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- गुलाम नबीः आजादी का...
आदित्य नारायण चोपड़ा; कांग्रेस अब ऐसी पुरानी इमारत बनती जा रही है जिसके जीर्णोद्धार के लिए अगर एक 'ईंट' लगाई जाती है तो साथ की दो ईंटें 'नीचे' गिर पड़ती हैं। देश को स्वतन्त्रता दिलाने वाली इस पार्टी की हालत किसी रंगहीन, गंधहीन व स्वादहीन जैसी गैस की तरह वायुमंडल में फैली 'अखिल भारतीय पार्टी' की तरह होती जा रही है। लोकतन्त्र के लिए यह स्थिति बहुत ही दुखदायी है क्योंकि अपनी शानदार व गौरवशाली विरासत के बावजूद यह पार्टी आज राजनीति में 'असंगत' बनती जा रही है। जाहिर है कि इसके बहुत से कारण होंगे मगर पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री गुलाम नबी आजाद ने आज इसके सभी पदों व सदस्यता से इस्तीफा देते हुए जो कारण गिनाये हैं उनका सीधा सम्बन्ध पार्टी के वर्तमान नेतृत्व की अकर्मण्यता, अदूरदर्शिता व जनसरोकारों से जुड़े कार्यकर्ताओं से सम्पर्क विहीनता से ताल्लुक रखते हैं। लोकतन्त्र में राजनैतिक दलों का नेतृत्व राजतन्त्र के कायदों की तर्ज पर नहीं चला करता। पार्टी नेताओं तक आम आदमी की पहुंच की रास्ते पार्टी के अन्दरूनी तन्त्र के भीतर ही बने रहते हैं। यदि किसी पार्टी के भीतर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों तक को ही अपने नेता से बात करने के लिए वर्षों तक इंतजार करना पड़े तो समझना चाहिए कि पार्टी किसी सल्तनत के शहंशाह की तर्ज पर चल रही है जिसका निजाम बादशाह के चारों तरफ घेरा डाले खुशामदी चलाते हैं। श्री आजाद ने अपने पांच पृष्ठों के लम्बे इस्तीफे में इन्हीं सब बातों की ओर ध्यान खींचने का प्रयास किया है। इसके साथ ही किसी भी राजनीतिज्ञ में राजनैतिक समझ का गुण होना स्वाभाविक माना जाता है। राजनीति को हम विज्ञान इसीलिए कहते हैं कि सफल राजनीतिज्ञ अपने साधारण से साधारण फैसले का फौरी व दूरगामी गुणनफल का आंकलन आंखें बन्द करके ही लगा लेता है। मगर इसके लिए उसे देश व अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का ज्ञाता होना पड़ता है। इन्हें जांचने व परखने का शऊर वह किसी की मदद से नहीं बल्कि स्वयं ही आत्मज्ञान से पैदा करता है। दुनिया में अभी तक कोई ऐसी प्रयोगशाला नहीं बनी है जहां राजनीतिज्ञ पैदा किया जा सकते हों। कांग्रेस को समझना होगा कि यह उस महात्मा गांधी का देश है जिसने 'सत्य के प्रयोग' करके व्यावहारिक राजनीति में सर्वोच्च स्थान पाया और बड़े-बड़े राजनैतिक दर्शनों के होने के बावजूद अपने 'गांधीवाद' को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में सफलता अर्जित की। बेशक वक्त बदल चुका है और देश की राजनीति भी बहुत कुछ बदल चुकी है मगर जो नहीं बदला वह जनता व नेता के बीच की समझ का परिसंवाद नहीं बदला है। जो लोग श्री आजाद के कांग्रेस छोड़ने को लेकर इसकी पिछले विभाजनों व बंटवारे के इतिहास में जाना चाहते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि पहली बार 1924 में जब महात्मा गांधी से मतभेदों के चलते स्व. मोती लाल नेहरू व देशबन्धु चितरंजन दास जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़ कर पृथक स्वराज पार्टी बनाई थी तो कांग्रेस की सम्पत्ति महात्मा गांधी पूरे कांग्रेसियों के लिए आकर्षण का केन्द्र थे।इसी प्रकार 1969 में जब स्व. इन्दिरा गांधी ने पहली बार स्वतन्त्र भारत में कांग्रेस का विभाजन किया था तो उनके साथ-साथ देश की जनता का अपार समर्थन था जिसके आगे उन्हें कांग्रेस से ही बाहर निकालने वाले एक से एक बड़े कांग्रेसी नेता बौने हो गये थे। इसी प्रकार जब 1978 में केन्द्र में पहली बार गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार गठित हो जाने के बाद जब पुनः कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की मंडली ने देश में इमरजेंसी लगाने और इस दौरान जनता के हुए उत्पीड़न का सारा दोष इंदिरा गांधी पर डालते हुए उन्हें पुनः कांग्रेस से निकाला था तो तब भी देश का जनमानस इन्दिरा गांधी के साथ आ चुका था जिसकी वजह से उन्होंने अपनी अलग कांग्रेस पार्टी बना कर 1980 में पुनः सत्ता प्राप्त कर ली थी। कांग्रेस के पास आज कोई इन्दिरा गांधी नहीं है जो अकेले ही अपने बूते पर जनता का समर्थन प्राप्त करके अपनी नई पार्टी को खड़ा कर सके। कांग्रेस की हालत तो आज ऐसी हो गई है जैसा कभी फिराक गोरखपुरी ने लिखा था,''इन्हीं खंडहरों में हैं कहीं बुझे हुए चिराग इन्हीं से काम चलाओ बहुत उदास है रात।'' संपादकीय :अमित शाह की निर्णायक जंगThe Lalit Bekal... जन्नतहर रोज कठघरा बोलेगागहलौत : गुदड़ी के लालअराजकता के कगार पर पाकिस्तानहैदराबाद में तनाव का कारणकहने का मतलब यह है कि कांग्रेस को अपने घर के सभी तिनकों को जोड़ कर ऐसा मजबूत घोंसला तैयार करना होगा जिसमे लोकतन्त्र का बसेरा होने की गुंजाइश लगातार बनी रहे। कांग्रेस छोड़ कर जाने वाले नेताओं के नाम गिनाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस पार्टी में दुर्भाग्य से चाटुकारिता संस्कृति की पैठ स्व. इन्दिरा गांधी के जमाने से ही हुई । उससे पहले पं. नेहरू के जमाने तक कांग्रेस की संस्कृति जनता के बीच से उठ कर आने वाले जन नेताओं की संस्कृति थी। परन्तु दुर्भाग्य से कांग्रेसियों ने इंदिरा जी के बाद भी उनकी ही संस्कृति को अपनाये रखा और दिल्ली नेतृत्व की 'गणेश परिक्रमा' करने वाले नेताओं की तूती बोलती रही जिसकी वजह से कांग्रेस लगातार जनता से कटती रही। मगर चाटुकारों के भरोसे यदि राजनैतिक दल चला करते तो पंजाब में कांग्रेस पार्टी जीती हुई बाजी कभी न हारती। पंजाब में चुनाव कांग्रेस केवल चाटुकारिता संस्कृति के चलते ही हारी। जबकि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में इसकी केवल दो सीटें आयीं। श्री आजाद के त्यागपत्र पर कांग्रेस पार्टी में खुल कर चिन्तन-मनन और बहस होनी चाहिए मगर गणेश परिक्रमा के दीवाने तो इस कागज को जलाने की बातें कर रहे हैं। ''खुलेगा किस तरह मजमूँ मेरे मकतूब का या रब कसम खाई है उस जालिम ने कागज को जलाने की।''