सम्पादकीय

राजनाथ सिंह की सदाशयता

Triveni
18 July 2021 1:30 AM GMT
राजनाथ सिंह की सदाशयता
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रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने चीन के मुद्दे पर दो भूतपूर्व रक्षामन्त्रियों सर्वश्री शरद पवार व ए.के. अंटोनी से सलाह- मशविरा करके लोकतन्त्र की उस महान परंपरा को प्रतिष्ठित किया है

रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने चीन के मुद्दे पर दो भूतपूर्व रक्षामन्त्रियों सर्वश्री शरद पवार व ए.के. अंटोनी से सलाह- मशविरा करके लोकतन्त्र की उस महान परंपरा को प्रतिष्ठित किया है जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय दलगत मामलों से ऊपर उठकर समस्त देश का होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा न तो किसी सत्तारूढ़ दल का विशेष अधिकार होती है और न किसी विपक्षी दल की दया की मोहताज होती है बल्कि यह समूचे राष्ट्र की समन्वित जिम्मेदारी होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सरकार और विपक्षी दलों की चिन्ताएं जब एक समान होंगी तभी सीमा पर जान हथेली पर रख कर लड़ने वाले वीर जवानों को समूचा राष्ट्र अपना समर्थन और बल देता लगेगा। अतः श्री राजनाथ सिंह के इस कदम को लोकतन्त्र की उस भावना को मजबूत करने वाला कहा जायेगा जिसके तहत राष्ट्रीय सुरक्षा को राजनीति से ऊपर उठ कर जनता द्वारा चुने गये सभी प्रतिनिधि अपनी सहमति और सन्मति से देश को सर्वोपरि रख कर मानते हैं। वैसे भी श्री राजनाथ सिंह एेसे कुशल राजनीतिज्ञ माने जाते हैं जिनमें सभी पक्षों की राय सुन कर सहमति विकसित करने की अद्भुत क्षमता है। सही समय पर सटीक टिप्पणी करना उनका आज की राजनीति में विशिष्ट गुण है। वह वर्तमान सत्तारूढ़ संगठन के एेसे उदात्त सदस्य हैं जिसमें अपने विरोधी से असहमत होते हुए भी उसे अपने साथ लेकर चलने की विलक्षण प्रतिभा है।

रक्षामन्त्री ने अपने पूर्ववर्ती मन्त्रियों से विचार-विमर्श इसीलिए किया जिससे रक्षा मामलों पर वह उनकी विशेषज्ञता का भी लाभ उठा सके और सुरक्षा से जुड़े संजीदा मामलों पर उनके विचारों का लाभ भी उठा सकें। क्योंकि किसी भी पूर्व रक्षामन्त्री से सुरक्षा से जुड़े संजीदा मामले पोशीदा नहीं होते मगर विपक्ष में होने के बावजूद वे उनका जिक्र इसलिए नहीं करते क्योंकि वे मन्त्री के रूप में ली गई शपथ से बन्धे होते हैं। यही वजह है कि कोई भी पूर्व रक्षामन्त्री कभी भी विपक्ष में जाने के बाद सरकार की आलोचना करते हुए भी राष्ट्रीय सुरक्षा के संवेदनशील पक्ष का खुलासा नहीं करता है। वैसे भी श्री अंटोनी व पवार देश के वरिष्ठतम राजनीतिज्ञों में हैं और जानते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा किसी पार्टी का नहीं बल्कि राष्ट्र का मसला होता है। श्री राजनाथ सिंह ने इन दोनों नेताओं के साथ जो बैठक की उसमें रक्षा सेनाओं के प्रमुख जनरल रावत व थल सेनाध्यक्ष जनरल नरवणे भी मौजूद रहे। इससे यह पता चलता है कि श्री सिंह लद्दाख के मोर्चे पर जो कुछ भी भारत व चीन की सेनाओं के बीच घट रहा है उस पर पूर्व रक्षामन्त्रियों की सन्मति भी चाहते थे। श्री सिंह की इस सदाशयता से इतना आभास जरूर होता है कि कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आने पर केवल राष्ट्रीय हितों का संरक्षक होता है जिसमें प्रत्येक राजनीतिक दल की भागीदारी लेकर उसे और अधिक सशक्त व मजबूत बनाया जाता है जिससे सरकार का कोई कदम समूचे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करे।
लोकतन्त्र का मूल मन्त्र भी सहभागिता ही होता है। समझने वाली बात यह होती है कि विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों के सांसदों का चुनाव भी आम जनता द्वारा अपने एक वोट की उस ताकत द्वारा किया जाता है जिससे वह सत्तारूढ़ दल के सदस्यों का चुनाव करती है। अधिक संख्या वाला दल सत्ता में आ जाता है जबकि कम संख्या वाला दल विपक्ष में बैठ जाता है मगर दोनों में से किसी की भी जिम्मेदारी उन्हें चुनने वाली जनता के प्रति कम नहीं होती। इसी वजह से लोकतन्त्र में बहुमत का शासन होने के बावजूद उसमें अल्पमत की सहभागिता इस प्रकार नियत होती है कि जनता व राष्ट्र के हितों के साथ न तो किसी प्रकार का समझौता हो सके और न कोई कमीबेशी रह सके। भारत की पूरी संसदीय प्रणाली इस बात की गारंटी करती है कि अल्पमत की चिन्ताओं का संज्ञान व समावेश बहुमत इस प्रकार करे कि उसके समस्त कार्यों को आम सहमति प्राप्त हो। हालांकि इस प्रथा के निर्वहन करने के मध्य दलगत हित ऊपर आ जाते हैं जिसकी वजह से हमें टकराव की आवाजें सुनाई पड़ती हैं और उनका विस्तार संसद के बाहर सड़कों तक भी हो जाता है परन्तु हमारी संसदीय व्यवस्था में यह प्रावधान है कि आवश्यकता पड़ने पर बहुमत को भी अल्पमत की आवाज से सहमत होने के लिए मजबूर होना पड़े परन्तु इसके लिए हर स्तर पर संसदीय नियमों के पूरी शुचिता के साथ पालन करने की जरूरत होती है। मगर राजनीति में एेसे दौर भी आते रहते हैं जिन्हें राजनीतिज्ञों के बीच से उठ कर ही कोई न कोई व्यक्तित्व अपने कन्धों पर सारा भार लेकर संशोधित कर देता है।
श्री राजनाथ सिंह एेसा ही व्यक्तित्व हैं जिसने कोरोना संक्रमण की पहली लहर के दौरान सबसे पहले किसानों की सुध ली थी और उनके खेती-बाड़ी करने के अधिकार को महफूज रखा था। इसके साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर जब चीन की भारत में घुसपैठ को लेकर सवाल खड़े हुए थे तो उन्होंने ही सबसे पहले देशवासियों को सचेत किया था कि चीनी सेना हमारी सीमाओं में घुस आयी है और काफी बड़ी संख्या में आयी है। इसके बाद ही भारत के रणबांकुरे जवानों ने चीनी सेना को पीछे खदेड़ना शुरू किया था। राजनाथ सिंह के इस पारदर्शी रुख से भारत के हर नागरिक की भुजाएं फड़कने लगीं थी और नागरिकों में भाजपा व कांग्रेस का भेद मिट गया था। हर नागरिक चाहता था कि चीन अपनी हदों में वापस जाये और इसके लिए भारतीय सेनाओं को खुली छूट मिले। श्री राजनाथ सिंह के रक्षामन्त्री रहते एेसा भी हुआ और भारतीय सेनाओं ने पूर्वी लद्दाख में एेसी ऊंचाई पर डेरा डाला कि एक बार चीन उससे घबरा कर बातचीत की मेज पर आ गया। अब लद्दाख सीमा पर क्या हालात हैं, संभवतः इस बारे में उन्होंने पूर्व रक्षामन्त्रियों से चर्चा की होगी और समस्या का हल निकालने के बारे में उनकी राय से भी लाभ उठाया होगा। वैसे भी लोकतान्त्रिक प्रणाली में राजनीति मित्र बनाने की कला को ही कहा जाता है और राजनाथ इसी सिद्धान्त को मानने वाले व्यक्ति हैं जिसकी वजह से विपक्ष तक मंे उनके आलोचक ढूंढे से ही मिल पाते हैं।


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