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- धर्म से अध्यात्म तक
विनोद शाही: उन्नीसवीं सदी के आधुनिक नवजागरण की सांस्कृतिक विरासत हमारे लिए अब भी अर्थपूर्ण है। तब भारत की सोच में एक सकारात्मक तब्दीली दिखाई देनी आरंभ हो गई थी। धर्म का सांप्रदायिक रूप पीछे छूट रहा था और उसे मानवीय संस्कृति के रूप में देखा जाने लगा था।
इसके पीछे हमारा शिक्षित मध्य वर्ग था, जो धीरे-धीरे वैज्ञानिक चेतना से युक्त हो रहा था। इस बात को जमीनी रूप दिया था, ब्रह्मो सभा (राममोहन राय 1828), ब्रह्मो समाज (केशवचंद्र सेन 1866), आदि ब्रह्मो समाज (देवेंद्रनाथ टैगोर), तत्वबोधिनी सभा (1839), धर्म सभा (राधाकांत देव), प्रार्थना सभा (आत्माराम पांडुरंग, भंडारकर और रानाडे 1876) और सत्यशोधक समाज (ज्योतिबा फुले 1873) जैसी संस्थाओं ने। और इस सोच की परिणति हुई थी महात्मा गांधी की 'सर्व धर्म प्रार्थना' सभाओं के रूप में।
धर्म अपनी सांप्रदायिक जमीन के साथ अलग खड़े रह जाते हैं। धीरे-धीरे धर्म निरपेक्षता को एक विदेशी आयात बता कर गैरजरूरी बनाया जाने लगता है। राजनीति का वोट की राजनीति वाला जो रूप नुमाया होता है, वह धीरे-धीरे देश को हिंदू, मुसलिम और सिख राजनीति के सांप्रदायिक उभार की ओर ले जाता है।
हम जो दरअसल हैं और हमें राजनीतिक और सांप्रदायिक प्रचार के द्वारा जो करने के लिए कहा जाता है, उसमें एक बड़ी खाई दिखाई देती है। ऐसे दुष्प्रचार से एक भ्रम पैदा होता है कि हमारी वास्तविक परंपरा आखिर है क्या। यह स्थिति इसलिए भयावह है, क्योंकि उदार हृदय से ताल्लुक रखने वाली सहनशीलता ने जैसे अपनी भाषा खो दी है।
हमारे पास सार्वजनिक रूप में ऐसे हालात का प्रतिरोध कर सकने वाले शब्दों की कमी पड़ गई है। 'क्रांति' शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो लगता है, जैसे हम किसी हिंसक गिरोह के सदस्य हो गए हैं। जब हम 'धर्मनिरपेक्ष' होने की बात करते हैं, तो लगता है, जैसे हम अल्पसंख्यक धर्म-समुदाय के तुष्टीकरण का फायदा उठाने वाली सियासत करने लगे हैं।
समानता, स्वतंत्रता, बंधुता, न्याय, प्रजातंत्र, सर्वोदय और संविधान का सम्मान करने जैसी बातें भले ही अभी तक अर्थपूर्ण लगती हैं, पर वे हमें ऐसे 'पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी' की श्रेणी में ले जाकर खड़ा कर देती हैं, जिसे समाज का एक बड़ा तबका जमीनी हकीकत से कटा हुआ मानता है। उदारता और सहनशीलता को इलेक्ट्रानिक मीडिया चैनल और व्हाट्सऐप समूह कायरता, अकर्मण्यता और पलायन की मानसिकता से जोड़ने में कामयाब होते जाते हैं।
इस तरह हम पाते हैं कि समन्वयी सोच रखने वाले लोगों के पास बहुत थोड़ा सार्वजनिक 'स्थान' बचा है। वे अपनी बात को ठीक से रख पाने लायक नहीं रह गए हैं। रखते हैं, तो उनकी बात इतने कम लोगों तक पहुंचती है कि कहीं खोकर रह जाती है। अगर हम अपने समय की इस दुविधा और सीमा को समझ पा रहे हैं, तो हम पूछ सकते हैं कि विकल्प क्या है?
मौजूदा समय नवजागरण के अधूरे पड़े रह गए लक्ष्यों की पूर्ति के लिए भूमिका बनाने का समय है। पर इस शब्द के साथ भी वही दिक्कत है। 'नवजागरण' और 'प्रबोधन' जैसे शब्द भी अभिजात बौद्धिक के द्वारा ही इस्तेमाल में लाए जाने वाले शब्द हो गए हैं। इनका प्रयोग करने से भी यही लगता है कि सामान्यजन के लिए इनका कुछ खास अर्थ नहीं है।
हिंदू या मुसलमान हुए बगैर जी सकने के तमाम तरीके और रास्ते खो गए हैं। ले-देकर जो बात 'सर्वधर्म समभाव' की बात तक आकर रुक गई है, उसका संबंध भी एक अच्छे हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई होने से होता है। हमारे यहां आधुनिक नवजागरण के आखिरी महानायक महात्मा गांधी हमें वहीं तक ले गए थे।
वे एक अच्छे हिंदू और एक अच्छे मुसलमान को ऐसे आदमी की तरह देखते थे, जो 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' तो कहता था, पर हिंदू और मुसलमान बना रहता था। दोनों धर्मों को, एक ही परमात्मा को पूजने वाले दो अलग धर्मों की तरह देखने की बात, 'न हिंदू न मुसलमान' होने की बात नहीं बन पाई थी। अब इसे लोगों की एक नई धार्मिक सांस्कृतिक 'पहचान' हो जाने लायक बनाना पड़ेगा।
प्रतीकों की वैज्ञानिक व्याख्या करके सभी धर्म खुद को महान और बचाने लायक साबित करते रहते हैं। सबकी दिलचस्पी अपने अपने सत्य को सनातन सिद्ध करने में होती है। पर सच यह है कि यह बात ही विडंबना पूर्ण है। धर्म अपने सत्य को बचाने के लिए जिस विज्ञान की मदद लेता है, वह खुद सत्य के सनातन होने का कोई दावा नहीं करता।
जिन बातों को धर्म विज्ञान की मदद से भी सिद्ध नहीं कर पाता, उन्हें आस्था से बचाने लगता है। जैसे आत्मा और ईश्वर की धारणाएं हैं। उन्हें धर्म सनातन कहता है, उनमें यकीन रखने का आग्रह करता है, उन्हें पाने या पा सकने की बात को सच बनाने के लिए अनेक झूठी सच्ची कथाओं को प्रचारित करता है। फिर वह अनुभव में आनंदित होने की बात का ढोंग करता है।
सब लोग जानते होते हैं कि धार्मिक कर्मकांड से किसी को ईश्वर नहीं मिलता, फिर भी लोग धार्मिक बने रहते हैं। धर्म जो नैतिक दबाव पैदा करता है, वह एक तरफ शक्ति देता है, तो दूसरी तरफ हमें अनेक ऐसे मूल्यों से भी बांधता है, जिन्हें हम विवशता में स्वीकार करते हैं।
पर धर्म में जो कुछ अच्छा है, वह अध्यात्म और ज्ञान की दुनिया से उधार लिया गया होता है। इसलिए वे लोग जो धर्मों की असलियत समझ लेते हैं, ज्ञान प्राप्ति, रूपांतर और मुक्ति के लिए या तो अध्यात्म की ओर चले जाते हैं या विज्ञान की ओर।
जिन समाजों में विज्ञान की भूमिका अहम होती है, वहां धर्म को निजी आस्था की वस्तु मान कर राजनीति के धर्मनिरपेक्ष माडल को अपना लिया जाता है। परंतु हम जानते हैं कि आजादी मिलने के बाद हमने भले ही अपने संविधान तक में धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र वाली व्यवस्था को अपना लिया था, पर हमारा समाज धर्म से बंधा रहा। इससे दो तरह के भारत का जन्म हो गया।
एक अंग्रेजी स्कूलों से पढ़ कर निकलने वालों का भारत था, जो विज्ञान को शक्ति के नए स्रोत की तरह देख रहा था। इसलिए उस समाज की राजनीति भी अलग तरह की थी। लेकिन उसका क्षेत्र सीमित था। वह विश्वविद्यालयों से बाहर नहीं आ सका।
इसलिए हमारी राजनीति के लिए शक्ति का स्रोत वे बहुसंख्यक लोग हो गए, जो धर्म से बंधे थे। बौद्धिक लोग सब समझते थे, पर उनकी बात समझने वाले लोग नहीं बचे रह गए थे। इससे धर्म के मनमाने इस्तेमाल के हालात पैदा हो गए।
यहां पहुंच कर अब जरूरी हो गया है कि हम धर्म के सवाल पर चुप न बैठे रहें। जो वाजिब सवाल हैं, उन्हें उठाने की हिम्मत दिखाएं और अपने लोगों के बीच जाकर उनसे पूछें कि उन्हें क्या चाहिए? धर्म या मुक्ति? हिंदू राष्ट्र या विकसित भारत?
हिंसा की संस्कृति या मानवीय सभ्यता? धर्म के पैरों तले से उसकी जमीन उस वक्त खिसकने लगती है, जब हम धर्म और अध्यात्म में फर्क करने लगते हैं। इसलिए सच्चे अर्थ में आध्यात्मिक होना, हमारे समय का नवजागरण और सांस्कृतिक इंकलाब है।