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श्रीलंका के संदर्भ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां याद आ रही हैं-‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
सोर्स- divyahimachal
श्रीलंका के संदर्भ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां याद आ रही हैं-'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।' जनता किसी भी सिंहासन से कितनी ताकतवर होती है, यह हकीकत तब सामने आई, जब श्रीलंका का जन-सैलाब 'राष्ट्रपति महल' में घुस गया। हम 'भवन' के बजाय 'महल' शब्द का इस्तेमाल करेंगे, क्योंकि वह किसी शाही महल से कम नहीं है। जनता ने खूब धमा-चौकड़ी मचाई। विलासिता के दर्शन किए और उसे लूटने का प्रयास भी किया। रसोई घर में घुसकर 'शाही भोजन' का स्वाद चखा। राष्ट्रपति के बिस्तर पर लेट कर एहसास किया कि उसके प्रतिनिधि, 'शासक' आम आदमी की तकलीफों, दुख-दर्द और अभावों से कितना दूर था! इतना त्रस्त, गुस्सैल, आक्रोशित, विद्रोही, उत्तेजित श्रीलंका की जनता को हमने कभी देखा-सुना नहीं था। उनके संकटों की पराकाष्ठा की स्थिति आ चुकी थी। श्रीलंकाई जनता ने न केवल 'राष्ट्रपति महल' पर कब्जा किया, बल्कि अल्पकालिक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के निजी आवास को भी फूंक दिया। कल तक जो राष्ट्रपति देश पर हुकूमत कर रहा था, उसे बेचारगी में, परिजनों सहित, 'महल' छोड़ कर भागना पड़ा। राष्ट्रपति नौसेना के जहाज से कहां चले गए, क्या देश में ही भूमिगत हो गए हैं, अभी तक कोई ठोस, अधिकृत सूचना नहीं है।
राष्ट्रपति ने स्पीकर को भेजे संदेश में यह जरूर स्वीकार कर लिया है कि वह 13 जुलाई को पद से इस्तीफा दे देंगे। और क्या विकल्प हो सकता है एक भगौड़े जन-प्रतिनिधि के लिए? सिंहासन खाली हो चुके हैं। राष्ट्रपति के अलावा प्रधानमंत्री को भी इस्तीफे की पेशकश करनी पड़ी है। अब एक सर्वदलीय सरकार के गठन की बात सुन रहे हैं। चुनावों की आहट भी कभी-कभार सुनाई दे रही है। सिंहासन पर जनता के कोई भी प्रतिनिधि बैठें, कार्यवाहक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनाए जाएं, लेकिन श्रीलंका का आर्थिक और संबद्ध संकट कम होने वाले नहीं हैं, क्योंकि देश का विदेशी मुद्रा भंडार नगण्य है, लगभग खाली हो चुका है। तेल और खाद्यान्न आयात करने की पूंजी ही नहीं है। एशिया विकास बैंक, विश्व बैंक, बाज़ार, चीन, जापान, भारत आदि से जो कर्ज़ ले रखे हैं, उनका सालाना भुगतान करने में श्रीलंका असहाय, असमर्थ है। उसे इस साल कमोबेश करीब 700 करोड़ डॉलर का कर्ज़ चुकाना है। भारत और जापान तो कर्ज़ को लेकर ढील दे सकते हैं, बल्कि अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप के अन्य मित्र-देशों को श्रीलंका की मदद करने का आग्रह भी कर सकते हैं। चीन का चरित्र तो 'सूदखोर' सरीखा है।
श्रीलंका को कर्ज के जाल में फांसने की कोशिशें चीन ने कीं और उसके संसाधनों पर कब्जा भी किया। हंबनटोटा पोर्ट 99 साल के लिए चीन के कब्जे में है। आज कई स्तरों पर श्रीलंका चीन का मोहताज है। ऐसे कई छोटे देश हैं, जो चीन के कर्ज़-जाल में जकड़े हैं और श्रीलंका जैसे हालात को झेल रहे हैं या वह नौबत आने वाली है। यदि रातोंरात खेती में रासायनिक खाद और उर्वरकों के इस्तेमाल पर पाबंदी थोपी गई और जैविक खेती की घोषणा की गई, तो उसके पीछे चीन की व्यापारिक नीति ही थी। नतीजतन एकदम 50-60 फीसदी कृषि उत्पादन घट गया और देश में खाद्यान्न संकट पैदा हो गया। श्रीलंका एक कमज़ोर देश नहीं था। विकसित और विकासशील देशों के बीच की श्रेणी में उसकी गिनती की जाती थी। चाय, रबड़ और कपड़े के निर्यात में उसका डंका बजता था। पर्यटन उसकी अर्थव्यवस्था की एक और ताकत बना रहा, जिसे कोरोना महामारी ने बर्बाद किया। कोरोना ने दुनिया भर को घुटनों पर ला दिया था, लेकिन सभी धीरे-धीरे उबर रहे हैं। आज श्रीलंका में चौतरफा संकट है। फ्रिज, एसी और पंखे चलाने पर पाबंदी है। खाद्यान्न नहीं हैं, दवाएं नहीं हैं, बिजली नहीं है, पेट्रोल गिन-गिन कर, बूंद-दर-बूंद, दिया जा रहा है। स्कूल बंद हैं। सड़कों पर जन-सैलाब है कर्फ्यू और आपातकाल की घोषणाओं के बावजूद। बेशक श्रीलंकाई संकट की बुनियादी जिम्मेदारी राजपक्षे परिवार की है, क्योंकि उसी परिवार के चेहरे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री आदि पदों पर आसीन थे। सभी को जान बचाकर भागना पड़ा। आज श्रीलंका को तुरंत 5-6 अरब डॉलर की जरूरत है और ऐसा कर्ज़ अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक से ही मिल सकता है। यदि श्रीलंका पहले की शर्तें पूरी करेगा, तो ही यह नया कर्ज़ संभव है अथवा आपातस्थितियों में कुछ और निर्णय लिया जाए। श्रीलंका हमारा पड़ोसी देश है। भारत ने खूब मदद की है, लेकिन अभी मदद की दरकार है, नहीं तो चीन उसे निगल जाएगा।
Rani Sahu
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