सम्पादकीय

ध्वंस मंदिरों के सच को सामने लाने में न्यायपालिका से बंधी उम्मीदें

Gulabi Jagat
16 May 2022 6:43 AM GMT
ध्वंस मंदिरों के सच को सामने लाने में न्यायपालिका से बंधी उम्मीदें
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सत्य को लंबे समय तक झूठ के आवरण में नहीं रखा जा सकता। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को लेकर तमाम आंदोलन हुए
हृदयनारायण दीक्षित। सत्य शाश्वत है। सदा से है, सदा रहता है। वह काल अबाधित है। सत्य पर काल का प्रभाव नहीं होता, लेकिन निहित स्वार्थी तत्व राष्ट्रीय सत्य पर भी पर्दा डालते रहते हैं। इस्लामी आक्रमण के पूर्व भारत में लाखों मंदिर थे। यहां जो भी उत्कृष्ट है, उसे मंदिर कहते हैं। भारतवासी मंदिरों के प्रति श्रद्धालु हैं। संसद भवन को मंदिर मंडप कहते है। बंकिमचंद्र ने वंदे मातरम में भारत माता की आराधना की। मंदिर भारत का धैर्य हैं। उल्लास हैं। दार्शनिक ओशो ने कहा है, 'मंदिर जीवंत होते हैं। भारत पुन: भारत नहीं हो सकता, जब तक मंदिर जीवंत न हो। कोई बीमार हुआ, मंदिर गया। दुखी हुआ, मंदिर गया। सुखी हुआ, मंदिर गया। पूरब की संस्कृति को तोड़ने के लिए सबसे बड़ा काम था मंदिर के आविष्ट रूप को तोड़ना।' वहीं इस्लामी परंपरा में मंदिर ध्वस्तीकरण सवाब है। यही कारण है कि बिन कासिम के हमले से लेकर औरंगजेब तक भारत में मंदिर ध्वंस का अपमानजनक इतिहास है। उन्होंने मंदिर तोड़े, उसकी सामग्री से प्राय: उसी जगह मस्जिद बनाई। यह कुकृत्य आम जनों को भी साफ दिखाई पड़ता है।
सत्य को लंबे समय तक झूठ के आवरण में नहीं रखा जा सकता। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को लेकर तमाम आंदोलन हुए। इसका प्रभाव अखिल भारतीय था। जनता में रोष था। न्यायालय ने तार्किक फैसला सुनाकर उसका निस्तारण किया। अब वाराणसी में ज्ञानवापी पर कोर्ट के निर्देशानुसार पड़ताल जारी है। ज्ञानवापी औरंगजेब की मंदिर ध्वंस मानसिकता का जीवंत साक्ष्य है। ऐसे ध्वंस मंदिरों की सूची लंबी है। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि को लेकर भी मुकदमा है। मंदिर की सामग्री से बनाई गई मस्जिद सीधे भारतीय स्वाभिमान को चुनौती है। जौनपुर की अटाला मस्जिद अटाला देवी के मंदिर पर बनाई गई है। अहमदाबाद में भद्रकाली की भी यही स्थिति है। वहां मंदिर परिसर में जामा मस्जिद बनाई गई है। बंगाल के पंडुआ में मंदिर की जगह अदीना मस्जिद है। खजुराहो के निकट विजय मंदिर औरंगजेब के समय ध्वस्त किया गया था। यहां आलम-गिरि मस्जिद बनाई है। 1991 में भारी वर्षा से मस्जिद की एक दीवार गिर गई, जिसके बाद प्राचीन हिंदू मूर्तियां साफ दिखाई पड़ने लगीं। पूरे देश में सैकड़ों हंिदूू उपासना केंद्र तोड़े गए। उनकी जगह पर इबादतगाह बनाए गए। राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए यह अपमानजनक स्थिति है।
कायदा तो यही कहता है कि मंदिर तोड़कर मस्जिद में रूपांतरित किए गए सभी उपासना स्थलों पर सर्वमान्य फैसला होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उलटे टकराव-तनाव की स्थिति है। संयुक्त अरब अमीरात में वर्ल्ड मुस्लिम कम्युनिटीज काउंसिल के वार्षिक सम्मेलन में मिस्र के धार्मिक मामलों के मंत्री डा. मुख्तार मुहम्मद ने ठीक बात कही है, 'मुसलमान जिस देश में रहते है। उन्हें उस देश का सम्मान करना चाहिए।' मगर भारत में प्राय: ऐसा नहीं होता। बेशक भारत के मुसलमानों का एक वर्ग देश के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करता रहता है, लेकिन एक बड़ा वर्ग गोरी, गजनी, बाबर और औरंगजेब आदि को महान मानता है। ऐसे सभी हमलावर शासक भारतीय परंपरा के शत्रु हैं। पाकिस्तान भी इन्हीं को अपना मार्गदर्शक मानता है और भारतीय मुस्लिमों का एक वर्ग भी इनका पक्षधर है। इन आक्रांताओं की प्रशंसा भारत को आहत करती है। भारत के मंदिरों को ध्वस्त करना प्रशंसनीय कैसे हो सकता है? कुछ इतिहासकार भी इसी पक्षधरता में विदेशी आक्रांताओं को राष्ट्रविरोधी नहीं मानते।
'राइटिंग्स एंड स्पीचेज'संकलन में डा. आंबेडकर ने उल्लेख किया है, 'भारत पर पश्चिम-उत्तर से मुस्लिम आक्रांताओं ने हमला किया। पहला हमला मोहम्मद बिन कासिम ने किया था। फिर गजनी के महमूद ने 17 हमले किए। गोरी और चंगेज खान ने धावा बोला। तैमूर लंग, बाबर, नादिर शाह और फिर अहमद शाह अब्दाली।' आंबेडकर ने इसका कारण बताया, 'इसमें कोई संदेह नहीं कि 'भारत में मूर्ति पूजा और हिंदुओं के बहुदेववाद पर प्रहार कर इस्लाम की स्थापना इन हमलों का उद्देश्य रहा।' वह आगे लिखते हैं कि 'जिस बात को दिमाग में रखना जरूरी है कि वे सभी एक सामूहिक उद्देश्य से प्रेरित थे। यह उद्देश्य था हंिदूू धर्म का विध्वंस।' मंदिर ध्वंस सच्चा इतिहास है और नंगा सच है। इस सत्य को झुठलाकर राष्ट्रीय स्वाभिमान की कल्पना व्यर्थ है। यह दुखद सत्य हिंदू समाज के लिए कष्टकारी है। मंदिर ध्वंस पुराने घाव की तरह कष्ट देते हैं। घाव रिसते है। उन पर चर्चा पुराने घावों को फिर से खोल देती है। ऐसे घाव टोटकों से नहीं ठीक हो सकते।
मंदिर ध्वंस के सत्य को देश के सामने वास्तविक रूप में लाना चाहिए। यह सत्य बेशक कड़वा है, लेकिन राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए सच का सामना करना ही होगा। कुछ कथित विद्वानों ने भी सत्य पर पर्दा डालने का काम किया है। सत्य पर तथ्य आधारित बहस भी नहीं होती। 1991 में धर्मस्थल कानून आया था। यह कानून ऐतिहासिक तथ्य से परे था। मूल विषय को टालने वाला था। अच्छी बात है कि ज्ञानवापी का सच सामने आ रहा है। कुव्वत उल इस्लाम का सत्य कोई अनाड़ी भी देख सकता है और मथुरा का भी। स्मरण रहे कि कई बार ध्वंस हुए सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण प्रेरक है। जो तरीका देश ने सोमनाथ के पुनर्निर्माण के लिए अपनाया वही तरीका सभी ध्वस्त मंदिरों के लिए भी अपनाया जाना चाहिए। मुस्लिम विद्वान कृपया विचार करें। मंदिर ध्वंस की वास्तविकता को स्वीकार करें। इतिहास को विकृत करना उचित नहीं है। न्यायपालिका ने श्रीराम जन्मभूमि विवाद को कुशलतापूर्वक निपटाया। न्यायपालिका से भारत को बड़ी उम्मीदें है। राष्ट्रीय सत्य से पर्दा उठाना बेशक बड़ा काम है, लेकिन न्यायपालिका यह काम कर सकती है।
'द न्यूयार्क टाइम्स' के प्रतिनिधि लियुकस ने मुस्लिम समस्या पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर जी (गुरुजी) से प्रश्न किया। गुरुजी ने उनके प्रश्न का यह उत्तर दिया, 'वे इस देश में आक्रांता के रूप में आए।' लियुकस ने जवाब में कहा कि आखिर मुसलमान अपना इतिहास कैसे छोड़ें? गुरुजी ने इसके जवाब में कहा कि 'इस देश के इतिहास से उनका पृथक इतिहास नहीं देखा जा सकता।' राष्ट्र का इतिहास एक होता है। अलग-अलग समुदायों का कोई इतिहास नहीं होता।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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