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भारतीय चुनावी विमर्श में ‘इतिहास’ इतना महत्वपूर्ण क्यों हो जाता है
बद्री नारायण भारतीय चुनावी विमर्श में 'इतिहास' इतना महत्वपूर्ण क्यों हो जाता है? यूं तो पाठ्य पुस्तकों में और हमारी आम समझदारी में इतिहास को अतीत माना जाता है, किंतु भारतीय जीवन में, विशेषकर चुनाव के वक्त ये अतीत पुनर्जीवित हो उठते हैं। न केवल भारत में, बल्कि इंडोनेशिया, म्यांमार, अफगानिस्तान, नेपाल जैसे कई एशियाई देशों के चुनाव व अन्य कई मौकों पर भी इतिहास जीवंत हो उठता है। हालांकि, भारत में यह वर्तमान जैसा जीवंत हो जाता है।
पूरी दुनिया पर नजर डालें, तो अफ्रीका, एशिया, लातीन अमेरिका के कुछ मुल्कों के चुनावी विमर्शों में इतिहास का दखल कभी-कभी देखा और सुना जाता रहा है, किंतु भारत में चुनाव चाहे उत्तर में हों या दक्षिण में, इतिहास प्राय: हमारे चुनावी विमर्शों में नवजीवन प्राप्त कर लोकतांत्रिक विमर्शों को रच रहा होता है। अमेरिका, इंग्लैंड, नीदरलैंड जैसे पश्चिमी मुल्कों में, जहां आधुनिकता का विकास व विस्तार अपने चरम पर है, चुनावी विमर्शों में दूरस्थ इतिहास की कोई जगह नहीं होती। चुनावी विमर्श मूलत: वर्तमान की नीतियों की सफलता, विफलता एवं भविष्य की योजनाओं के मूल्यांकन पर टिका होता है। कभी-कभी क्षेत्रीय एवं स्थानीय अस्मिताएं, रंगभेद के प्रश्न उठते तो हैं, पर वे अतीत के विमर्श को उत्प्रेरित न करके अपने वर्तमान के प्रश्नों एवं भविष्य के रास्तों पर केंद्रित होते हैं।
भारतीय चुनावों में अतीत के राजा, रानी, संत, ऋषि, नायक, खलनायक, सभी विमर्श में अवतरित हो जाते हैं। भारतीय जनतंत्र के महापर्व में इतिहास एक अर्थ में पुनर्नवा हो उठता है। यह नया भी अपने-अपने तरह से होता है। सबके अपने-अपने रंग होते हैं और अपने-अपने रूप। सबके अपने अर्थ एवं व्याख्याएं भी होती हैं।
उत्तर प्रदेश में, जो भारत का सबसे बड़ा राज्य है और माना जाता है कि जहां से होकर दिल्ली की सत्ता का रास्ता गुजरता है, शीघ्र ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। अगर यहां चल रहे चुनावी विमर्शों पर गौर करें, तो पिछले दिनों इसमें जिन्ना, मुगल, मारीच, सुहेलदेव, निषाद राज गुह्य उभर आए हैं। इन पर चल रहे वाद-विवाद को देखकर लगता है कि हमारे बीच कई इतिहासों-आख्यानों का विमर्श युद्ध चल रहा हो। इनमें नायकों को अपने-अपने पाले में करने के लिए अपनी-अपनी व्याख्याएं जनसभाओं में दी जाने लगी हैं।
ऐसा क्यों होता है? कुछ विद्वानों का मानना है कि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भारत स्मृतियों का देश है। इतिहास से स्मृतियां रची भी जाती हैं और स्मृतियां इतिहास की उंगली पकड़कर टहलती और फैलती भी रहती हैं। स्मृतियां प्राय: हमें गोलबंद करती हैं। इसीलिए भारत की राजनीतिक शक्तियां कई बार स्मृति के राजनीतिक पाठ करती दिखती हैं। वे एक ही इतिहास के अपने-अपने संस्करण रचकर उनका इस्तेमाल अपने जनाधार को गोलबंद करने के लिए, तो दूसरी तरफ, अपने से टकराती शक्तियों के जनाधार को क्षीण करने के लिए करती हैं।
पश्चिमी देशों के चुनावी विमर्श में अतीत आता भी है, तो एकदम ताजा, और वह भी शासन-प्रशासन का इतिहास। जबकि भारत, इंडोनेशिया, म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान जैसे देशों में सुदूर इतिहास आता है। वह कई बार सांस्कृतिक इतिहास भी होता है। अफगानिस्तान को छोड़ दें, तो इंडोनेशिया, म्यांमार जैसे देशों के चुनावी विमर्श में इतिहास कहीं-कहीं फुसफुसाता है, किंतु भारतीय चुनावी विमर्शों में वह चिंघाड़ता भी है।
चुनावी विमर्श में इतिहास को लाने की एक कला होती है, और दक्षता भी। इन दोनों में ही भाजपा काफी सफल रही है। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने कभी दलित इतिहास एवं दलित नायकों की एक कतार खड़ी कर दी थी। यही नहीं, उन्होंने गांव-कस्बे एवं चुनावी गोलबंदी में दलित अस्मिता के निर्माण में दलित इतिहास को ही आधार बनाया था। हालांकि, उनके जाने के बाद बसपा ने अपने विमर्शों में उनको जगह देनी कम कर दी। मगर, भाजपा ने उनमें से अधिकांश से अब नाता जोड़ लिया है। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी ने भी दलितों व पिछड़ों की ऐतिहासिक अस्मिता के नायकों को अपने विमर्श में महत्व देना शुरू किया। प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भी निषाद जाति की गोलबंदी के लिए निषाद इतिहास और उनके नायकों को जगाया है।
राजनीतिक विमर्श में इतिहास के प्रयोग कई बार समस्याएं भी खड़ी कर देते हैं। सपा नेता अखिलेश यादव ने अभी नए-नए इस राजनीतिक क्राफ्ट का इस्तेमाल करना शुरू किया है। फलत: उन्होंने 'जिन्ना के इतिहास' को अपने विमर्श में पुनर्जीवित करने का जोखिम उठा लिया। हमें समझना होगा कि राजनीति में इतिहास एक ज्ञान नहीं है, बल्कि गोलबंदी का अस्त्र है। अत: जो उसमें से अपने लिए सजग होकर चयन करता है एवं अत्यंत सावधानी से उन्हें राजनीतिक संवादों में बदलता है, वही उसका लाभ पाता है। नहीं तो उसे हानि भी हो सकती है।
यह ठीक है कि स्मृतियां एवं इतिहास जोड़ने वाले होते हैं, किंतु कई बार वे भी विभाजक हो सकते हैं। इसका भी प्रत्यक्ष उदाहरण उत्तर प्रदेश में राजनीति एवं इतिहास के बनते अंतर्संबंधों में देखा जा सकता है। पाठ्य पुस्तकों एवं इतिहास के ग्रंथों में मिहिर भोज गुर्जर-प्रतिहास वंश के यशस्वी राजा के रूप में दर्ज हैं। इधर पाठ्य पुस्तक से निकल उनका इतिहास अस्मिता की राजनीति का हिस्सा बनने लगा है। उनकी मूर्तियां बनने लगी हैं। बड़े-बड़े नेताओं से मूर्तियों का उद्घाटन कराया जाने लगा है। लेकिन इन पर गुर्जर व राजपूत, दोनों ही समुदाय अपना-अपना दावा करने लगे हैं। इनके इतिहास के ईद-गिर्द हिंसा, टकराहट, एफआईआर एवं न्यायालय के मुकदमे दिखने लगे हैं। इसी तरह सुहेलदेव के इतिहास को लेकर भी उत्तर प्रदेश में पासी और राजभर समूह के अपने-अपने टकराते हुए दावे हैं।
यह ठीक है कि भारतीय समाज में स्मृतियां प्रभावी हैं। यह भी ठीक है कि स्मृतियां अस्मिता-निर्माण का एक स्रोत बनकर भारत ही नहीं, कई अफ्रीकी एवं एशियाई देशों में उभरी हैं। किंतु इनका सबसे मुखर इस्तेमाल भारतीय चुनावी विमर्शों में ही देखने को मिलता है। इतिहास यदि वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए उपयुक्त हो, तो बेहतर, नहीं तो इतिहास वर्तमान को समस्याग्रस्त ही करेगा। हमें यह समझना होगा कि इतिहास एवं समृतियां जब जीवन लोक में होती हैं, तब हमारी आत्मशक्ति होती हैं। किंतु जैसे ही वे राजनीति में आती हैं, हमारी शक्ति भी हो सकती हैं और सीमा भी। वे एक ही साथ लाभ और हानि, रचना और विध्वंस, दोनों पैदा कर सकती हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Rani Sahu
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