सम्पादकीय

नाक ढूंढना मुश्किल

Rani Sahu
14 May 2023 7:00 PM GMT
नाक ढूंढना मुश्किल
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गांव की मान्यता थी, इसलिए कचरे में भी बरकत ढूंढी जाती थी। कचरे में सबसे कीमती थी सुई। जो चुभती रही, जब तक चुभती रही, वही सुई थी, वरना ढेरों यूं ही नोक के टूटते ही ढेर पर फेंक दी जातीं। देखते ही देखते सुइयों का अपना एक साम्राज्य बन गया। यह दर्जियों का गांव था, इसलिए हर घर की सुई कचरे में भी आबाद थी। दरअसल सुइयों में भी रिश्ते आबाद थे। जो सास के हाथ में चली, वह सास हो गई, जो बहू के कब्जे में रही, वह बहू सरीखी हो गई। कचरे में भी रिश्ते सुई की नोक पर थे। पास में घर-घर से फेंके गए व्यर्थ भोजन की खिचड़ी पक रही थी, तो इधर सुइयों के झुंड में वार पर पलटवार चल रहा था। यह सब दो सुइयों की वजह से हो रहा था। एक खुद को जेठानी, तो दूसरी देवरानी मानती थी। सुइयों के झुंड में कई रिश्ते शांत हो चुके थे, लेकिन अपनी नोक की वजह से ये दोनों सुइयां टकराव पर आमादा थीं। सास के पलड़े से आई सुई को यह भ्रम था कि उसकी नोक के आगे किसी बहू की सुई कैसे टिक सकती है, लेकिन अपने रिश्ते की अस्मिता बचाने के लिए बहू की सुई भी जगह घेरने की फिराक में थी। हर वस्तु में कहीं न कहीं, कोई न कोई भाग नुकीला हो सकता है और यही शाब्दिक अर्थ नोक को हथियार बना देता है।
नोक कितना स्थान घेरती है, यह इसके नुकीलेपन पर निर्भर करता है। हमें नहीं मालूम किस देश की सुई कितनी नुकीली है, लेकिन दावे से कह सकते हैं कि भारत की नोक के नीचे कोई सुई भी टिक नहीं सकती। ऐसे में चीन की क्या मजाल जो भारत की सुई के नीचे या सुई की नोक जितनी जगह हड़प ले। झगड़ालू सुइयां एक-दूसरे पर भारी पड़ रही थीं। टूटी हुई नोक के बावजूद, नाक का सवाल नोक पर आकर अटक गया था। वैसे भी यह पता करना मुश्किल है कि नाक कब नोक बन जाए। रूस ने नाक को नोक में क्या बदला, यूक्रेन लहूलुहान हो गया। अपने देश में थोड़ा विपरीत हो रहा है। नाक के बजाय लोग नोक बने घूम रहे हैं। नोक-नोक में हम न सामाजिक रहे और न ही सांस्कृतिक, बल्कि जनता ने नोक का आधिपत्य इतना बढ़ा लिया है कि इनके बीच नाक ढूंढना मुश्किल हो रहा है।
नाक में नोक लिए जो लोग सफल हैं, उनमें सियासत का हर लक्षण परवान है, वरना नाक रखने वाले ही अब कानून, प्रशासन, सरकार और भगवान के सामने सिर्फ इसे रगड़ ही सकते हैं। यह बात टूटी नोक वाली सुइयों को जब समझ आई, तो उन्होंने एक दूसरी से रगड़-रगड़ कर फिर नोक बना ली। सुइयां कचरे के ढेर में भी नोक बना सकती हैं, तो इनसान भी नोक के लिए अब कचरा ढूंढ रहा है। दरअसल देश में जितने भी लोग नोकधारी बन रहे हैं, वे कचरे का फायदा उठाकर ही आगे बढ़ रहे हैं। पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी चाहकर भी नोक पैदा नहीं कर सकते, क्योंकि वे देश में नाक ढूंढ रहे हैं। बुद्धिजीवियों को यह भ्रम रहा है कि उनकी नाक ही देश की नाक है, लेकिन इधर राष्ट्र को मालूम है कि केवल चुनाव में ही नाक को ढूंढा जा सकता है। हर चुनाव में कोई जीत या कोई हार रहा है, लेकिन देश को अपना नाक नही मिल रहा। जीतने से ही नाक है, लेकिन जीतने के लिए एक अदद नोक चाहिए। इसलिए देश को वही मुद्दे लुभा रहे हैं, जिनके ऊपर नोक चस्पां है। बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे अब इसलिए पिटने लगे क्योंकि इनकी न तो नोक है और न ही नाक। उधर कचरे की टेढ़ी-मेढ़ी सुइयों को अब यह विश्वास हो गया कि वे घिसी-पिटी नोक से भी मुद्दा बनकर चुनाव को राजनीति का नाक बना सकती हैं। लिहाजा यह चुनाव तमाम सुइयों को लेकर होगा। ये सुइयां चल गईं तो बहता खून बताएगा कि चुनाव में किसकी नोक तीखी थी। देश फिर नाक ढूंढने की फिराक में जनता के नाक पर चढ़ी सुइयां देख रहा है, उसे बुद्धिजीवियों की नाक नजदीक से भी नजर नहीं आ रही।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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