- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- भूलते भागते क्षण
अमिताभ स.: पुरानी दिल्ली से निकल कर सिनेमा के पर्दे पर छाए एक फिल्मी सितारे ने कहा कि फिल्मों पर पहला अधिकार तो सिनेमाघरों का ही है। सच यही है। एक पीढ़ी के लोगों को रह-रह कर वह जमाना याद आता है, जब खुशी और गम, दोनों दौर में सिनेमा ही सहारा था। परीक्षा खत्म हुई या पास हुए तो सिनेमा। हार गए, तो भी दिल बहलाने के लिए सिनेमा। टिकटों के लिए मारामारी और 'ब्लैक' तक।
इस हद तक कि मई 1947 में मुल्क में बंटवारे के दंगे-फसाद के बीच दिलीप कुमार और नूरजहां की जोड़ी की 'जुगनू' फिल्म आई, तो भी फिल्म ने धूम मचा दी और फिल्म की भारी कमाई हुई। वह 'तम्बुओं में सिनेमा' का दौर था। सर्कस के तंबुओं की तरह 'टूरिंग टाकीज' भी शहर-शहर घूमती थीं। साल-डेढ़ साल के बाद फिर किसी दूसरे शहर या उसी शहर के अन्य इलाके में सारे तामझाम के साथ उसे उखाड़ कर डेरा जमा लिया जाता था।
आगे दरियां बिछा दी जातीं, पीछे बेंच होते।1950 से पहले कंपनी के नाम से सिनेमा को जाना जाता था। औरतों के लिए थोड़ी-सी अलग कुर्सियों का इंतजाम रहता था। हालांकि औरतें कम ही सिनेमा देखने आती थीं। फिल्म से पहले कोई वृत्तचित्र या डाक्यूमेंट्री का साप्ताहिक बुलेटिन दिखाया जाता था। उसके बाद फीचर फिल्म शुरू होती थी।
नब्बे के दशक से शुरू मल्टीस्क्रीन सिनेमा के चलन से पहले पुरानी और नई दिल्ली के ज्यादातर सिनेमाघर 1930 के दशक में बने हैं। उससे पहले सिनेमाघर ही थियेटर थे, जहां नाटकों का मंचन होता था। दिल्ली के सदर बाजार की बाराटूटी चौक पर 'वेस्टएंड' सिनेमा 1935 में बना था। पहले थियेटर था, पारसी नाटकों का खूब मंचन होता था। तब शेक्सपीयर के ज्यादातर नाटकों का पारसी में रूपांतर कर मंचन किया जाता था।
फिल्म के बीच-बीच में ही फेरी वाले चाय-चाय करते, कोका कोला की बोतल पर ओपनर से टन-टन करते घूमते रहते थे। एक मजेदार वाकया है 1954 का। यहीं फिल्म 'हनुमत जन्म' चल रही थी। एक बंदर रोज खिड़की से कूदता- फांदता अंदर आता और अपनी तयशुदा सीट पर बैठ कर फिल्म देखता। उसे फिल्म की ऐसी लगन लगी कि वह हर शो में आकर, फिल्म का 'आनंद' उठाने लगा। बंदर फिल्म देखने अंदर न आ पाए, कोई रोकथाम का तरीका नहीं लागू किया जा सका।
हौज काजी के नजदीक सिरकीवालान की लंबी गली के बगल में सिनेमाघर 'एक्ससेल्सियर' की 1930 से 1980 तक क्या शान थी! दिलीप साहब की फिल्मों के समारोह तक होते थे। जानकार बताते हैं कि 1952 में महबूब खान की 'आन' का वर्ल्ड प्रीमियर यहीं हुआ था। सोहराब मोदी की सुपरहिट फिल्म 'पुकार' के साथ 1930 में 'सिनेमा एक्ससेल्सियर' चालू हुआ था। इससे पहले 'आलमआरा' फिल्म यहीं सत्रह बार लगी और 'मुगल-ए-आजम' दस बार। 'मुगल-ए-आजम' की रीलें हाथियों पर रख कर शाही जुलूस की माफिक पहुंचती थीं।
लोगबाग 'पाकीजा', 'मुगल-ए-आजम' वगैरह की गजलों के इस कदर दीवाने थे कि बाकायदा फिल्म देखने कापी-कलम लेकर आते थे, ताकि देखते-देखते गजलें लिखते जाएं। तब 'यू-ट्यूब' या 'कारवां' का जमाना नहीं था कि मनचाही गजल या गीत देख-सुन सकें। आज तालों से बंद हाल की ग्रिल के भीतर झांक- झांक कर बीते जमाने की याद एक अजीब भाव लाता है। कई सिनेप्रेमी खंडहर होती दीवारों-दरवाजों से सट कर आज भी फोटो खिंचवाने से नहीं चूकते।
एक जमाने में कनाट प्लेस से बाहर दिल्ली का बेस्ट सिनेमा हाल चांदनी चौक का 'मोती' था, जिसमें विक्टोरियन वास्तुकला देखने लायक है। सामने शानदार गुम्बद बना था। 1960 तक दिन में केवल चार शो होते रहे, सुबह नौ से बारह बजे का सुबह का शो दिल्ली में पहले यहीं शुरू हुआ। तब इस शो में अंग्रेजी फिल्में चलाई जाती थीं।
उस दौर में कनाट प्लेस और पहाड़गंज को दो सिनेमा घर में और चांदनी चौक के एक सिनेमा हाल में ही अंग्रेजी फिल्में प्रदर्शित होती थीं। हालांकि 1970 के दशक से दक्षिण दिल्ली के चाणक्यपुरी के एक सिनेमा घर में अंग्रेजी फिल्में लगने लगीं। खास बात है कि बंद होने तक टिकटों के दाम के साथ पैसे जुड़े रहे। मसलन- 33 रुपए 52 पैसे से लेकर बाक्स के 80 रुपये 67 पैसे तक।
नई दिल्ली बनने से पहले अंग्रेज और रईस हिंदुस्तानी कश्मीरी गेट के गलियारों में तफरीह, खरीदारी और मस्ती करते फिरते थे। इन्हीं दिनों 1923 में कश्मीरी गेट की शान के एक सिनेमा घर चालू हुआ था। इसकी खास बात यह थी कि यहां औरतों के लिए विशेष सीटें रिजर्व रहती थीं। 1960 के दशक में औरतें दरियागंज और चांदनी चौक के पर्दाबागों में मिलतीं और वहीं से तांगे की टकाटक सवारी करती यहां पहुंच जातीं। तब दस आने (करीब 62 पैसे) की टिकट के लिए औरतों से सवा रुपए वसूले जाते थे, क्योंकि अन्य सिनेमा घरों के बजाय उसी हाल में औरतें खुद को ज्यादा महफूज समझती थीं।