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ये नेटफ्लिक्स की नई सीरीज डीकपल्ड का रिव्यू नहीं है
मनीषा पांडेय ये नेटफ्लिक्स की नई सीरीज डीकपल्ड का रिव्यू नहीं है. सिर्फ उसके जरिए जेहन में उठे कुछ सवाल हैं. मनु जोसेफ की लिखी और हार्दिक मेहता के निर्देशित की हुई इस सेक्सिस्ट और मिसोजेनिस्ट कहानी को इंटरनेशनल स्ट्रीमिंग साइट नेटफ्लिक्स ने भारत में जिस समय फंड और रिलीज किया, ठीक उसी समय नेटफ्लिक्स दुनिया के बाकी हिस्सों में कौन-कौन सी कहानियां रिलीज कर रहा था. किन कहानियों में पैसा लगा रहा था, किन्हें खरीद रहा था, फंड कर रहा था, सपोर्ट कर रहा था और लिखवा रहा था.
इसी साल अप्रैल में नेटफ्लिक्स पर पोलिश भाषा में एक नई ऑरिजिनल सीरीज आई, जिसका नाम था- सेक्सिफाई. एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार से आने वाली एक लड़की की कहानी, जो कॉलेज में पढ़ती है और फीमेल सेक्सुएलिटी और ऑर्गज्म से जुड़ा एक मोबाइल ऐप बनाने की कोशिश कर रही है. सेक्सिफाई यूं तो कॉमेडी ही थी, लेकिन उस कॉमेडी में भी जेंडर को लेकर उसकी सूई एक क्षण को भी खिसकर पितृसत्ता के खांचे में नहीं गिरती. पूरी सीरीज फीमेल सेक्सुएलिटी और ऑर्गज्म जैसे कभी न उठाए गए सवालों को उठाने के बाद भी वो अपने किसी स्त्री चरित्र को ऑब्जेक्टिफाई नहीं करती. न औरत को मंदबुद्धि बताती है और न थ्रिल पैदा करने के लिए उसके शरीर का इस्तेमाल करती है.
सीरीज में लगातार सेक्स केंद्र में रहता है, लेकिन उस तरह से नहीं जैसे हमें देखने की आदत है. उस तरह से, उन सवालों के साथ, जो हमने कभी किसी फिल्म या कहानी में तो क्या, बंद कमरे में अपने आप से भी नहीं पूछे.
तुर्की से दो सीरीज पिछले दिनों इस ओटीटी पर रिलीज हुईं. नाम था इथोज और फातमा. आज की तारीख में तुर्की का समाज अपनी बुनियादी संरचना में पोलैंड और भारत से कहीं ज्यादा कंजरवेटिव है, कमाल अतातुर्क के तमाम क्रांतिकारी बदलावों के बावजूद. लेकिन उतने कंजरवेटिव, इस्लामिक मूल्यों से संचालित और राइट विंग सत्ता वाले तुर्की में नेटफ्लिक्स ने जिन दो कहानियों को प्लेटफॉर्म दिया, उन दोनों कहानियों के केंद्र में एक स्त्री है. लेकिन उस तरह की स्त्री नहीं, जैसी डीकपल्ड में दिखती है.
टर्किश सीरीज की नायिकाएं क्रांतिकारी फेमिनिस्ट भी नहीं है, लेकिन कहानी का लेखक उन्हें मूर्ख, चालाक और मक्कार औरत की तरह भी नहीं पेश करता, जैसेकि डीकपल्ड में करने की कोशिश की गई है. उन टर्किश कहानियों के नायिकाएं पितृसत्ता के जाल में फंसे होने के बावजूद अपने हक और स्वाभिमान के लिए खड़ी होती हैं, मर्दों की कुटिल दुनिया में सिर उठाकर चलती हैं और अपनी जगह बनाती हैं. ये दोनों अपनी तरह की फेमिनिस्ट कहानियां हैं, हालांकि ये फेमिनिज्म के वेस्टर्न मानकों पर कई जगह खरी नहीं भी उतरतीं.
क्या ये अनायास है कि एक इंटरनेशनल ओटीटी प्लेटफॉर्म जिस वक्त पूरी दुनिया में जेंडर सेंसिटिव, फेमिनिस्ट कंटेंट को बढ़ावा दे रहा है, रिलीज कर रहा है, फंड और सपोर्ट कर रहा है, ठीक उसी वक्त भारत में एक के बाद एक रिलीज होने वाली तमाम फिल्में और कहानियां इस देश की शहरी, पढ़ी-लिखी, आजाद, आत्मनिर्भर और फेमिनिस्ट औरत को मूर्ख, चालाक और बददिमाग स्त्री की तरह पेश कर रही हैं.
डीकपल्ड का नायक तो हीरो है. वो लेखक है, दुनिया में उसका नाम है, वो महान पति है, महान बाप है. वो कुछ भी महान से नीचे नहीं है और नायिका लगातार एक स्टुपिड, चालाक स्त्री की तरह पर्दे पर पेश की जाती है, जिसका पूरा जीवन सिर्फ उस एक आदमी के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है. भले उसकी कोशिश इस बार पति परमेश्वर के साथ रहने की नहीं, बल्कि उससे तलाक लेने की है, लेकिन जिंदगी का केंद्र वही है. जबकि आदमी की जिंदगी का केंद्र औरत न पहले कभी थी और न अब है. इस सीरीज में औरतों को इतने रिग्रेसिव ढंग से और मर्दवादी चश्मे के साथ दिखाया गया है कि टपर-टपर अंग्रेजी में बात करने वाली औरत भी अपने पति से सीधे ये नहीं कह सकती कि वो प्रोटेक्शन का इस्तेमाल कर ले क्योंकि उसे बार-बार इंफेक्शन हो जाता है.
डीकपल्ड में औरत के शरीर को लेकर इतने भद्दे पूर्वाग्रह हैं कि देखते हुए आपका मन वितृष्णा से भर उठे. जिस देश में 70 फीसदी औरतों को अपनी शादीशुदा जिंदगी में कभी ऑर्गज्म नहीं होता और जिस देश के मर्दों को इस बात की दो कौड़ी की परवाह भी नहीं होती, वो औरतें के ऑर्गज्म के एक्सपर्ट बनकर उस पर अपनी राय दे रहे हैं. इस तरह के डायलॉग और कहानियां जब कोई मर्द लिख रहा होता है तो यह अपने आप नहीं हो जाता. ये वाक्य मेल सुपीरियैरिटी के एक खास शिखर पर बैठकर ही लिखे जा सकते हैं, जहां मर्द ने सारा ज्ञान, सारी समझदारी, सारा कंट्रोल और सारा कमांड अपने हाथ में ले रखा है. वो वहां से बैठकर हमें बताएगा कि हमें क्या पसंद है और हमें क्या कैसे मिलना चाहिए.
पूरी सीरीज सिर्फ स्त्रियों के प्रति ही नहीं, बल्कि ट्रांसजेंडर, मुसलमानों, प्रगतिशीलों, वामपंथियों (एनडीटीवी टाइप्स) और गरीबों के प्रति भी एक खास तरह के पूर्वाग्रह से भरी हुई है. सीरीज में चेतन भगत चेतन भगत के ही रोल में हैं. बस खुद सीरीज लेखक ने अपना रोल खुद निभाने के बजाय ये भूमिका आर. माधवन को सौंप दी है.
ये आर. माधवन की खूबसूरती और चार्म है कि इतना सेक्सिस्ट, मिसोजिनिस्ट और पूर्वाग्रह से भरा हुआ नायक भी अंतत: ऐसा नहीं लगता कि आपको उससे नफरत ही हो जाए. इस बैलेंसिंग एक्ट का सारा क्रेडिट माधवन के चार्म को जाता है, न कि कहानी लिखने वाले को.
फिलहाल मर्दवादी पूर्वाग्रह तो दुनिया में हैं और रहेंगे. उस पूर्वाग्रही चश्मे से मर्द अपनी अहंकारी कहानियां भी लिखते रहेंगे, लेकिन असली सवाल ये है कि नेटफ्लिक्स किन कहानियों को सपोर्ट कर रहा है. पूरी दुनिया में फेमिनिस्ट कंटेंट और भारत में सेक्सिस्ट कंटेंट, जबकि आज की तारीख में मर्दवादी सत्ता और पूर्वाग्रहों से लड़ने की सबसे ज्यादा जरूरत इस देश में है.
Rani Sahu
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