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किसान आंदोलन सरकार के गले की फांस बनते जा रहा था
ओम प्रकाश।
मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों (Farm Laws) एवं किसानों से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर दिल्ली बॉर्डर पर चल रहा किसान आंदोलन रिकॉर्ड 378 दिन बाद स्थगित हो गया है. कानूनों की वापसी और अन्य मसलों पर लिखित आश्वासन मिलने के बाद उनके हौसले बुलंद हैं. लेकिन 700 अन्नदाताओं को खोने का जख़्म आज भी हरा है. फिलहाल, संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलनकारी किसानों की घर वापसी का फैसला ले लिया है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस आंदोलन से किसानों को हासिल क्या हुआ? इसे हम समझने की कोशिश करते हैं.
दरअसल, किसान आंदोलन सरकार के गले की फांस बनते जा रहा था. कृषि और किसानों के लिए बहुत कुछ करने के बावजूद सिर्फ इन कानूनों की वजह से सरकार के खिलाफ अन्नदाताओं की नाराजगी बढ़ रही थी. ऐसे में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब जैसे किसान बहुल सूबों में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सरकार ने इसे वापस लेना ही बेहतर समझा, ताकि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी बीजेपी को इन चुनाव में बड़ा झटका न लगे.
गुरु नानक जयंती के अवसर पर 19 नवंबर को पीएम मोदी ने खुद तीनों कृषि कानून की वापसी की घोषणा कर दी थी. जिसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि किसान चले जाएंगे, लेकिन वे कानून वापसी के नोटिफिकेशन और एमएसपी की गारंटी (MSP guarantee) व बिजली संशोधन विधेयक जैसे मुद्दों पर लिखित आश्चवासन मिलने का इंतजार कर रहे थे. जिसे पूरा होने के बाद आज 9 दिसंबर को संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन स्थगित करने का एलान किया.
मिला क्या?
किसान आंदोलन का नाम दुनिया के सबसे लंबे आंदोलनों में शुमार हो गया है. दरअसल, कृषि कानून के खिलाफ संघर्ष के बहाने उन मसलों को भी धार मिली है जो किसानों को लंबे समय से बेचैन कर रहे थे. आंदोलन में जिस तरह की एकता दिखाई गई है उससे सरकारों को किसान शब्द और उसकी ताकत याद रहेगी. ऐसे में कोई भी सरकार सिर्फ एसी कमरों में बैठकर प्लान बनाने वाले अधिकारियों की सलाह पर मनमाने सुधार का एलान करने से पहले सौ बार सोचेगी. इस आंदोलन के बाद किसान एक आवाज बनकर उभरा है, जिसकी वजह से किसान सियासी विमर्श में सबसे ऊपर बना रहेगा. कोई भी सरकार उसके सवालों को नजरअंदाज नहीं कर पाएगी.
इस आंदोलन से कई किसान नेता उभरे हैं. जिनके जरिए कुछ पार्टियां चुनावी फसल काटने की कोशिश कर रही हैं. हालांकि, पूरे आंदोलन के दौरान किसानों ने अपने मंच पर कभी राजनीतिक लोगों को एंट्री नहीं दी. क्योंकि इन नेताओं को पता है कि जो भी दल सत्ता में आएगा उसके सुर बदल जाते हैं.
किसान नेताओं का कहना है कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद कम से कम अब देश के दूसरे राज्य बिहार बनने से बच जाएंगे. जहां पर पिछले करीब 15 साल से मंडियों को खत्म कर दिया गया है. अन्नदाता खुली बाजार व्यवस्था के हवाले हैं जिसकी वजह से वहां किसानों की सबसे कम इनकम है. क्योंकि फसलों का दाम नहीं मिल रहा है. इन कानूनों में भी फसलों के दाम की कोई गारंटी नहीं थी और मंडियों के बंद होने का खतरा था.
किसान आंदोलन के बहाने
कृषि कानूनों के खिलाफ हुए किसान आंदोलन (Kisan Andolan) के बहाने फसलों के दाम की गारंटी देने का सवाल राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया है. प्रस्तावित बिजली संशोधन विधेयक (Electricity amendment bill 2021) जैसी दूसरी समस्याओं को भी रेखांकित किया गया, जिनके जरिए किसानों पर वज्रपात की संभावना थी. एमएसपी की गारंटी देने से देश की अर्थव्यवस्था डूब जाने की बात करने वाले अर्थशास्त्रियों को झटका लगा है, क्योंकि सरकार ने इस मसले पर कमेटी बनाकर बातचीत आगे बढ़ाने के लिए लिखित तौर पर आश्वासन दे दिया है.
पराली जलाने पर अब किसानों पर क्रिमिनल केस नहीं होगा. यूपी, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में यह किसानों का बड़ा सवाल था. इस आंदोलन को 'खत्म' न करके अभी स्थगित कहा गया है ताकि सरकार वादाखिलाफी करे तो दोबारा आंदोलन शुरू किया जा सके. इतने दिनों के लंबे संघर्ष के बाद किसान नेताओं को यह भी अच्छी तरह से पता चल गया है कि आंदोलन कैसे चलाया जाता है.
एकता का शानदार प्रदर्शन
सत्ताधारी पार्टी के लोगों ने इस आंदोलन को कभी सिर्फ पंजाब के सिखों का आंदोलन बताया तो कभी उसे जाति की चाशनी में डुबोकर जाटों का आंदोलन बताने की नाकाम कोशिश की. जब देश में जातियों और धर्मों के नाम पर नफरत का एक दौर चल रहा है तब इतने लंबे आंदोलन को जाति, धर्म, क्षेत्र से उपर उठकर उसकी पहचान सिर्फ किसान बनाए रखी गई. जो अपने आप में विभिन्नता में एकता के शानदार प्रदर्शन के तौर पर देखी जाएगी.
क्यों अहम हैं किसान?
कहा जा रहा है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को देखते हुए मोदी सरकार किसानों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती थी. क्योंकि सियासत में संख्या बल सबसे अहम होता है. देश में 14.5 करोड़ किसान परिवार हैं. इसका मतलब करीब 55 से 60 करोड़ लोग. वे लोग जो गांवों में रहते हैं और वोटिंग में सबसे ज्यादा शिरकत करते हैं.
इसलिए अप्रत्याशित तरीके से कृषि कानूनों की वापसी और अन्य मांगों पर लिखित आश्वासन देने को सरकार द्वारा अपनी किसान हितैषी इमेज बचाए रखने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. क्योंकि ग्रामीण इलाके में सरकार के खिलाफ फैला असंतोष कई राज्यों के चुनाव में साफ नजर आ चुका है.
जीडीपी में कृषि का योगदान करीब 23 फीसदी है. भारत में खेती सिर्फ अर्थव्यवस्था से जुड़ा मुद्दा नहीं बल्कि सियासत भी है. क्योंकि किसानों के पास न्यूमेरिकल स्ट्रेंथ है, जो राजनीतिक सफलता के लिए सबसे जरूरी चीज है. किसानों के बिना न तो अर्थव्यवस्था चल सकती है और न कोई पार्टी सत्ता में बनी रह सकती है. कृषि कानूनों के विरुद्ध हुए आंदोलन के सभी पहलुओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत का निकट भविष्य शायद किसानों को ही तय करना है.
इस पहलू को याद रखने की जरूरत
इस आंदोलन की खासियत यह भी रही है कि इसमें हमारे देश के तीन महापुरुषों के परिजनों का साथ मिला. इस आंदोलन को समर्थन देने महात्मा गांधी की पोती तारा गांधी भट्टाचार्य गाजीपुर बॉर्डर पहुंचीं थीं. शहीद-ए-आजम भगत सिंह के प्रपौत्र यादवेंद्र संधू ने भी कई दिन जाकर आंदोलन को न सिर्फ समर्थन दिया बल्कि लंगर में सेवा भी की. बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के परपोते राजरत्न आंबेडकर का भी साथ किसान आंदोलन को मिला. इन तीनों के परिवारों का समर्थन इस आंदोलन को खास बनाता है.
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Gulabi
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