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सैनिकों का जीवन कैसा होता है ? इसके बारे में ज़्यादातर सही- सही वही जानते हैं जो सेना (Indian Army) का हिस्सा रहे हैं
संजय वोहरा |
सैनिकों का जीवन कैसा होता है ? इसके बारे में ज़्यादातर सही- सही वही जानते हैं जो सेना (Indian Army) का हिस्सा रहे हैं या काफी हद तक वे लोग जिनके परिवार में कोई फौजी हो या फ़ौज से रिटायर होकर लौटा हो. इसके अलावा सेना और सैनिकों के बारे में जो जानकारियां हम सबको मिलती हैं उनका स्रोत फिल्म , टीवी , किताबें या अखबार आदि ही अक्सर होता है. पिछले कुछ साल से इन स्रोतों में सोशल मीडिया भी शामिल हो गया है. लेकिन ऐसे ज़्यादातर माध्यम सैन्य जीवन के दो तीन पक्ष ही उजागर कर पाते हैं. सेना का सीधा ताल्लुक क्योंकि देश की रक्षा जैसे संवेदनशील विषय से है इसलिए आम जनता को काफी हद तक इससे दूर रखा जाता है. लिहाज़ा आमजन में सेना को लेकर जिज्ञासा बनी रहना स्वाभाविक है. वर्दीधारी समुदाय के इस संसार की रोमांच , पराक्रम , देशभक्ति , बलिदान और सम्मान से सराबोर इमेज समाज के सामने ग्लैमर के तौर पर भी पेश की जाती रही है. लिहाज़ा बहुत से उन लोगों का इसके प्रति आकर्षण और मन में कौतुहल होना लाज़िमी है जो खुद को ऐसी ही किसी दुनिया का हिस्सा बनाने के बारे में सोचते हैं. बहुत से मेलों , प्रदर्शनियों और कार्यशालाओं में ऐसे उत्साही युवा अक्सर अधिकारियों से सेना के जीवन के बारे में सवाल पूछते हैं. इनमें एक तबका उन नौजवानों का भी है जो एक रुबाबदार और गौरवपूर्ण जीवन या यूं कहें कि करियर (ARMY RECRUIMENT) की तलाश में है. इनमें खासी बड़ी तादाद उन नौजवानों की भी हो सकती है जो जीवन का कुछ हिस्सा ऐसी ऐडवेंचर भरी गतिविधियों के साथ जीना चाहते हैं जो मज़े के साथ एक निश्चित आमदनी का ज़रिया भी हो. शायद ऐसे ही कुछ परिस्थितियों का आंकलन करते हुए भारतीय सेना में ' टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' (Tour Of Duty) योजना शुरू करने का विचार आया. भारत में इस पर कुछ साल से सरकार और सेना में माथापच्ची चल रही थी. भारत के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने पहली बार जब पिछले साल इसके बारे में जानकारी सार्वजनिक की तो ये चर्चा का विषय बनी. कुछ पहलुओं और स्पष्टता में कमी के कारण इसके पक्ष विपक्ष में वाद – विवाद का जो सिलसिला शुरू हुआ वो हालांकि अभी तक थमा नहीं है. वही सैन्य गलियारों में 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' को अमल में लाने के लिए लगातार मंथन भी चलने लगा. इसके पक्ष विपक्ष में उठे सवालों – जवाबों को विचारा गया.
क्या है सेना की टुअर ऑफ़ ड्यूटी योजना
हालांकि सरकार या सेना की तरफ से अभी तक इस बारे में आधिकारिक तौर पर घोषणा नहीं हुई है लेकिन अब तक जो जानकारियां सामने आई हैं उससे एक बात तो साफ़ हो रही है कि 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' के तहत सेना में फिलहाल अधिकारियों की नहीं बल्कि जवानों की भर्ती की जाएगी. ये वो 10 वीं और 12 वीं पास जवान होंगे जिन्हें तकरीबन 3 से 5 साल तक सेना में अस्थाई सेवा दी जाएगी. छह से नौ महीने की सेना की बेसिक ट्रेनिंग दी जाएगी . इनका वेतन 30 -40 हज़ार रूपये महीना होगा. तीन – चार साल बाद ये सेवामुक्त होंगे तो इनकों 10 -12 लाख रुपये की राशि दी जाएगी. सेना छोड़ते वक्त इनकी उम्र 21 – 22 साल होगी लिहाज़ा सेना छोड़ने के बाद उनके पास नया करियर शुरू करने का अच्छा ख़ासा मौका होगा. उनके प्रोफाइल में सेना में काम करने ठप्पा और तजुर्बा उनको नया करियर चुनने में मदद करेगा. साथ ही उनको सेना में सेवा के दौरान आगे शिक्षा जारी रखने और किसी ख़ास विधा को सीखने का भी मौका मिलेगा. इसका खर्च भी सेना करेगी. 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' योजना के तहत भर्ती नौजवान को सेवा मुक्त होने के बाद पेंशन , स्वास्थ्य और ऐसी तमाम सुविधाएं नहीं मिलेंगी जो नियमित सैनिकों को रिटायर होने पर मिलती हैं. हां, सेवा के दौरान मृत्यु होने पर आश्रितों को एक मुश्त धनराशि या अंग भंग होने पर मुआवजा या इलाज के खर्च आदि की ज़िम्मेदारी सेवा के कांट्रेक्ट का हिस्सा होगी.
निश्चित साल का सेवा काल पूरा करने के बाद कुछ सैनिकों को स्थाई सेवा में भी रखा जा सकेगा और उनको तरक्की भी दी जाएगी लेकिन उसके लिए उन्हें परीक्षा पास करने व अन्य मापदंडों को पूरा करने जैसी शर्तों को मानना पड़ेगा. ' टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' का एक लाभ ये भी होगा कि भारत की सेना न सिर्फ हमेशा ज्यादा युवा सैनिकों वाली रहेगी बल्कि समाज में स्वस्थ व अनुशासित नौजवानों की संख्या में भी बढोतरी होगी. अभी भारतीय सेना में सैनिकों की औसत आयु 35 साल के आसपास है और अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि 4 -5 साल के 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' से ये औसत कालांतर में घटकर 25 साल के आसपास हो जाएगी. वैसे अभी ये स्पष्ट नहीं है कि इस योजना के तहत शुरू में कितने जवानों को भर्ती किया जाएगा.
इस योजना के पक्ष में एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि 4-5 साल की सेवा के बाद जब सैनिक रिटायर होगा तो वे तंदुरुस्त, अनुशासित और कर्तव्यशील व्यक्ति के तौर पर नागरिक जीवन में आएगा. ऐसा युवा पुलिस , अर्धसैन्य बल या कॉपोरेट सुरक्षा क्षेत्र की ज़रुरत को पूरा करने के लिए भी हर तरह से फिट होगा. हालांकि कुछ विशेषज्ञ इसे प्रयोगात्मक स्तर पर लागू करने और इसके नतीजों परखने के बाद आगे बढ़ने के हिमायती हैं.
खर्चा बचाने की कवायद
यूं तो 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' योजना 'अग्निपथ ' कह कर भी प्रचारित की जा रही है और ये मोटे तौर पर एक कल्याणकारी विचार को समेटे हुए है लेकिन इसके पीछे एक बड़ा कारण सरकार का आर्थिक संकट भी है. भारत के रक्षा बजट का बड़ा हिस्सा सैनिकों के वेतन और पेंशन में खर्च होता है. इसके साथ सबसे ज्यादा खर्च तमाम गतिविधियों के परिचालन में हो जाता है. ऐसे में सेना को अपग्रेड करने , नए उपकरण और नई तकनीक से लैस करने के लिए उतना धन बचता ही नहीं जितना ज़रूरत है जबकि सेना में निरंतर आधुनिकीकरण की सबसे ज्यादा अहमियत है . सरकार रक्षा बजट में ज्यादा इजाफा करना नहीं चाहती. साल 2021 में भारत का रक्षा बजट 4 लाख 78 हज़ार करोड़ रूपये था जो 2022 – 23 में बढ़ाकर 5 लाख 25 हज़ार करोड़ रूपये किया गया यानि 10 फ़ीसदी भी नहीं बढ़ा. दो साल से लगातार सेना की भर्ती रैलियों का रुका रहना भी सेना पर खर्च में कटौती की तरफ साफ़ इशारा करता है हालांकि दो साल से भर्ती रैलियां न कराने के पीछे कोविड -19 संक्रमण को बहाना बनाया जाता है. और तो और साल 2020 -21 में सेना की 97 भर्ती रैली होनी थीं जबकि 47 की गई. इनमें से भी सिर्फ चार रैली में पास हुए युवकों की लिखित परीक्षा हो पाई.
भर्ती रैलियों पर संदेह के बादल
अभी ये भी स्पष्ट नहीं की 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' योजना में उन नौजवानों के मामलों पर भी विचार किया जाएगा या नहीं. बरसों से सेना में जाने का सपना संजोये लाखों युवा ( खासतौर से ग्रामीण ) इन दो साल में , सेना में भर्ती की , उम्र पार कर जाएंगे. सरकार का वर्तमान आर्थिक नजरिया तो यही कहता है कि सरकार रक्षा मामलों में टुअर ऑफ़ ड्यूटी जैसे 'सस्ता जुगाड़ ' को प्राथमिकता देगी. ऐसे में नियमित भर्ती महंगा सौदा है. वैसे भी भारतीय अर्थ व्यवस्था की स्थिति कुछ अच्छी नहीं है. युक्रेन युद्ध के बाद के हालात ने तो इसे और खराब किया है. ऐसे में नियमित सैनिकों के लिए परंपरागत 'भर्ती रैलियों ' की उम्मीद करना तो सही नहीं लगता.
हर साल सेना से तकरीबन 60 हज़ार जवान ( विभिन्न ) रैंक सेवामुक्त हो रहे हैं. नई भर्तियाँ रुके होने का असर अब कहीं कहीं पड़ने लगा है. पिछले साल दिसम्बर तक भारतीय थल सेना में तकरीबन 97 हज़ार , नौसेना में तकरीबन 11 हज़ार और वायुसेना में तकरीबन 5 हज़ार रिक्तियां थीं. अगर सेवानिवृत्ति और स्वेच्छिक सेवा निवृत्ति( वीआरएस ) को जारी रखना है तो सेना को युवा रक्त की आवश्यकता है. ऐसे में सरकार 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' को ही बेहतर विकल्प के तौर पर देखते हुए जल्द ही लागू करने की सोच रही है. रक्षा क्षेत्र से जुड़े कुछ लोग इसे सेना सुधार कार्यक्रम के तौर पर देखते हैं लेकिन कुछ को ये सेना के ' नाम , नमक , निशान ' के मूल विचार, पहचान और सिद्धांत वाक्य की अवधारणा के खिलाफ जाता दिखाई देता है.
टुअर ऑफ़ ड्यूटी योजना की खामियां और दुष्परिणाम
कुछ लोग भारतीय सेना में ' टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' योजना के तहत एकदम बड़ी संख्या में अस्थाई भर्ती के खराब नतीजों को लेकर आशंकित हैं. उनका मानना है कि सैनिक के कार्यकाल का तकरीबन 20 फीसदी वक्त तो बेसिक प्रशिक्षण में ही खासा वक्त गुजर जाएगा. अच्छा सैनिक बनने के लिए सिर्फ उतना प्रशिक्षण काफी नहीं होता. विभिन्न स्थानों पर तैनाती , वहां इस्तेमाल होने वाले उपकरणों को समझने, परिस्थितियों को जानने -समझने और उनके अनुकूल खुद को ढालने आदि में लिए तो उसे समय चाहिए ही , सैनिक संस्कृति में ढलने में भी किसी नौजवान को खासा समय लगता है. खासतौर पर तब जबकि उसकी सैन्य पारिवारिक पृष्ठभूमि न हो. नौसेना में अच्छा नाविक बनने में 6 -7 साल लग जाते हैं. भारत के ग्रामीण और पहाड़ी बहुल क्षेत्रों के बहुत से नौजवान सेना में इसीलिए जाते हैं कि ये उनके कुनबे की परम्परा होती है अथवा उनके लिए रोज़ी रोटी का ज़रिया भी होती है. काफी ऐसे हैं जो सेना में स्थाई सेवा चाहते हैं और हो सकता है कि वे 'टुअर ऑफ़ ड्यूटी ' योजना के तहत भर्ती तो हो जाएं लेकिन 4 साल पूरे होने के बाद नियमित सैनिक के भर्ती या तरक्की की शर्तें पूरी न कर सकें. उनके लिए तो ये सपना टूटने या अनिश्चितता जैसा होगा.
सोर्स- TV9 Opinion
Rani Sahu
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