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भारत को इस पर गर्व है कि यहां दुनिया में तीसरी सबसे ज्यादा स्टार्ट अप कंपनियां हैं
मधुरेंद्र सिन्हा
सोर्स- अमर उजाला
भारत को इस पर गर्व है कि यहां दुनिया में तीसरी सबसे ज्यादा स्टार्ट अप कंपनियां हैं और प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों अपने 'मन की बात' कार्यक्रम में गर्व से इसका जिक्र किया। इनमें से सौ से भी ज्यादा कंपनियों का मूल्यांकन एक-एक अरब डॉलर से ज्यादा का है। इनमें से 44 ने तो पिछले साल ही यह दर्जा हासिल किया है। भारतीय स्टार्ट अप के अरबपति बनने की दर तो अमेरिका और इंग्लैंड के स्टार्ट अप से भी कहीं ज्यादा है। ये एडटेक, फिनटेक, बायोटेक, ई-कॉमर्स यानी सभी क्षेत्रों में हैं।
पेटीएम, फ्लिपकार्ट, ओला, बिग बास्केट, बाईजू, ग्रोफर्स जैसी भारतीय स्टार्ट अप कंपनियों को बच्चा-बच्चा जानता है। उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़े के मुताबिक, इस साल मई तक देश में कुल 69,000 स्टार्ट अप कार्यरत थे। इस साल के पहले चार महीनों में 14 स्टार्ट अप यूनिकॉर्न बने-यानी जिनका वैल्यूशन एक अरब डॉलर से अधिक हो। दूसरी ओर, स्टार्ट अप कंपनियां धड़ाधड़ अपना शटर गिरा रही हैं या बड़े पैमाने पर छंटनी कर रही हैं।
एक सर्वे के मुताबिक, नामी-गिरामी स्टार्ट अप कंपनियों ने इस साल 9,000 से भी अधिक कर्मचारियों की छंटनी की। दरअसल इस साल स्टार्ट अप कंपनियों की विदेशी फंडिंग कम होकर आधी रह गई है, जबकि उनके खर्च जस के तस रहे। स्टार्ट अप कंपनियों में कई गुना अधिक वेतन देना आम बात है। पिछले कुछ साल के दौरान वेंचर कैपिटल फर्म और निजी पूंजी लगाने वालों में पैसे निवेश करने की होड़ थी। उन्हें एक नया क्षेत्र दिख रहा था, जिसमें पारदर्शिता थी और जो टेक्नोलॉजी से भरपूर था। लेकिन लॉकडाउन तथा बढ़ती महंगाई ने भारतीय स्टार्ट अप में धन के प्रवाह पर रोक लगा दी।
परिवहन के बढ़े हुए खर्च ने भी स्टार्ट अप कंपनियों के लिए मुसीबत पैदा की। स्कूल-कॉलेजों के खुलने से उन एडटेक कंपनियों की स्थिति खराब हो गई, जो महामारी के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई के जरिये फल-फूल रही थीं। स्टार्ट अप दरअसल एक सोच है, जिसे मूर्त रूप देना होता है। उसमें खुद भी पैसा लगाना होता है, लेकिन अपने यहां ज्यादातर स्टार्ट अप अपनी कंपनी बनाने के बाद विदेशी निवेश की प्रतीक्षा करते हैं, वेंचर कैपिटल फर्म से बातचीत करते हैं और जल्दी से जल्दी स्थापित हो जाना चाहते हैं।
इसके लिए वे अपने स्टार्ट अप का वैल्यूशन बढ़ाते जाते हैं, ताकि निवेशक आकर्षित हों। वैल्यूशन तो बड़ा हो जाता है, पर उनकी वैल्यू न के बराबर होती है, क्योंकि उनकी बैंलेंस शीट में दिखाने को कुछ नहीं होता। अगर कुछ है, तो एक आइडिया और नई टेक्नोलॉजी का समावेश। पर धन के अभाव में वे दम तोड़ने लगते हैं। आज ज्यादातर चीजें ऑनलाइन हैं और स्मार्टफोन पर आसानी से उपलब्ध हैं। ऐसे में, उनके लिए लक्ष्य तक पहुंचना आसान रहता है। पर उनका बिजनेस मॉडल बहुत स्पष्ट नहीं होता।
अगर होता भी है, तो उसमें तुरंत लाभ कमाने की गुंजाइश कम होती है, जैसा हमने पेटीएम के मामले में देखा। इन्हें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लगातार फंड लाना पड़ता है। उन्हें बार-बार फंड तभी मिल सकता है, जब निवेशक को यह लगता रहे कि इस कंपनी में निवेश का उसे अच्छा रिटर्न मिलेगा। अब जो नया दौर दिख रहा है, उसमें बड़ी कंपनियां ही अपना स्टार्ट अप लेकर उतरेंगी। उनके लिए तमाम चीजों का प्रबंधन आसान होगा। उन्हें प्राइवेट इक्विटी आसानी से मिल जाएगी।
आने वाले समय में आईपीओ के बजाय वे इसी तरह पूंजी की व्यवस्था करेंगी, क्योंकि आईपीओ में सरकारी कानून बहुतेरे हैं और हमेशा कंपनियों को निगरानी में रहना पड़ता है। फिर बड़ी कंपनियां लागत का भी ध्यान रखती हैं और ऊंचे वेतन पर कर्मचारियों को नियुक्त नहीं करतीं। अभी बाजार के जो हालात हैं, उनसे लगता है कि स्टार्ट अप के क्षेत्र में जोखिम बहुत अधिक हैं, जबकि सफलता की गुंजाइश कम। यही कारण है कि 90 फीसदी स्टार्ट अप शुरू होने के थोड़े दिन बाद ही बंद हो जाते हैं। इसके बावजूद यह कह देना जल्दबाजी होगा कि स्टार्ट अप के बुरे दिन आ गए हैं। आने वाले समय में अगर वैश्विक मुद्रास्फीति में गिरावट आती है, तो हम फिर स्टार्ट अप कंपनियों में नियुक्तियों का नया दौर देखेंगे।
Rani Sahu
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