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सोर्स- जागरण
हृदयनारायण दीक्षित।
सर्वोच्च न्यायपीठ में हिजाब पर रोक के विरुद्ध सुनवाई चल रही है। कुछ मुस्लिम छात्राओं ने स्कूलों में हिजाब पहनने पर रोक को चुनौती दी है। कर्नाटक हाई कोर्ट ने स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध के आदेश को सही बताया था। यह भी कहा था कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं। इससे पहले महिलाओं के लिए त्रासद रहे तीन तलाक पर भी मुकदमेबाजी हुई थी। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तीन तलाक को आस्था का विषय बताते हुए कहा था कि तीन तलाक 1400 साल से चली आ रही प्रथा है और आस्था के विषयों पर संवैधानिक नैतिकता एवं समानता का सिद्धांत नहीं लागू होता।
पीठ के पास पवित्र कुरान का अंग्रेजी अनुवाद था। उसकी ओर से प्रश्न आया कि यह प्रथा तो कुरान में नहीं है। तब सिब्बल ने कहा था कि इस्लाम के आरंभ में कबीलाई व्यवस्था थी। यह बात सही है। दुनिया की सभी समाज व्यवस्थाएं विकास के प्रथम चरण में कबीलाई थीं। मानव सभ्यता के प्रथम चरण में जीवन धीरे-धीरे सामूहिक हो रहा था। सभी समाजों में अंधविश्वास थे। वे सभी सामाजिक विकास की तमाम मंजिलें पार करते हुए पुराने अंधविश्वासों से मुक्त होते रहे।
यूरोपीय समाज ने अपनी दार्शनिक चेतना प्राचीन यूनान से पाई। सुकरात ने देव आस्थाओं को जानने पर जोर दिया। उन्हें मृत्युदंड मिला। शिष्य प्लेटो ने सुकरात के विचार का विकास किया। अन्य सभ्यताओं की तरह यूरोप में भी सामंतवाद था। यह विकसित होकर राजतंत्र बना। महिलाओं की स्थिति खराब थी। लाखों निर्दोष महिलाओं को डायन बताकर सार्वजनिक रूप से मारा गया।
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने अदालत में कहा था कि पुरुषों में निर्णय लेने की क्षमता महिलाओं से बेहतर होती है। यह आपत्तिजनक वक्तव्य है। महिलाएं सभी क्षेत्रों में अहम भूमिका निभा रही हैं। यूरोपीय पृथ्वी की गतिशीलता का तथ्य नहीं जानते थे। गैलीलियो ने बताया कि पृथ्वी गोल है। उनका उत्पीड़न हुआ। पंथिक गुरु पृथ्वी को चपटी मानते थे। कापरनिकस के निष्कर्षों से प्राचीन मान्यताएं धाराशाई हो गईं। सामाजिक विकास के क्रम में यूरोपीय भी वैज्ञानिक तथ्य मानने लगे। पुरानी मान्यताएं कालबाह्य हो गईं।
भारत के वैदिक समाज में गण समूह थे। प्राचीन काल में समुद्र के पार की यात्रा वर्जित थी। कौडिन्य जैसे लोगों ने संस्कृति और दर्शन का विचार लेकर समुद्र पार की यात्रा की। वास्तव में आदर्श समाज नदी के समान प्रवाहमान रहते हैं। कालबाह्य छोड़ते रहते हैं। काल संगत अपनाते हैं। रिलीजन, पंथ या मजहब से जुड़े ग्रंथ अपने उद्भव के समय के उपयोगी विचार हो सकते हैं, लेकिन हजार-दो हजार वर्ष पुरानी मान्यताओं के आधार पर आदर्श समाज का पुनर्गठन नहीं हो सकता।
वैदिक समाज के प्रारंभिक चरण में वर्ण व्यवस्था नहीं थी। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था दिखाई पड़ती है। इसी समय उपनिषद के ऋषियों ने तमाम सामाजिक रूढ़ियों पर हमला किया। बाद में जातियां बनीं। कुछ प्राचीन ग्रंथों में जातिभेद के उल्लेख हैं। इसका विरोध हुआ। भक्ति आंदोलन की प्रेरणा यही प्रथाएं थीं। बुद्ध, शंकराचार्य, नागार्जुन आदि ने नया दर्शन दिया। स्वामी दयानंद ने धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती दी। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाया। गांधी, आंबेडकर और डा. हेडगेवार आदि ने अपने-अपने ढंग से भारत की सामाजिक चेतना को गतिशील बनाने का काम किया।
बेशक हिंदू जीवन में भी आस्था के तमाम विषय हैं, लेकिन यहां आस्था पर भी बहस की परंपरा है। तर्क और विमर्श में जो काल संगत है, वही सर्वस्वीकार्य है। आस्था बुरी नहीं होती, किंतु उसका आचरण और व्यवहार देशकाल के अनुरूप ही होना चाहिए। भारत में आस्था पर भी सतत संवाद की परंपरा है। सतत संवाद से समाज स्वस्थ रहता है और गतिशील भी। यूरोपीय समाज ने आस्था और विश्वास के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण को महत्ता दी है। यही स्थिति अन्य विकसित देशों की है। नि:संदेह सभी पंथिक ग्रंथों में तमाम उपयोगी ज्ञान भी हैं। परिस्थिति के अनुसार उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए, लेकिन आज के परिवेश में हम डेढ़-दो हजार वर्ष प्राचीन सामाजिक प्रथाओं में नहीं जी सकते।
इतिहास अतीत होता है। अतीत व्यतीत होता है, मगर जीवन का मुंह भविष्य की ओर होता है। आधुनिक तकनीकी से जानकारियों का विस्फोट हुआ है। दुनिया में प्राचीन मान्यताओं पर विचार-विमर्श हो रहे हैं। जीवन प्रतिपल नया है। चुनौतियां नई हैं और समस्याएं भी। आज के जीवन में देशकाल के सापेक्ष विचार आवश्यक हैं। अपनी विकास यात्रा में मनुष्य ने बहुत कुछ छोड़ा है।
कालबाह्य रूढ़ियां छोड़ी हैं। तमाम पंथिक अंधविश्वास भी छोड़े हैं। अंधविश्वास अचेत मन का परिणाम थे। भारत के मनुष्य ने आस्थामूलक धर्म की भी पड़ताल की है। गीताकार ने धर्म के पराभव को ध्यान से देखा और स्वीकार किया है। गीता में इसे धर्म की ग्लानि कहा गया है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा काल के प्रभाव में नष्ट हो गई और अर्जुन से कहा कि वही ज्ञान मैं तुमको दे रहा हूं।
संप्रति धर्म, मजहब और रिलीजन से जुड़े विषयों पर न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाने की आदत बढ़ी है। विद्वान न्यायाधीश ऐसे विषयों की सुनवाई करते हुए संबंधित पंथ के पवित्र ग्रंथों का सहारा लेते हैं। न्यायपालिका संवैधानिक एवं विधिक विषयों के निर्वचन का केंद्र है। पंथिक आस्था के विषयों पर संविधान और विधि के अनुसार निर्वचन में प्रायः कठिनाई आती है। इस्लामी परंपरा में तमाम अपराधों के लिए सार्वजनिक रूप से दंडित करने का उल्लेख है। क्या इसी प्रथा को लेकर दंड प्रक्रिया संहिता संशोधित हो सकती है? उन्हें दंड संहिता स्वीकार्य है।
समान नागरिक संहिता क्यों नहीं? मान लीजिए कि तीन तलाक का उल्लेख कुरान में होता, तब संविधान के अनुरूप निर्णय में कठिनाई आती। संविधान राष्ट्रधर्म है। कोई भी मत, मजहब, रिलीजन संविधान से ऊपर नहीं है। पंथिक मजहबी मामलों में भी संविधान के अनुसार निर्णय अपेक्षित रहता है। आस्था के विषयों पर भी संवैधानिक प्रविधानों की परिधि में विचार होना चाहिए। माननीय न्यायालयों द्वारा तथ्य खोजने के क्रम में पंथिक मान्यताओं को खंगालना उचित नहीं प्रतीत होता। उन्हें पंथ-मजहब की मान्यताओं के आधार पर सुनवाई से बचना चाहिए।
Rani Sahu
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