सम्पादकीय

जीने की मिट्टी को संभालिए

Rani Sahu
11 July 2023 6:52 PM GMT
जीने की मिट्टी को संभालिए
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By: divyahimachal
यूं तो मानसून का अपना सीजन व अपनी हिदायतें हैं, लेकिन जिंदगी की जहमत में सारा माहौल परेशान है। हिमाचल में बुरी खबरों का आलम हर छत को छू रहा है, तो आधुनिक निर्माण की भूमिका नजरअंदाज मानदंडों को कोस रही है। विभागीय कौशल के सारे नमूने, पीडब्ल्यूडी से जल शक्ति विभाग तक के कारनामे और तरक्की की उलफत में विकास के नगीने भरी बरसात में भयभीत हैं, तो इसलिए कि कहीं हमसे चूक हो गई है, हो रही है। यानी एक बरसात हर बार अब आएगी, तो मालूम होगा कि हमें कितना, कैसा और कहां-कहां विकास चाहिए। शहरी और ग्रामीण विकास को अब निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता। कायदे-कानून की परिभाषा के तहत जिंदगी के सामुदायिक, सामूहिक और सार्वजनिक अनुशासन तय हो जाने चाहिएं। लगातार थुनाग बाजार में पहाड़ से आती बाढ़ में बहता मलबा बार-बार बता रहा है कि कहीं जीने की मिट्टी खराब है, तो बरोट में डूबी कैंपिंग साइट बता रही है कि पर्यटन की तलाश में हम कहीं चूक कर रहे हैं। पानी के बहाव में बहते वाहन बता रहे हैं कि प्रकृति का ध्वंस कहीं जरूरत से ज्यादा घाव दे रहा है। कहीं तो बरसात ने माहौल को इतना रुला दिया कि राज्य के आंसू अब गली-कूचों में बहने लगे।
इस पर भी राजनीतिक विरोध का तुर्रा यह कि हिमाचल में कायदे-कानून अमल में न आएं। सरकार अगर सडक़ों के किनारे निर्माण को टीसीपी कानून के दायरे में लाना चाहती है, तो विपक्ष चाहता है कि ऐसे मंतव्य की अर्थी ही उठ जाए। यही नहीं, जहां एरिया विकास एजेंसी यानी साडा का गठन भी हुआ, उसके मायने ही खत्म कर दिए गए। शहरी विकास योजनाओं से ग्रामीण क्षेत्रों को बाहर निकालने का सियासी दांव पेंच इस कद्र हावी है कि टीसीपी कानून की धज्जियां उड़ा दी गईं। पहाड़ छीले जा रहे हैं, क्योंकि वाहनों को गुजरने के लिए गति और सडक़ की चौड़ाई अधिक चाहिए। हिमाचल के हिस्से में आई जमीन का सार्वजनिक प्रयोग तो वन ने छीन लिया। सत्तर फीसदी वन क्षेत्र के बाद जो जमीन बची, वही हमारे आगे बढऩे का विकल्प है। घटती जमीन ने विकास का पर्याय पहाड़ की खुदाई में ढूंढा और इस तरह प्रकृति के खिलाफ मजबूरन युद्ध होने लगा है। पिछले पचास सालों से सेटेलाइट टाउन की मांग हिमाचल में होती रही, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। इसी दौरान हिमाचल की जीवन शैली ने अबाधित निर्माण के तहत गांव-देहात तक कई मिनी टाउनशिप बना दिए, जबकि शहरों और धार्मिक स्थलों ने जल निकासी को अवरुद्ध करके नवनिमाण के घातक चमत्कार कर दिए। नए बाजारों या फैलते बाजारों ने यह ध्यान नहीं दिया कि बढ़ती गतिविधियों के कारनामों ने जमीन को खोद कर खंजर बना दिया है। इसी तरह पर्यटन क्षेत्र में आ रहा उछाल अब निर्माण की भुजाओं से दुरुह क्षेत्रों का बेतरतीब दोहन कर रहा है। पर्यटन की ऐसी इकाइयों का न कोई मर्यादित आचरण बना और न ही विभागीय नियम सामने आए।
ऐसे में पर्यटकों की संख्या को पांच करोड़ तक पहुंचाने के मायने मनाली में फंसे पर्यटकों से पूछें या दरकती सडक़ों की हालत से जान लें। अगर बरसात में हम सत्तर लाख हिमाचलवासियों को भय से मुक्त नहीं कर पा रहे, तो पांच करोड़ पर्यटकों की वार्षिक आमद को चिंतामुक्त करने के लिए आपदा प्रबंधन की व्यापक तस्वीर बनानी पड़ेगी। विडंबना यह है कि सरकार एक अदद हेलिकाप्टर को हासिल करने के लिए अपनी शर्तें नहीं मनवा पा रही, तो केंद्रीय मदद और आपदा प्रबंधन के राष्ट्रीय मानक हिमाचल के प्रति कब उदार होंगे। पूर्वोत्तर राज्यों की तर्ज पर हिमाचल को ऐसी आपदाओं के समय हेलिकाप्टर की कई उड़ानें चाहिएं, तो ये सत्तर फीसदी जंगल उगाने वाले राज्य को केंद्र की तरफ से मुफ्त उपलब्ध करानी चाहिए। इस आपदा ने हिमाचल की एक सामाजिक एवं मानवीय तस्वीर भी पेश की है। मनाली, शिमला, धर्मशाला व कई अन्य स्थानों के होटल मालिकों-टैक्सी यूनियनों ने अपनी ओर से यहां-वहां फंस गए पर्यटकों को मुफ्त सुविधाएं देने का ऐलान किया है। यह केवल हिमाचल में ही हो सकता है कि बचाव में व्यापारिक पक्ष भी पूरी तरह समर्पित है।
Rani Sahu

Rani Sahu

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