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by Lagatar News
Dr. Santosh Manav
अब यह तय है कि कांग्रेस का नया अध्यक्ष नेहरू-गांधी परिवार से नहीं होगा! ऐसा क्यों? अगर गांधी परिवार से नहीं होगा, तो कौन होगा? और इससे कांग्रेस को क्या फायदा होगा? 14 मार्च 1998 याद कीजिए. सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष थे. अपमानजनक तरीके से उन्हें हटाया गया था. भारत के राजनीतिक इतिहास में किसी पार्टी अध्यक्ष को इस तरह नहीं हटाया गया. अखबारों ने यह भी छापा था- पार्टी कार्यालय से जाते समय सीताराम केसरी की धोती तक खोलने की कोशिश हुई. और यह सब तब था, जब केसरी नेहरू-गांधी परिवार के वफादार थे. जंगे-आजादी के सेनानी थे. पांच बार राज्यसभा के सदस्य, एक बार लोकसभा के सदस्य, इंदिरा, राजीव, राव सरकार में मंत्री. पार्टी के वर्षों तक कोषाध्यक्ष. कहा जाता था- खाता न बही, केसरी कहे सो सही. अपमान की पीड़ा केसरी सह नहीं सके. 24 अक्टूबर दो हजार को उनका निधन हो गया. 1998 यानी 24 साल से सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष हैं. बीच में कुछ समय राहुल गांधी भी अध्यक्ष थे. यह कहानी इसलिए कि नया अध्यक्ष कोई भी हो, उसकी बहुत नहीं चलनी है. 'राजा' राहुल ही रहेंगे.
राहुल हैं, तो दूसरे की जरूरत क्यों है? जरूरत इसलिए है कि 1998 से अब तक यानी 24 साल में बीजेपी के नौ अध्यक्ष हो गए. नाम गिन सकते हैं- लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे, बंगारु लक्ष्मण, जन कृष्णमूर्ति, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, अमित शाह और जे पी नड़्डा. इधर, कांग्रेस में मां और बेटा, तो एक नैतिक दबाव है पार्टी के सामने कि यह एक परिवार की पार्टी नहीं है. इसलिए परिवार से बाहर का अध्यक्ष देने की तैयारी है. बीजेपी के इस आरोप का जवाब है कि कांग्रेस का फलक व्यापक है. यह भाई-बहन-मां की पार्टी नहीं है.
28 दिसंबर 1885 को मुंबई के गोकुलदास संस्कृत महाविद्यालय में स्थापित इस पार्टी के पहले अध्यक्ष व्योमेश चंद्र बनर्जी और महासचिव ए ओ ह्यूम थे. 137 साल के इतिहास में इसके अनेक अध्यक्ष गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के थे. कुछ नाम गिन लीजिए- दादा भाई नौरोजी, बदरुदीन तैयबजी, फिरोज शाह मेहता, रहिमतुल्ला सायानी, आनंदमोहन बोस, गोपाल कृष्ण गोखले से – सीताराम केसरी तक. अब तक 56 लोग अध्यक्ष चुने गए और इसमें गांधी-नेहरू परिवार से कितने बने? सिर्फ छह – मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी. यानी दस प्रतिशत से भी कम. फिर भी बीजेपी ने यह तोहमत तो कांग्रेस पर चस्पा कर ही दिया है कि यह एक परिवार की पार्टी है. यह अलग बात है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद इस परिवार पर पार्टी की निर्भरता बढ़ी है. इसलिए यह मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि परिवार से बाहर का अध्यक्ष बनाना बीजेपी को कांग्रेस का जवाब है. यह भी मान सकते हैं कि यह एक टोटका है कि परिवार से बाहर का अध्यक्ष होगा, तो पार्टी के सामने छाया अंधेरा दूर होगा. लगातार चुनाव हार रही पार्टी शायद चुनाव जीतने लगे?
यह सब लिखे जाने तक अध्यक्ष चुनाव के लिए पार्टी की ओर से अधिसूचना जारी हो चुकी है. 24 से नामांकन भी होने लगेगा. 30 सितंबर तक नामांकन है. अगर एक ही पर्चा आया, तो तीस सितंबर को ही पार्टी को मिल जाएगा नया अध्यक्ष. ऐसा नहीं हुआ, तो 17 को वोटिंग और 19 अक्टूबर को गनना.
सोनिया-राहुल नहीं तो अध्यक्ष कौन? अनेक नाम चले. सुशील शिंदे, मुकुल वासनिक, आनंद शर्मा, खड़गे, थरूर, अशोक गहलोत. अब एक नाम दिग्विजय सिंह का सामने आया है. संभव है कि गहलोत या दिग्विजय सिंह में कोई कांग्रेस का नया अध्यक्ष हो. गहलोत राजस्थान से और दिग्विजय मध्य प्रदेश से हैं. माली जाति से आने वाले गहलोत अनुभवी राजनीतिक हैं. तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. दिग्विजय मध्यप्रदेश के लगातार दो बार मुख्यमंत्री रहे हैं. जाति से राजपूत हैं. थरूर अब पीछे छूट गए हैं. गहलोत बने तो राजस्थान में कांग्रेस सत्ता में लौट आएगी. दिग्विजय बने तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता मिलने के प्रबल आसार होंगे. इससे ज्यादा क्या होगा? आखिर असली अध्यक्ष तो राहुल ही होंगे!
राजनीति में चेहरा जरूर महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा महत्व सितारा का होता है. अभी मोदी का सितारा चमक रहा है. ऐसे में कांग्रेस का सितारा कैसे चमकेगा? लेकिन, उम्मीद पर दुनिया टिकी है. क्या पता यह बदलाव सितारा चमका ही दे. और कांग्रेस जनों की राहुल भक्ति देखिए- राहुल बार-बार कह रहे हैं कि उन्हें अध्यक्ष नहीं बनना है. वे अपने कहे पर अटल हैं. लेकिन, लोग हैं कि मान नहीं रहे हैं. राहुल गांधी ने 22 सितंबर को भी साफ किया कि वे कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ेंगे. उन्होंने केरल में मीडिया से बातचीत में यह बात कही और अपने अशोक गहलोत हैं कि उन्हें मनाने गए हैं. क्या पता मना ही लें! 12 राज्यों की प्रदेश इकाई पहले ही यह प्रस्ताव पास कर चुकी है कि राहुल ही अध्यक्ष बनें. कांग्रेस में यह मनाने-रूठने का खेल पुराना है. क्या पता राहुल मान ही जाएं. चलो, आप लोग कहते हो, तो पार्टी के लिए कुछ भी करेंगे, वाला अंदाज हो. क्या कांग्रेस की अवनति के पीछे यह मानसिक गुलामी भी एक कारण नहीं है? सोचिएगा.
Rani Sahu
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