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शिमला लगभग 150 वर्षों से अपनी अलग पहचान बनाए हुए है जिसमें पहले अंग्रेज़ों के आकर्षण का स्थल रहा, तदनंतर एक पहाड़ी पर्यटक स्थल, हिमाचल निर्माण के उपरांत राजधानी और 1971 में शिमला नाम से एक महत्त्वपूर्ण जि़ला बना
By: divyahimachal
अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088
हिमाचल रचित साहित्य -23
विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में
डा. सत्यनारायण स्नेही, मो.-9418042938
शिमला लगभग 150 वर्षों से अपनी अलग पहचान बनाए हुए है जिसमें पहले अंग्रेज़ों के आकर्षण का स्थल रहा, तदनंतर एक पहाड़ी पर्यटक स्थल, हिमाचल निर्माण के उपरांत राजधानी और 1971 में शिमला नाम से एक महत्त्वपूर्ण जि़ला बना। इसके अंतर्गत 8 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। शिमला आज राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दृष्टि से प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश में भी विशेष महत्त्व रखता है। यहां बड़े-बड़े राजनेता, प्रशासक एवं वैज्ञानिक हुए हैं, वहीं विभिन्न विधाओं में सृजनशील साहित्यकार और कलाकार भी हुए, जिन्होंने अपनी सृजनशीलता से अपनी और इस जिले की पहचान बनाई है। ऐसे दिवंगत हो चुके शिमला के साहित्यकारों का विवरण और विवेचन किया जा रहा है। शिमला जिले में साहित्य सृजन का वास्तविक प्रारंभ हिमाचल निर्माण के बाद होता है।
इससे पूर्व यहां फिलहाल कोई उल्लेखनीय संदर्भ नहीं मिलता है। सबसे पहले यहां कोटखाई के बड़ैवों गांव में मई 1932 को जन्मे हरिराम जस्टा का नाम आता है। ये शिमला के ही नहीं अपितु हिमाचल के प्रारंभिक कवि माने जाते हैं। उनका 'गीत माधुरी' कविता संग्रह हिमाचल की पहली प्रकाशित कविता पुस्तक मानी जाती है। उन्होंने लोक साहित्य, लोक संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना पर आधारित अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें रामानुज भरत, हिमाचल गौरव, महान बनो, देशभक्ति, हिमाचल प्रदेश के लोकनृत्य, गांधी जी के देश में, भारत में नाग पूजा और परंपरा, पर्वतों की गूंज, त्याग मूर्ति और 1974 में हिमाचल कला, संस्कृति और भाषा अकादमी के सौजन्य से पहाड़ी लोक रामायण का संपादन शामिल है। नि:संदेह हरिराम जस्टा हिमाचल में हिंदी कविता के पुरस्कर्ता और लोक साहित्य व संस्कृति के संवाहक के रूप में जाने जाते हैं। फरवरी 2006 को उनका देहांत हो गया। मियां गोवर्धन सिंह का जन्म शिमला जिले में जुब्बल के शड़ी गांव में 8 अगस्त 1928 हुआ था। हिमाचल सचिवालय में बतौर ग्रंथपाल रहे मियां का हिमाचल में इतिहास, कला एवं संस्कृति के अनुसंधान, परिरक्षण और परिवर्धन में एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'हिमाचल का इतिहास : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य' को हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया। उनकी गाईड टु शिमला, ट्रेडिशनल मीडिया एंड फोक आर्ट आफ हिमाचल प्रदेश, हिस्ट्री आफ हिमाचल प्रदेश, आर्ट एंड आर्किटेक्ट आफ हिमाचल, डिसक्रिप्टिव बिबिलोग्राफी आफ हिमाचल, हिस्ट्री, कल्चर एंड इकोनोमी आफ हिमाचल, फैस्टीवल, फेयर एंड कस्टम आफ हिमाचल, वुडन टैंपल आफ हिमाचल प्रदेश तथा हिमाचल का इतिहास पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। हिमाचल के इतिहास, परंपरा और संस्कृति के संरक्षण में दिए योगदान के लिए 1986 में उन्हें प्रथम डा. यशवंत सिंह परमार राज्य सम्मान तथा 1996 में हिमाचल कला संस्कृति अकादमी द्वारा शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया। 01 मार्च 2003 को मियां गोवर्धन सिंह का देहावसान हो गया। प्रतिष्ठित गिरिराज साप्ताहिक के प्रथम संपादक सत्येन शर्मा का नाम शिमला के दिवंगत साहित्यकारों में उल्लेखनीय है। उनका जन्म 4 अप्रैल 1930 को हुआ। उन्होंने गिरिराज और हिमप्रस्थ पत्रिका को साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रिका के रूप में स्थापित किया। इन पत्रिकाओं में उस प्रारंभिक अवस्था में साहित्य और संस्कृति के प्रकाशन, शोधन के साथ-साथ आम जनमानस तक पत्रिका की पहुंच बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा करीब सात दशकों तक कविताओं, गीतों, कहानियों, आलेखों, निबंधों और साहित्यिक साक्षात्कारों से साहित्य का परिवर्धन और पोषण किया। 16 जनवरी 2016 को सत्येन शर्मा इस मृत्युलोक से विदा हो गए। 11 सितंबर 1935 को शिमला जिले के गुम्मा में जन्मे रतन सिंह हिमेश को उनकी रचनात्मकता के साथ उनके मस्तमौला अंदाज़ और ठहाकों के लिए याद किया जाता है।
पिछली सदी के अंतिम दशक में इन्होंने 'जनसत्ता' अखबार में 'ठगड़ा राम बलकम खुद' के छद्म नाम से 'ठगड़े का रगड़ा' व्यंग्य कालम लिखकर विशेष प्रसिद्धी अर्जित की थी। हिमेश साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचनारत रहे हैं, जिसमें व्यंग्य लेखन में ये सिद्धहस्त थे। उन्होंने विद्यार्थी जीवन में 'तरुण' पत्रिका और उसके बाद 'हिम ज्योति' साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया। बर्फ के हीरे, रामकथा परिवेश, साहित्य निकाय और बर्फ की कोख से नामक कहानी संग्रहों में उनकी कहानियां प्रकाशित हैं। उनका 'हिंदोस्तान हमारा' नाटक के प्रकाशन के बाद शिमला तथा दिल्ली के अनेक स्थानों पर इसका मंचन किया गया। उनके नई राहें, ठुणियानामा, तीसरा दौर व्यंग्य संग्रह और 'धौलाधार अंदर भी' कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 14 अगस्त 2011 को हर दिल अज़ीज़ रतन सिंह हिमेश की हंसी और ठहाके सदा के लिए मौन हो गए। शिमला के दिवंगत साहित्यकारों में श्रीनिवास श्रीकांत का नाम हिमाचल के प्रारंभिक कवियों के रूप में उल्लेखनीय है। उनका जन्म 12 नवंबर 1937 को हुआ। ये अपने बाल्यकाल से लेकर अंतिम समय तक कविता लेखन से जुड़े रहे और विपुल साहित्य सृजन किया। उनके आठ कविता संग्रह हैं। 'नियति, इतिहास और जरायु', बात करती हवा, घर एक यात्रा है, हर तरफ समंदर है, चट्टान पर लडक़ी, आदमी की दुनिया का दिन इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। उनकी आरंभिक कविताओं में जहां वैयक्तिक भावबोध की अधिकता है, वहीं बाद की कविताओं में गंभीर चिंतन, गहन अनुभूति, सूक्ष्म एवं उदात्त भावों की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। गद्य लेखन में 'मुक्तिबोध : एक पुनर्मूल्यांकन', एक भूखंड, कथा में पहाड़, गल्फ के रंग और कथा त्रिकोण आलोचनात्मक संपादित अथवा लिखित पुस्तकें हैं। श्रीनिवास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। गीत-संगीत और नाट्य गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहे। तदनंतर अनेक संस्थाओं, मंचों में सहभागी अथवा प्रतिभागी रहे। साथ ही आकाशवाणी, दूरदर्शन और अकादमियों से संबद्ध रहे। उन्होंने विदेशी साहित्य का गहन अध्ययन किया और हिंदी में उसका अनुवाद भी किया। हिमाचल में हिंदी साहित्य को समृद्ध और विकसित करने में श्रीनिवास श्रीकांत का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनकी दीर्घ साहित्यिक सेवा के लिए इन्हें हिमाचल साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा अकादमी शिखर साहित्य सम्मान इत्यादि अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। 14 जुलाई 2021 को हिमाचल में साहित्य के आकाश में देदिप्यमान सितारा सदा के लिए अस्त हो गया।
-(शेष भाग निचले कॉलम में)
शिमला के दिवंगत साहित्यकारों को नमन
साहित्यसेवी, समाजसेवी और मनुष्य सेवी सरोज वशिष्ठ का जन्म 17 नवंबर 1932 को हुआ। ये आकाशवाणी में उद्घोषिका, अनुवादक एवं समीक्षक रही। तदनंतर कथाकार तथा वर्षों तक तिहाड़ जेल, कैथू और कांडा जेल में कैदियों में सकारात्मक सोच तथा रचनात्मक समझ और लेखन विकसित करती रही। इसी के प्रतिफल तिहाड़ जेल के कैदियों द्वारा लिखित तीन कविता संग्रह और हिमाचल के जेल बंदियों द्वारा लिखित छह कविता संग्रहों का प्रकाशन करवाया। सरोज वशिष्ठ ने जहां विभिन्न विधाओं में अनुवाद किए, वहीं 'अपने अपने कारावास' कहानी संग्रह और 'मैं हूं ना' शीर्षक से उपन्यास लिखा। अपने जीवन काल में रचनात्मक लेखन तथा मानवीय सेवा के लिए इन्हें अलग-अलग समय में अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत किया गया। 6 दिसंबर 2015 को सरोज वशिष्ठ का निधन हो गया। इसी कड़ी में अगला नाम तेजराम शर्मा का आता है। 25 मार्च 1943 को सुन्नी गांव के बमन्होल में इनका जन्म हुआ। भारतीय डाक सेवा में विशेष सचिव पद से सेवानिवृत्त तेजराम शर्मा ने साहित्य जगत में कवि के रूप में पहचान बनाई। उनकी दीर्घ कविता यात्रा में धूप की छाया, बंदनवार, नहाए रोशनी में, नाटी का समय, मोम के पिघलते बोल, भगवद गीता और कंप्यूटर पर बैठी लडक़ी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। एक साधारण, सज्जन, मृदुभाषी और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी तेजराम शर्मा जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देते रहे और कविता लेखन के लिए ठाकुर वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार, पंजाब कला साहित्य अकादमी, हिमाचल कला साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं। 20 दिसंबर 2017 को तेजराम शर्मा का निधन हो गया।
सहज, सरल और बेहतरीन आदमी तथा संपादक, कवि, कथाकार बद्रीसिंह भाटिया का जन्म 4 जुलाई 1947 को अर्की में हुआ, पर उनका संपूर्ण जीवन रचना संसार शिमला में ही रहा। सरकारी सेवा में रहते हि. प्र. सूचना एवं जन संपर्क विभाग में गिरिराज और हिमप्रस्थ के संपादन से जुड़े रहे। साथ ही शिमला में स्वतंत्र लेखक के रूप में स्थापित हुए। समकालीन हिंदी कथा साहित्य में लोक जीवन और पहाड़ी परिवेश को साहित्यिक पटल पर चित्रित करने में भाटिया का विशेष योगदान है। पहाड़ी समाज की परंपराएं, प्रथाएं, रीत-रस्म, मान्यताएं, रूढिय़ां और अंधविश्वास को उन्होंने वास्तविक धरातल पर अपनी कहानियों में प्रस्तुत किया है। इनके कहानी संग्रह हैं- ठिठके हुए पल, मुश्तरका ज़मीन, छोटा पड़ता आसमान, बावड़ी तथा अन्य कहानियां, यातना शिविर, कवच, वह गीत हो गई और डीएनए प्रमुख हैं। उन्होंने 'पड़ाव' तथा 'डेंजऱ जोन' उपन्यास लिखे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव, अवैध खनन, प्रकृति का अनियंत्रित दोहन के प्रतिफल खतरनाक होते पहाड़ पर लिखित बहुचर्चित उपन्यास डेंजऱ जोन पर इन्हें 2015 में हिमाचल अकादमी पुरस्कार दिया गया तथा 1987 में पड़ाव और 2004 में कवच कहानी संग्रह पर अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। उनका 'कंटीली तारों का घेरा' नाम से कविता संग्रह है। उन्होंने क्रिस्टोफर मार्लो के नाटक डाक्टर फास्टस तथा रूपर्ट ब्रुक के नाटक लिथुआनिआ का हिंदी अनुवाद किया है। वैश्विक महामारी कोरोना से ग्रसित होने के बाद 23 अप्रैल 2021 को नई दिल्ली में बद्रीसिंह भाटिया का देहांत हो गया।
15 अगस्त 1949 को शिमला के शकोह गांव शोघी में जन्मी कांता शर्मा हिमाचल की एक बड़ी कवयित्री बनती, पर उससे पूर्व ही एक असाध्य रोग से ग्रसित हो गई। हिंदी और संस्कृत साहित्य में एमए और एम. फिल करने के बाद पीएचडी कर रही थी, पर शय्या ग्रस्त होने के कारण शिक्षा अधूरी रह गई। शेष जीवन बिस्तर पर ही निकल गया। पत्र-पत्रिकाओं में अनेक विधाओं में लिखने के साथ 1982 में प्रकाशित उनका कविता संग्रह 'शब्दों के जाल में' काफी चर्चित रहा। 14 नवंबर 2011 को कवयित्री कांता शर्मा शय्या ग्रस्त जीवन से भी सदा के लिए मुक्त हो गई। 15 अक्तूबर 1950 को ठियोग के रावग गांव में जन्मे मधुकर भारती (जीतराम लेप्टा) कवि, समीक्षक एवं संपादक के रूप में साहित्य जगत में जाने जाते हैं। उन्होंने 20 वर्षों तक ठियोग में साहित्यिक संस्था 'सर्जक' का संचालन किया तथा इसी नाम से अनियतकालीन पत्रिका का प्रकाशन किया। उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं। 'शरद कामिनी' 1987 में तथा दूसरा संग्रह इनके देहावसान के बाद ठियोग के सर्जक परिवार ने प्रकाशित किया। मधुकर भारती की सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि वे सदैव दूसरे व्यक्ति को लेखन और पाठन के लिए प्रेरित करते थे। 1 मई 2015 को हृदयगति रुक जाने से साहित्य के इस प्रहरी का निधन हो गया। 1 मई 1952 को शिमला के गांव हलोग-धामी में जन्मे अरुण भारती (हेमानंद शर्मा) ने आठवें दशक के प्रारंभ से कहानियां लिखना शुरू किया। 1985 में पहला कहानी संग्रह 'भेडिय़े' शीर्षक से छपा। उसके बाद 'औरतें तथा अन्य कहानियां', 'अच्छे लोग बुरे लोग' कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। ये कहानीकार के साथ लोक नाटक लेखक तथा लोक नाट्य कलाकार भी थे।
उन्होंने संशय, जंग और आंगन नामक तीन नाटक भी लिखे। आकाशवाणी शिमला से उनका धारावाहिक 'चंदू नंदू का कारखाना' विशेष चर्चित रहा। पहाड़ी परिवेश में प्रचलित लोक नाटक 'करयाला' के वे परिपक्व कलाकार थे। अरुण भारती की कहानियों का आधार लोक संपृक्ति है और इनमें लोक संस्कृति के विविध रूप मिलते हैं। साथ ही पहाड़ी ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण और बदलते समाज और विघटित होते जीवन मूल्यों का वर्णन मिलता है। 12 जून 2017 को वर्षों से चल रही लंबी बीमारी से लड़ते हुए हार गए और उनका देहावसान हो गया। इस प्रकार शिमला जिले के इन साहित्यकारों ने अलग-अलग विधाओं में अपनी रचनात्मक कला के अनुसार साहित्य-प्रणयन किया। तदनंतर इस प्रदेश में साहित्य और ज्ञान का संचयन किया, जो परवर्ती रचनाकारों, अनुसंधित्सुओं और साहित्य अनुरागियों के लिए सदैव पथ प्रदर्शन करता रहेगा।
-डा. सत्यनारायण स्नेही
मंथन : पतनकाल के दौर में भारतीय ज्ञानपीठ?
राजेंद्र राजन, मो.-8219158269
भारत की सभी 22 भाषाओं के संरक्षण व संवर्धन को समर्पित भारतीय ज्ञानपीठ इन दिनों चर्चा में है। इसलिए क्योंकि ज्ञानपीठ ट्रस्ट ने अब तक प्रकाशित हजारों किताबों के प्रकाशन व बिक्री का एकाधिकार वाणी प्रकाशन को सौंप दिया है, जिसकी आलोचना समस्त हिंदी जगत में हो रही है। भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट ने लाखों रुपए मूल्य की उन किताबों के मार्केटिंग राइट्स वाणी को बेच दिए हैं जो विगत सालों से गोदामों में कैद थीं और ज्ञानपीठ की पंगु मार्किटिंग टीम उन्हें बेच पाने में असमर्थ है। यह सही है कि कोरोना काल में सभी प्रकाशकों की कमर टूट गई है। लेकिन भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट की समस्या और है। कई साल से यह चर्चा आम थी कि ज्ञानपीठ ट्रस्ट के मालिकों को ट्रस्ट की गतिविधियों के संचालन मेें कोई रुचि नहीं है क्योंकि वे ज्ञानपीठ को घाटे के सौदे के रूप में देख रहे थे। देश के जिस बड़े मीडिया घराने ने धर्मयुग, सारिका, पराग, इलस्टे्रटड वीकली, फिल्मफेयर, माधुरी जैसी पत्रिकाएं बंद कर दी हों, उसके लिए घाटे की ट्रस्ट 'सिरदर्द' बनी हुई थी। जबकि वास्तविकता यह है कि भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, पुस्तक प्रकाशन और अन्य गतिविधियों के कारण ही इस मीडिया मु$गल का छवि निर्माण भी हुआ है। सभी 22 भाषाओं की पुस्तकों का अनुवाद करवा कर उन्हें हिंदी जगत में लाने का नेक काम भी ट्रस्ट करती रही थी। जब तक रवींद्र कालिया या उनसे पूर्व प्रभाकर श्रोत्रिय आदि लेखक ज्ञानपीठ के संपादक और निदेशक रहे, ट्रस्ट का संचालन सामान्य रूप से चलता रहा और यह मुनाफे में भी रही।
भारतीय ज्ञानपीठ के टैग से ही देश के सभी राज्यों में किताबें बिक जाती थीं। जब लीलाधर मंडलोई और आनंद मधुसूदन ने ज्ञानपीठ के निदेशक का कार्यभार संभाला तो 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका को पुन: पॉपुलर बनाने में तो गजब की कल्पनाशीलता सामने आई और पत्रिका पुन: बड़े पाठक वर्ग में लोकप्रिय हो गई। ठीक उसी तर्ज पर जैसे रवींद्र कालिया के कार्यकाल में जब ज्ञानोदय के प्रेम विशेषांक और बेवफाई विशेषांक छपे तो देशभर में उनकी मांग बढ़ी और कई बार तो उन्हें रीप्रिंट तक कराना पड़ा। ज्ञानपीठ की दुर्दशा यहां तक पहुंच गई कि अगर कोई लेखक अपनी ही पुस्तक की प्रतियां खरीदने का आदेश दे तो उसे वे मिलेंगी ही नहीं, क्योंकि ज्ञानपीठ की मार्केटिंग व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी थी। ऐसे में शायद ट्रस्ट के पास अपनी किताबों के स्टॉक को वाणी प्रकाशक को बेचने के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं बचा था। वाणी और राजकमल जैसे प्रकाशकों के पास एक बड़ी मार्केटिंग टीम है और महामारी के दौरान भी किताबें बेचने की कला में ऐसे बड़े प्रकाशकों के हुनर की दाद देनी होगी। लेकिन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से जिन लेखकों की सैंकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं वो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि अब उनकी किताबों की बिक्री पर रॉयलटी कौन देगा? ज्ञानपीठ का जहाज तो डूब चुका है? रॉयल्टी मिलेगी या नहीं कोई नहीं जानता? अपने प्रकाशन को बेचने के छह माह बाद भी लेखक असमंजस में हैं। उन्हें ट्रस्ट पर भरोसा था, लेकिन उनकी रॉयल्टी नहीं मिली। अनेक लेखकों ने ज्ञानपीठ से अपना कांट्रैक्ट तोड़ लिया और अपनी पुस्तकें वापस ले लीं। क्योंकि प्रकाशक जगत से बड़ा शोषक शायद भारत में कोई नहीं है जो लेखक की बौद्धिक सम्पदा यानी इन्टैलेक्चुअल प्रापराइटी का दोहन करता है। उसके प्रतिभा या कंटेंट को बेचता है और लेखक ठगा सा केवल अपनी किताब को बिकते हुए देखकर 'पुलकित' होता रहता है। भारतीय ज्ञानपीठ, केंद्रीय साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट ही संभवत: केवल तीन ऐसे संस्थान थे जो विश्वसनीयता के पर्याय माने जाते थे। यानी लेखक की किताब यहां से छपी है तो उसे रॉयलटी अवश्य मिलेगी। गिरिराज किशोर का शोधपूर्ण व वृहद उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' जो महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास पर केंद्रित था, जब 12 साल पहले भारतीय ज्ञानपीठ ने छापा तो उसने बिक्री के सभी रिकार्ड तोड़ डाले थे और लेखक को लाखों की रायल्टी का भुगतान हुआ था। मराठी, मलयालम, कन्नड़ व दीगर भारतीय भाषाओं के लेखकों की किताबें जब हिंदी में अनूदित होकर ज्ञानपीठ ने छापी तो उनके बार-बार नए संस्करण छपते रहे। यह ज्ञानपीठ की साख और छवि ही थी कि उसके प्रकाशन से छपने और बिकने वाली किताबों के दर्जनों संस्करण छापने पड़ते थे।
'पानीपत' और 'महानायक' ऐसे ही दो बड़े उपन्यास हैं जो मूल रूप में मराठी में छपे। इनके लेखक विश्वास पाटिल हैं। जब ये बीस साल पहले ज्ञानपीठ ने छापे तो इनकी देशभर में हजारों प्रतियां बिकीं। इससे यह भी साबित होता है कि किताबों को न पढ़े जाने या न बिक पाने का शोर तर्कहीन सा प्रतीत होता है। कोई किताब गुणवत्ता व विषय विशेष के मानदंडों पर खरी उतरती है तो उसकी मांग हमेशा बनी रहेगी। भले ही आप उसे अमेजन या फ्लिपकार्ड से खरीदने के लिए बाध्य हों। कालिया जी ने 2009 से 2015 तक बतौर निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ को जो बुलंदी प्रदान की थी उसकी चर्चा आज भी साहित्य जगत में होती है। उन्होंने चंद सालों में ही ज्ञानपीठ प्रकाशन की करोडों़ रुपए मूल्य की किताबें देशभर में बेच डाली थीं। स्वयं अपनी 22 किताबें भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित करवाई थीं। उनकी रॉयल्टी उनकी धर्मपत्नी ममता कालिया को मिलती रही। रवींद्र कालिया का जनवरी 2016 में निधन हो गया था। लबोलुआब यह कि अगर प्रकाशक ईमानदार हों और लेखक को उसकी रॉयल्टी देते रहें तो लेखक और प्रकाशक के रिश्तों में कड़वाहट पैदा नहीं होगी। भारतीय ज्ञानपीठ गत 2 सालों से निदेशक विहीन संस्था बनी हुई है। एक सदस्य ट्रस्टी इसका संचालन कर रहे हैं। पता चला है कि 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका बंद करने के बाद ट्रस्ट ने पुस्तक प्रकाशन भी बंद कर दिया जिसके कारण इस अत्यंत गौरवशाली इतिहास के साक्षी संस्थान की छवि व प्रतिष्ठा 'ध्वस्त' हुई। भविष्य में ट्रस्ट केवल जैन धर्म से जुड़े साहित्य का प्रकाशन करेगी क्योंकि ट्रस्ट के संस्थापक, वर्तमान ट्रस्टी व मालिक जैन समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। धार्मिक साहित्य की बिक्री सुगम भी है। भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना 18 फरवरी 1944 को श्रीमती रमा जैन और साहू शांति प्रसाद जैन ने की थी। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार का आरंभ 1965 में हुआ था। पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार मलयाली भाषा के जी. शंकर कुरूप को दिया गया था। उस समय पुरस्कार राशि 1 लाख रुपए थी जो 2005 में बढक़र सात लाख रुपए हो गई। अब यह पुरस्कार राशि 11 लाख रुपए हो चुकी है। वर्ष 2020 व 2021 सालों के ज्ञानपीठ पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी है जो असमिया के कवि नीलमणि फूकन व कोंकणी के उपन्यासकार दामोदर मौज़ो को दिए जाने हैं, लेकिन उन पर संशय के बादल मंडरा रहे हैं। अब तक 10 हिंदी लेखकों व 8 कन्नड़ साहित्यकारों को भारत के सर्वोच्च भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से विभूषित किया जा चुका है।
इस पुरस्कार की स्थापना 22 मई 1961 को की गई थी। 1968 में पहली बार हिंदी के महान छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया था। 1972 में रामधारी सिंह दिनकर तो 1978 में अज्ञेय को यह पुरस्कार मिला था। 1982 में महादेवी वर्मा को तो नरेश मेहता को 1992 में ज्ञानपीठ मिला। 1999 में निर्मल वर्मा को तो 2005 में कुंवर नारायण को, 2009 में कथाकार अमरकांत को और 2013 में केदार नाथ सिंह को यह पुरस्कार प्रदान किया गया था। साल 2017 में कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। गत 76 सालों में हिंदी साहित्य में केवल दो ही महिला रचनाकारों को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। महादेवी वर्मा और कृष्णा सोबती को। साल 1965 से कुल 55 पुरस्कारों में से अब हिंदी साहित्य के 11 लेखकों को ये पुरस्कार मिल चुका है। 2008 में उर्दू के जाने-माने शायर शहरयार को यह पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों से प्रदान किया गया था। राष्ट्रपति द्वारा ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किए जाने की परंपरा रही है और हिंदी सिनेमा के महानायक के हाथों जब यह पुरस्कार दिया गया था तो इसकी कटु आलोचना हुई थी। बहरहाल, देशभर में हिंदी समाज की आम राय यही है कि ज्ञानपीठ को अपनी प्रतिष्ठा, गौरव व आन-बान को बहाल करने के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार, पुस्तक व पत्रिका, प्रकाशन को बहाल करना चाहिए।
Rani Sahu
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