सम्पादकीय

गीतांजलि श्री की 'Tomb of Sand' उम्मीद जगाती है कि हिंदी बदलते वक्त के साथ तालमेल बिठाएगी

Rani Sahu
30 May 2022 11:00 AM GMT
गीतांजलि श्री की Tomb of Sand उम्मीद जगाती है कि हिंदी बदलते वक्त के साथ तालमेल बिठाएगी
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हम लोगों में से बहुतों के लिए हिंदी एक परायी भाषा हो गई है. विडंबना यह है कि ये सबसे अधिक बोली जाती है

प्रशांत सक्सेना |

हम लोगों में से बहुतों के लिए हिंदी एक परायी भाषा हो गई है. विडंबना यह है कि ये सबसे अधिक बोली जाती है लेकिन साहित्यिक अंदाज में बहुत कम लिखी जाती है, खास तौर से इन दिनों, जब आपस में संवाद का माध्यम 'हिंग्लिश' हो गया है. किसी भी औसत विद्यार्थी या दफ्तर जाने वाले काम-काजी व्यक्ति से हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला (Madhushala) या महादेवी वर्मा की नीरजा या भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा या नीरज की अविस्मरणीय स्वप्न झरे फूल से के बारे में पूछें तो उन्हें इसके बारे में बहुत कम ही मालूम होगा. शायद अब वे दिन गुजर गए हैं जब फणीश्वर नाथ रेणु की मारे गए गुलफाम (इसी उपन्यास पर फिल्म तीसरी कसम बनी थी) को पढ़ने के बाद आप प्यार, प्यार होने और अनासक्ति/विरह की भाषा के बारे में उत्तेजक सवाल पूछने के लिए प्रेरित होते.

हालात अब बदल गए हैं. चार-पांच दशक पहले स्थिति बिल्कुल अलग थी. यहां तक कि एक औसत व्यक्ति भी मधुशाला का उल्लेख कर लेता था और किसी विषय-वस्तु को नीरज की कविता से जोड़ लेता था. इन "तकलीफदेह परिस्थितियों" में गीतांजलि श्री (Geetanjali Shree) हमें अपनी भाषा के करीब लेकर आईं हैं. यह हिंदी के "प्रभुत्व" का दावा करने के बारे में नहीं है. खास तौर पर देश के उत्तरी हिस्सों में यह एक सामाजिक संवाद स्थापित कर रहा है जो धीरे-धीरे गायब हो गया है.
हिंदी के जाने-माने लेखक-पत्रकार राजेंद्र धोड़पकर कहते हैं, "हिंदी साहित्य को किस तरह जीवित रखा जाए इसको लेकर लेखकगण सामान्य रूप से दुःखी हैं. हिंदी साहित्य और उसके पाठकों के बीच एक स्पष्ट फासला मौजूद है. बोलचाल की भाषा आजकल मूर्खतापूर्ण भाषा में बदल गई है और यही पाठकों को लेखक और उनकी कृतियों से अलग करती है.
वितस्ता पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड की रेणु कौल वर्मा कहती हैं, "हिंदी लेखक बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को एक तेज-तर्रार मार्केटिंग मैन भी होना चाहिए." वे कहती हैं,"केवल बढ़िया लिखना ही काफी नहीं होता है. किसी के मूल कार्य को प्रचारित भी करना होगा ताकि अधिक से अधिक लोग इसके बारे में बात करें और उस कृति को खरीद सकें. किसी भी लोकप्रिय साहित्य को पहचान हासिल करने के लिए कई सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं."
रेणु कौल वर्मा कहती हैं कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म एक हद तक लेखकों को स्वतंत्रता प्रदान करते हैं ताकि वे खुद को बढ़ावा दे सकें. जहां तक लेखकों को रॉयल्टी देने की बात है तो सारा वाणिज्यिक पहलू पारदर्शी रहता है.
हिंदी साहित्य की घटती लोकप्रियता की एक खास वजह यह है कि लेखकों का कोई अपना संघ या मंच नहीं है जहां लेखक अपने लिए खड़े हो सकते हैं. तथाकथित प्रगतिशील लेखक अपने वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं जबकि हिंदी मुख्यधारा के लेखक निराशाजनक रूप से अकेले खड़े होते हैं.
लेखक-पत्रकार राजेंद्र धोड़पकर कहते हैं कि आखिरकार आपको बताने के लिए आपके पास एक अच्छी कहानी होनी चाहिए. यदि आपके पास कोई प्लॉट है तो आपको उसे मूल स्थानीय भाषा में परोसना होगा. दूसरी सभी भाषाओं की तरह हिंदी भी विकसित हो रही है. श्री को अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार एक अच्छी शुरुआत हो सकती है, धोड़पकर कहते हैं.
वाणी प्रकाशन समूह की कार्यकारी निदेशक अदिति माहेश्वरी कहती हैं, "हिंदी लेखकों को नए मुहावरे मिल रहे हैं, उनकी व्याख्या में एक दिलचस्प बनावट है और समाज में हो रहे परिवर्तनों के मद्देनज़र वो खुद को अभिव्यक्त कर रहे हैं."
माहेश्वरी का कहना है कि गीतांजलि को बुकर मिलना एक तरह से वह चिंगारी है जिसका हिंदी साहित्य जगत इंतजार कर रहा था. "उनके लिए ये सम्मान मौजूदा व्यवस्था में कई वांछनीय परिवर्तन लाएगा जैसे लेखक-प्रकाशक के बीच के संबंध, पुस्तकों की मार्केटिंग और इन सबसे बढ़कर हिंदी साहित्य में गुणवत्ता और विविधता देखने को मिलेगी."

सोर्स- tv9hindi.com

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