सम्पादकीय

समुद्र पार न जाने की क़सम की वजह से हिंदुओं ने बहुत कुछ खोया

Gulabi Jagat
15 May 2022 8:02 AM GMT
समुद्र पार न जाने की क़सम की वजह से हिंदुओं ने बहुत कुछ खोया
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समुद्र पार न जाने के धार्मिक प्रतिबंध से बंधे हिंदुओं ने बहुत कुछ खोया है
शंभूनाथ शुक्ल |
समुद्र पार न जाने के धार्मिक प्रतिबंध से बंधे हिंदुओं (Hindus) ने बहुत कुछ खोया है. वे अपनी प्रतिभा को स्थापित नहीं कर सके. कभी बता नहीं सके कि आयुर्वेद, विज्ञान, कृषि और व्यापार उन्होंने कितना विकास किया. इसमें कोई शक नहीं कि धर्म और अध्यात्म के चिंतन में हिंदू दर्शन (Hindu Philosophy) सर्वोच्च शिखर पर रहा. उदारता उनका विशेष गुण रहा. उन्होंने कभी किसी को पराया नहीं समझा. किंतु जब विदेशियों के हमले शुरू हुए तो वे अपना आत्म गौरव भी भूल बैठे. और स्वयं को अपराधी मानने लगे. जिस हिंदुस्तान में वेद, उपनिषद और पुराण लिखे गए. बौद्ध, जैन और चार्वाक सरीखे भौतिकवादी दर्शनों का उदय हुआ, उससे अगर विश्व लम्बे समय तक अनजान रहा तो उसकी वज़ह यही आत्महीनता की ग्रंथि रही. कम्युनिज़्म जिस भौतिकवादी चिंतन पर आधारित है, उस चिंतन के बीज बौद्ध दर्शन में थे. ख़ुद एंगल्ज़ ने लिखा है, हीगेल ने बौद्ध दर्शन के भौतिकवादी चिंतन को ठीक से खड़ा किया.
आज से हज़ार साल पहले महमूद गजनवी के साथ एक घुमक्कड़ अल बिरूनी भी भारत आया और यहां से लौटने के बाद उसने अपनी भारत यात्रा पर एक लाजवाब किताब लिखी- किताबुल हिंद. यानी हिंद की किताब. इस किताब में उसने भारतीयों के सारे ज्ञान-विज्ञान की अरबी में व्याख्या की है. उसने काफी हद तक निरपेक्ष बने रहकर भारत को समझने की कोशिश की है पर जैसा कि हर इस्लामी यायावर के साथ हुआ कि वे अपने धर्म को इतना महान समझते रहे हैं कि उसके आगे हर एक के दार्शनिक चिंतन को न सिर्फ ख़ारिज करते रहे बल्कि उसके दर्शन को घटिया सोच वाला बताने में तनिक भी संकोच नहीं किया.
गाय का वध नहीं करने की परंपरा तब भी थी
यही हाल अल बिरूनी का भी रहा. हालांकि भारतीयों के अंक विज्ञान की जानकारी और उनकी खगोलीय जानकारी तथा वैद्यक समझ से वह आकर्षित भी हुआ मगर जिस सांख्य दर्शन की वह भूरि-भूरि प्रशंसा करता है उसे भी इस्लाम के मुकाबले कमतर बताने में उसने अपनी सारी मेधा को व्यर्थ किया. जर्मन विद्वान डॉक्टर एडवर्ड सी सखाउ ने सबसे पहले अल बिरूनी की इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद किया और इसके बाद यह पुस्तक हिंदी में आई. मगर यह किताब भारत के बारे में पहली बार किसी मुस्लिम विजेता के दृष्टिकोण को बताती तो है ही, साथ में भारतीयों के अपने दार्शनिक चिंतन की श्रेष्ठता के दंभ के बारे में भी. अल बिरूनी का कहना है कि भारतीय चूंकि विदेश जाना पसंद नहीं करते बल्कि वे विदेशियों के प्रति एक बैर का-सा भाव रखते हैं इसलिए उनका चिंतन एकांगी हो गया है और वे विश्व पटल पर अनजाने रह गए.
शुरुआती अरबी हमलावरों का जिक्र करते हुए अल बिरूनी लिखता है कि मुहम्मद बिन कासिम ने जब मुल्तान प्रांत जीता तब उसे बताया गया कि मुल्तान की सारी समृद्घि उस देव प्रतिमा की मेहरबानी के चलते है जिसे उसने अपवित्र कर दिया है तो उसने तत्काल उस प्रतिमा को छोड़ दिया साथ ही उसने सिसली से लूटी गई एक अन्य प्रतिमा भी भेज दी ताकि उस शहर की समृद्घि बनी रहे. अल बिरूनी लिखता है कि मुहम्मद बिन कासिम का हमला लूट की वजह से अधिक था इस्लाम के प्रसार हेतु नहीं. वर्ना वह मूर्ति वहां क्यों लगवाता. स्वयं अल बिरूनी ही लिखता है कि उस समय यानी ईसा की 11वीं सदी में हिंदुओं का भद्र लोक मूर्ति पूजा की बजाय मानता था कि ईश्वर एक है और उसे किसी मूर्ति से नहीं बांधा जा सकता क्योंकि वह अव्यक्त है. उसके अनुसार सामान्य जनता चूंकि ईश्वर की इस विशेषता को नहीं समझती इसीलिए उसे एक ठोस आधार चाहिए जो मूर्ति है.
अल बिरूनी लिखता है कि जब महमूद गजनवी ने हिंदुस्तान के कई राजाओं की स्वाधीनता छीनी और उन्हें अपने अधीन किया तो पंजाब के आनंद पाल ने एक विचित्र शर्त रख दी कि उसे सुल्तान महमूद की अधीनता स्वीकारने में कोई उज्र नहीं है बशर्ते सुल्तान दो बातें मान ले. एक तो उसके राज्य में गायों का वध नहीं होगा दूसरे अरब लोगों में चली आ रही पुरुषों की समलैंगिकता को यहां अनुमति नहीं मिलेगी. सुल्तान चूंकि तुर्क था इसलिए उसने ये दोनों शर्तें मान लीं. इससे एक बात का पता तो चलता ही है कि गाय का वध नहीं करने की परंपरा तब भी थी. अल बिरूनी ने लिखा है कि प्राचीन काल में राजा वासुदेव ने गाय के वध पर रोक लगवा दी थी. ये राजा वासुदेव शायद कृष्ण रहे होंगे. पुरुष समलैंगिकता को बढ़ावा अरब देशों में था. इसलिए भी कि रेगिस्तानी देशों में महिलाओं की आबादी पुरुषों की तुलना में शायद कम रही होगी.
भारत में गिनती 18 घात तक जाती है
अल बिरूनी भले एक तुर्क हमलावर महमूद गजनवी के साथ आया हो पर वह था एक गुलाम ही. सखाउ ने लिखा है कि अल बिरूनी, जिसका पूरा नाम अबू रेहान मुहम्मद इब्न-ए-अहमद था, ने किताब फी तहकीक मा लिल हिन्द मिन मकाला मक्बूला फिल अक्ल-औ- मरजूला के नाम से लिखी थी. इसी किताब को बाद में किताबुलहिंद कहा गया. सखाउ ने बताया है कि अल बिरूनी कोई अरब नहीं बल्कि ईरानी मूल का मुसलमान था और ख्वारिज्म का रहने वाला था जो तुर्किस्तान की सीमा पर था और बाद में जब ख्वारिज्म पर महमूद गजनवी ने अधिकार कर लिया तो वहां के अधिकतर लोग बंधक बना लिए गए और इन्हीं बंधकों में से अल बिरूनी भी था. सुल्तान महमूद से अल बिरूनी के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे. वह अपनी भारत यात्रा में महमूद गजनवी का जिक्र बहुत कम करता है. जबकि वह आया सुल्तान महमूद गजनवी के साथ ही था.
उस समय हिंदुओं की गणित की तारीफ करते हुए अल बिरूनी लिखता है कि जब पूरे विश्व में संख्याओं के लिए बस हजार के आगे गिनती नहीं बढ़ती और यहां तक कि अरबों के यहां भी, तब भारत में गिनती 18 घात तक जाती है. इन घातों यानी दस गुना अधिक की गिनती इस प्रकार है- 1. एकम, 2. दशम, 3. शतम, 4. सहस्त्रम, 5. अयुत, 6. लक्ष, 7. प्रयुत, 8. कोटि, 9. न्यबुर्द, 10. पद्म, 11. खर्व, 12. निखर्व, 13. महापद्म, 14. शंकु, 15. समुद्र, 16. मध्य, 17. अन्त्य और 18. परार्ध. इसके बाद उसने भूरि का जिक्र करते हुए लिखा है कि भारतीय अंक गणित की यही सीमा है जो अनंत है. अल बिरूनी की मानें तो हिंदुओं ने खगोल शास्त्र में जो महारत हासिल की है उसकी नींव में भारत की यही अंकगणित है. अल बिरूनी तत्कालीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की प्रशंसा करते हुए लिखता है- लेकिन भारत का दुर्भाग्य यह है कि भारतीय शुचि के नाम पर आडंबर बहुत करते हैं और वे न तो विदेशियों से घुलते-मिलते हैं न उनसे ज्ञान का साझा करते हैं इसलिए उनका विज्ञान और दर्शन एक गोबर से पुता हुआ मोती है जिसकी हकीकत तब ही खुल पाती है जब कोई जौहरी उसे परखे और उसे धोने का उपक्रम करे.
महमूद गजनवी ईस्वी के साल 998 में सुल्तान बना और सबसे पहले तो उसने ईरान के खान शासकों को ध्वस्त कर पूरा ईरान अपने कब्जे में किया फिर काबुल के राजा जयपाल को परास्त किया. इसके बाद तो वह आंधी-तूफान की तरह भारत में लूटपाट करते हुए घुस आया. भारतीय राजा इस तुर्क हमलावर की नृशंसता से बेखबर थे और तब तक लूटमार करते हुए महमूद सोमनाथ पहुंचा तथा सोमेश्वर मंदिर को ढहा दिया. कहते हैं कि वह सोमनाथ से ही 1700 ऊँट हीरे जवाहरात तथा सोना भरकर ले जा रहा था पर थार का रेगिस्तान नहीं पार कर सका. रेत के तूफानों ने उसका सारा खजाना लील लिया और अकेला ही किसी तरह गिरता-पड़ता गजनी पहुंचा जहां 1030 ईस्वी में उसकी मौत हो गई. जाहिर है अल बिरूनी इसी दौरान भारत रहा था पर वह सुल्तान महमूद के अत्याचारों से खुद ही त्रस्त था इसलिए कहीं भी इस अत्याचारी सुल्तान के गुण नहीं गाए और भारत पर एक बेहद स्वतंत्र किताब लिखी बस धर्मभीरु होने के कारण हिंदू धर्म के प्रति वह अनुदार रहा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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