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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और उनके परिणाम पर देश-दुनिया की निगाहें टिकी हुई थीं
प्रणय कुमार ।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और उनके परिणाम पर देश-दुनिया की निगाहें टिकी हुई थीं। प्राप्त परिणामों से अब यह स्पष्ट है कि चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी और एक में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने जा रही है। पंजाब को छोड़कर शेष किसी राज्य में सरकार विरोधी कोई लहर दिखाई नहीं दी। बल्कि उत्तर प्रदेश में तो वर्ष 1960 के बाद से ही कोई मुख्यमंत्री अपना पांच वर्षों का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाया था, वहीं वर्ष 1985 के बाद पहली बार वहां कोई मुख्यमंत्री लगातार दूसरी बार शपथ ग्रहण करेगा।
उत्तराखंड में भी हर चुनाव के बाद सरकार बदलने का चलन था। भाजपा की यह जीत इसलिए भी मायने रखती है, क्योंकि तमाम समाचार-पत्रों और इंटरनेट मीडिया से लेकर अभिव्यक्ति के अन्य अनेक मंचों से भाजपा के विरुद्ध व्यापक जनाक्रोश होने का लगातार दावा किया जा रहा था। कभी कृषि कानून, कभी नागरिकता संशोधन बिल तो कभी पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों की कथित उपेक्षा के नाम पर भारतीय जनता पार्टी को निरंतर कठघरे में खड़ा किया जा रहा था। जबकि चुनाव परिणामों से यह सिद्ध होता है कि इस बार जनता ने लिंग, जाति, क्षेत्र, मजहब जैसी विभाजनकारी प्रवृत्तियों को तो पूरी तरह निरस्त किया ही, इसके साथ-साथ कृषि काूनन विरोधी आंदोलन एवं नागरिकता संशोधन कानून के प्रतिरोध के नाम पर हुई हिंसक एवं अराजकतावादी राजनीति को भी सिरे से खारिज कर दिया।
उत्तर प्रदेश में चुनाव से ठीक पूर्व तमाम छोटे-छोटे दलों एवं चेहरों को सामने रखकर जातीय अस्मिता को उभारने का जैसा प्रयास एवं प्रचार किया जा रहा था, वह नतीजों में बिल्कुल दिखाई नहीं देता। नतीजों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य और धर्म सिंह सैनी जैसे तमाम नेताओं के दावों और बयानों को जनता ने बहुत गंभीरता से नहीं लिया। उलटे उन्होंने यह संदेश अवश्य दिया कि किसी दल को छोडऩे या किसी के साथ गठबंधन से पूर्व संबंधित दलों और नेताओं को अपने आधार मतदाता वर्ग से सलाह-संपर्क अनिवार्य करना चाहिए। पंजाब में भी मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को दलित चेहरा बता-जताकर प्रचारित-प्रसारित करने का कोई लाभ काग्रेस को नहीं मिल पाया।
यह भी सुखद है कि केरल और बंगाल जैसे कतिपय राज्यों को छोड़कर चुनावी हिंसा भारत के लिए बीते दिनों की बात हो गई। यह भारतीय लोकतंत्र की मजबूती एवं परिपक्वता के जीवंत प्रमाण हैं। लोकतंत्र भारत का संस्कार है, भारत की आत्मा में रचा-बसा है। लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों का दंभ भरने वाले पश्चिमी देशों में भी शांत एवं निष्पक्ष मतदान, सत्ता का सहज हस्तांतरण अत्यंत कठिन एवं दुर्लभ होता है। पर भारत के अधिकांश जिम्मेदार एवं प्रमुख राजनीतिक दल जनता-जनार्दन के निर्णय को देर-सबेर निश्चित ही स्वीकार करते हैं।
कुछेक राजनीतिक दल, जिन्हें विरासत में सत्ता मिली होती है, उनके अलावा शेष सभी दल नीतियों-निर्णयों, योजनाओं- कार्यक्रमों का विश्लेषण कर आत्मचिंतन एवं संतुलित मूल्यांकन भी करते हैं। और यह भी अच्छा है कि कतिपय दलों एवं नेताओं को छोड़कर, धीरे-धीरे ईवीएम का रोना भी कम हुआ है। हां, सभी राजनीतिक दलों एवं चुनाव आयोग के लिए यह चिंता की बात अवश्य है कि पांचों विधानसभा चुनावों में पिछले चुनावों की तुलना में इस बार कुछ कम मत पड़े। सभी को यह याद रखना होगा कि जन-भागीदारी ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत और विशेषता होती है। चुनाव-प्रक्रिया में भागीदारी, हर नागरिक की जिम्मेदारी होनी चाहिए।
एक बड़ा बदलाव यह दिखा कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत निष्ठा और ईमानदारी, बेदाग छवि एवं कर्मठ व्यक्तित्व, कानून-व्यवस्था की बेहतर स्थिति, महिलाओं की सुरक्षा, कोविड के संकटकालीन दौर में हर मोर्चे पर सरकार की सक्रियता एवं गतिशीलता, रिकार्ड वैक्सीनेशन, तुष्टिकरण के स्थान पर सबका साथ, सबका विकास का नारा और नीति, नाम-कद, प्रभाव-पहुंच को नजरअंदाज कर अपराधियों एवं बाहुबलियों पर नकेल कसने का साहस एवं संकल्प आदि चुनाव के निर्णायक बिंदु रहे। शुभ संकेत है कि चुनावों में महिलाओं की भी निर्णायक भागीदारी रही। सुरक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए इन मुद्दों पर बेहतर काम करने वाले दल व नेता के प्रति उन्होंने अपना विश्वास जताया। उजाला, उज्ज्वला, जन-धन, आवास और मुफ्त राशन जैसी योजनाओं को महिलाओं ने ख़ूब सराहा। मंदिरों और तीर्थस्थलों के चहुंमुखी विकास तथा सड़क, बिजली, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं पर काम करने का भाजपा को विशेष लाभ मिला।
निसंदेह राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर भाजपा की स्पष्ट नीति का भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। छद्म पंथनिरपेक्षता एवं तथाकथित प्रगतिशीलता के नाम पर की जाने वाली पक्षपातपूर्ण राजनीति भी अब अस्वीकार्य है। राज्य और केंद्र के बीच चलने वाली खींचतान को भी जनता ने खारिज कर डबल इंजन की सरकार में भरोसा जताना उचित एवं श्रेयस्कर समझा। यही कारण रहा कि पांच में से चार राज्यों में भाजपा एवं पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने जा रही है। यह सत्य है कि आम आदमी पार्टी की यह जीत ऐतिहासिक एवं उल्लेखनीय है, परंतु यह भाजपा से अधिक कांग्रेस के लिए चिंतनीय है। कांग्रेस को सोचना होगा कि वह गुटबाजी एवं भितरघात से कैसे पार पाए और अपने क्षेत्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाकर पार्टी को कैसे एकजुट रखे? राहुल के बाद अब प्रियंका भी अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने एवं जनता का भरोसा जीतने में विफल रही हैं।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक पंजाब जीतते ही आम आदमी पार्टी को भाजपा के विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, कुछ इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्मे में आई कमी के रूप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं, जो आधारहीन एवं सरलीकृत निष्कर्ष है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा चुनाव-दर-चुनाव और बढ़ा है। अभी आम आदमी पार्टी को लंबा सफर तय करना है। राष्ट्रीय राजधानी में रिकार्ड मत से सरकार बनाने के बावजूद आम आदमी पार्टी आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति के कारण ही अब तक सुर्खियां बटोरती रही है। पंजाब में उसके शासन का स्वरूप और तौर-तरीका ही उसका राजनीतिक भविष्य तय करेगा। राष्ट्रव्यापी विस्तार पाना और भाजपा का विकल्प बनकर उभरना अभी उसके लिए दूर की कौड़ी है।
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