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अगर काशी (Kashi in Varanasi) के पुरोहितों की नहीं चली होती तो आज ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Masjid) का विवाद खड़ा नही होता
शमित सिन्हा
अगर काशी (Kashi in Varanasi) के पुरोहितों की नहीं चली होती तो आज ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Masjid) का विवाद खड़ा नही होता. अगर मराठों की चल गई होती तो वहां मस्जिद की जगह शिव मंदिर (Shiva Temple) खड़ा होता. बात 27 जून 1742 की है. इस वक्त इंदौर के मल्हारराव होल्कर काशी में ध्वस्त किए गए शिव मंदिर के फिर से निर्माण का बीड़ा उठाते हैं. क्योंकि हिंदू पुराणों की मान्यताओं के मुताबिक यहां अविक्तेश्वर शिवलिंग मौजूद है जिसे आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर दिया था. पुणे के पेशवा से मल्हारराव होल्कर मंदिर बनाने की इजाजत लेते हैं और 20 हजार सैनिकों के साथ ज्ञानव्यापी मस्जिद को ध्वस्त करने का लक्ष्य लेकर काशी की ओर कूच करते हैं. लेकिन तभी काशी के पुरोहितों का एक दल उनके काशी आने का विरोध करता है. मराठा शक्ति को चलाने वाले पेशवा खुद ब्राह्मण हुआ करते थे. मराठा शक्ति ब्राह्मणों का अपमान करना पाप समझा करती थी. ऐसे में काशी के इन पुरोहितों के विरोध की वजह से मल्हार राव होल्कर की 20 हजार की सेना वापस लौट गई और ज्ञानव्यापी मस्जिद सुरक्षित रह गई. अगर मल्हार राव होल्कर की सेना आगे कूच कर काशी पहुंच जाती तो ज्ञानव्यापी मस्जिद ध्वस्त कर दी जाती. वहां शिव मंदिर का निर्माण हो जाता.
यह मराठा शक्ति का वो सुनहरा दौर था जब छत्रपति शिवाजी महाराज के पोते शाहू महाराज गद्दी में विराजमान (1749 तक) थे. उनके संरक्षण में पेशवाओं ने मराठा शक्ति का लोहा अटक से कटक तक मनवा लिया था. ना सिर्फ भारत, बल्कि विश्व के गिने-जुने योद्धाओं में से एक बाजीराव प्रथम की थोड़े ही वक्त पहले 1740) मौत हुई थी. (बाद के अंग्रेज इतिहासकारों ने बाजीराव प्रथम की तुलना जूलियस सीजर और नेपोलियन बोनापार्ट से की है) उनके बाद बालाजी बाजीराव उर्फ नानासाहेब पेशवा बने थे. अभी पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) नहीं हुई थी. अफगानी शासक अहमदशाह अब्दाली के हाथों हुई पानीपत में बुरी हार से पहले पेशवाओं की ताकत को चुनौती देने की स्थिति में दिल्ली के मुगल शासक नहीं थे. मराठा शक्ति अभी पुणे के पेशवा, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड और नागपुर के भोसले के खेमों में बंटी नहीं थी. ये मराठा क्षत्रप धीरे-धीरे अपने क्षेत्रों में मजबूत हो रहे थे, लेकिन केंद्रीय शक्ति यानी शाहू महाराज और पेशवा के आदेशों के मुताबिक ही चला करते थे.
इसलिए बच गई ज्ञानव्यापी मस्जिद, मराठों के सामने आ गए काशी के पुरोहित
काशी के पुरोहितों को इस बात का डर था कि मल्हारराव होल्कर की सेना जब लौट जाएगी, तब दिल्ली से मुगल शासक बदला लेने के लिए अपनी सेना काशी भेज देंगे. इससे बहुत खून बहेगा. लेकिन काशी के पुरोहितों ने यह अंदाज़़ नहीं लगाया कि इस वक्त मुगल साम्राज्य हद से ज्यादा कमज़ोर हो चुका था. उनमें मराठों से टकराने की हैसियत नहीं बची थी. औरंगजेब की मौत 1707 में ही हो चुकी थी. दिल्ली में मोहम्मद शाह रंगीला नाम का अय्याश मुगल शासक राज कर रहा था. वह एक नाचने वाली के प्यार में पागल था. वो इस हद तक गैर जिम्मेदार राजा था कि उसने उस बाई के कहने पर उसके भाई को अपने एक प्रांत का गवर्नर बना दिया था.
1739 में ईरान के नादिरशाह ने जिस क्रूरता के साथ दिल्ली में हमले कर क़त्लेआम किया था, उससे मुगल राज की जड़ें हिल चुकी थीं. लाल किले की शानो-शौकत धूल में मिल चुकी थी. नादिरशाह कोहिनूर हीरा और मयूर सिंहासन तो उठा कर ले गया था. फिर भी आम जनता के दिलों में मुगल राज की पुरानी प्रतिष्ठा बरकरार थी. इसलिए पुणे के पुरोहितों का एक वर्ग दिल्ली से पंगा लेने को तैयार नहीं था. यही वजह है कि मल्हार राव होल्कर के हाथों वे ज्ञानव्यापी मस्जिद को ध्वस्त होने के बाद के अंजामों की आशंकाओं से काशी के कुछ पुरोहित डर गए थे.
अगर मराठों ने काशी के पुरोहितों की ना सुनी होती, आज वहां ज्ञानव्यापी मस्जिद नहीं होती
होल्कर राजा मूल रूप से धनगर नाम के चरवाहे समाज से जुड़े थे. यह एक पिछड़ी जाति थी. लेकिन इस समाज में स्त्रियों का काफी सम्मान था. उन्हें संपत्तियों में एक चौथाई हिस्सा दिया जाता था. यही वजह है कि होल्कर बहू-बेटियों ने भारत में अलग-अलग जगहों पर अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया. मल्हार राव होल्कर की बहू अहिल्या बाई ने अपने ससुर मल्हार राव होल्कर की इच्छाओं का ध्यान रखते हुए आगे चलकर काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. ज्ञानव्यापी मस्जिद के साथ लगे हुए काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में ही अहिल्याबाई होल्कर की एक मूर्ति स्थापित है.
ज्ञानव्यापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर का संक्षिप्त इतिहास
11 वीं सदी में राजा हरिश्चंद्र ने काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. 1194 में मोहम्मद गौरी ने इसे लूटने के बाद तुड़वा दिया. 1447 में जौनपुर के शासक सुल्तान महमूद ने यहां मस्जिद बनवाई. हालांकि इस बात को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है. 1585 में राजा टोडरमल की मदद से पंडित नारायण भट्ट ने मंदिर बनवाया. 1632 में मुगल शासक शाहजहां ने इसे तुड़वाने की कोशिश की लेकिन स्थानीय लोगों के भारी विरोध से मुगल सेना इस काम को अंजाम नहीं दे पाई. 1669 में औरंगजेब मंदिर को तुड़वाने में कामयाब हुआ. औरंगजेब ने ही इसके ज्ञानवापी परिसर में मस्जिद बनवाई. इस बात के दस्तावेजी सबूतों पर विवाद है.
Rani Sahu
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