सीमाओं को भी नकारा नहीं जा सकता।
एलोपैथी में बहुत से रोगों को लाइफस्टाइल बीमारी बता कर रोगी को जीवन भर के लिए रोग का गुलाम बना दिया जाता है जबकि आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा तथा अन्य वैकल्पिक पद्धतियों में उनके सफल इलाज की संभावना है। यही कारण है कि लोग वैकल्पिक पद्धतियों के बारे में भी सचेत हो रहे हैं। इस सबके बावजूद तीन बड़ी अड़चनें हैं जिनसे दुनिया भर में रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। पहली अड़चन तो यही है कि एलोपैथी में जिसे लाइफस्टाइल की बीमारी बताकर जीवन भर के लिए गुलाम बना लिया जाता है, उन दवाइयों से बीमारी दबती है, ठीक नहीं होती और कुछ सालों के बाद रोगी एक और नई बीमारी का शिकार हो जाता है, और फार्मास्युटिकल कंपनियों और डाक्टरों का हलवा-मांडा चलता रहता है। बीमारों और बीमारियों के लगातार बढ़ते जाने का दूसरा कारण यह है कि आधुनिकता के साथ-साथ हमारा खानपान बदल गया है और बर्गर, पिज्जा, नूडल्स और पैक्ड फूड जैसे अप्राकृतिक भोजन ने हमारी सेहत को बुरी तरह से प्रभावित किया है। सूरज की रोशनी से दूरी, व्यायाम की कमी और मोबाइल फोन तथा लैपटाप की व्यस्तता ने आग में घी का काम किया है।
इन दो कारणों से तो हम परेशान हैं ही, एक बड़ा कारण, जिसकी ओर चिकित्सा विज्ञान का ध्यान नहीं जा रहा है,वह है गुस्सा, उदासी, अपमान, आत्मग्लानि, अकेलेपन की भावना आदि हानिकारक भावनाओं के कारण होने वाली बीमारियां। बचपन में अगर कभी किसी बच्चे को लगातार मां-बाप से, पड़ोसियों या रिश्तेदारों से, अपने हमउम्र साथियों से या अध्यापकों से लगातार अपमान मिले, मारपीट बर्दाश्त करनी पड़े और बच्चा कुछ न कर पाए, अपनी भावनाएं व्यक्त न कर पाए, तो गुस्से और अपमान की भावना अवचेतन मन में गहरे बैठ जाती है जो उसके वयस्क होने पर किसी न किसी बीमारी के रूप में सामने आती है। बड़ा हो जाने पर भी अगर किसी को अपने उच्चाधिकारियों से, सहकर्मियों से, परिवार से, जीवनसाथी से लगातार उपहास या अपमान का सामना करना पड़े, या वह व्यक्ति किसी भी कारण से अपने काम में असफल हो रहा हो, तो उससे उपजी कुंठा, बेचैनी, गुस्सा आदि उसके आत्मविश्वास को कम करते हैं, उसकी अपनी नजरों में उसकी इज्जत कम हो जाती है और ऐसा व्यक्ति निराशा में चिंताग्रस्त या अवसादग्रस्त हो जाता है और इन मानसिक विकारों के कारण भी अंतत: कई बीमारियों का शिकार हो जाता है। समस्या ये है कि मानसिक विकारों से उपजी बीमारी का इलाज जब तक अवचेतन मन में ही नहीं होगा, रोग पूरी तरह से ठीक हो ही नहीं सकता। ऐसी किसी अवस्था में स्पिरिचुअल हीलिंग, यानी आध्यात्मिक उपचार ही एकमात्र प्रभावी पद्धति है जो रोग को जड़ से खत्म कर सकती है। यहां एलोपैथी तो छोडि़ए, वैकल्पिक चिकित्सा से जुड़ी कोई अन्य पद्धति भी कारगर नहीं है। मनोविकारों से जुड़े रोगों को जड़ से खत्म करने के लिए स्पिरिचुअल हीलिंग का कोई मुकाबला नहीं है। यह विश्व की एकमात्र ऐसी पद्धति है जो मानसिक विकारों से जुड़े रोगों का पक्का इलाज कर सकती है और इसमें समय भी बहुत कम लगता है।
यही नहीं, स्पिरिचुअल हीलिंग ऑनलाइन भी की जा सकती है जिससे रोगी को कहीं आने-जाने या अस्पतालों के चक्कर लगाने की जहमत से छुटकारा मिल जाता है। हमारे सामाजिक जीवन की विडंबना यह है कि ऊपर से खुश दिखने वाला, सामान्य व्यक्ति भी अपने मन ही मन कितना परेशान है, इसकी हमें जानकारी ही नहीं हो पाती। अंदर ही अंदर घुट रहा व्यक्ति मानो खुद ही बीमारियों को निमंत्रण देता है। मनोविकारों से राहत के लिए स्पिरिचुअल हीलिंग, रामबाण इलाज है। स्पिरिचुअल हीलिंग के दौरान रोगी ध्यान की-सी अवस्था में होता है जिसमें उसका अवचेतन मन जागृत हो जाता है जिससे रोग का कारण समझकर उसका निदान करना आसान हो जाता है। स्पिरिचुअल हीलिंग से मनोविकारों के इलाज के परिणामस्वरूप बहुत सी शारीरिक व्याधियों का इलाज खुद-ब-खुद हो जाता है और इस पद्धति का जितना प्रचार-प्रसार होगा, रोगियों की संख्या उतनी ही कम होती चली जाएगी। इससे न केवल नए अस्पताल बनाने की जरूरत खत्म हो जाएगी, बल्कि मौजूदा अस्पतालों का बोझ भी कम हो जाएगा। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्पिरिचुअल हीलिंग सिस्टम को बढ़ावा देना ही हमारे पास एकमात्र उपाय है।
पीके खु्रराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ई-मेल: [email protected]
By: divyahimachal
Rani Sahu
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