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सवालों के भूत हिमाचल सरकार के सामने खड़े हो रहे हैं और इनकी इबारत में क्षेत्रवाद का हौआ मुखातिब है। कोविड काल की परेशानियों से आजिज लोगों का धंधा पूरी तरह लौटे या न लौटे या रोजगार खो चुके युवाओं को आजीविका का नया सहारा मिले या न मिले, हिमाचल की राजनीति अपने हित में सोच रही है। आश्चर्य यह कि प्रदेश ने यह सोचना बंद कर दिया है कि कोविड से मौत के आंकड़ों में, अस्पताल व्यवस्था क्यों सरकारी क्षेत्र को अपराधी बना रही है। क्यों फोरलेन निर्माण की परिधि में ऊना का मुआवजा नूरपुर में लागू नहीं हो पा रहा या एक केंद्रीय विश्वविद्यालय आगे की कितनी चुनावी पारियां खेलकर भी अपनी हैसियत के दर्शन देने में नाकाम दिखाई दे रहा है। क्या किसी ने गौर किया कि धड़ल्ले से खोले गए निजी विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग या बीएड कालेज आज बंद क्यों हो गए। एक सौ चालीस के करीब सरकारी कालेजों में से 66 संस्थानों में प्रिंसीपल क्यों नियुक्त नहीं हुए। मानव भारती जैसे विश्वविद्यालय की डिग्रियों से बने अध्यापकों का रिकार्ड खंगालने की नौबत क्यों आई। आवाजें फिर से सुनी जाएंगी और जनप्रतिनिधि या तो छोटे मंच पर बड़ी घोषणाएं तराशते हुए नजर आएंगे या छोटे से उद्घाटन के लिए बड़े मंच सजाएंगे। उपचुनावों के गले में टंगा रेशमी रूमाल देखा जा सकता है और यह करोड़ों के वादों का परिचायक भी है।